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आगम
किसको सत्य माना जाये ? उत्तर- इस बात को केवली या श्रुतकेवली हो जान सकते है ( १/१.१.३७/२६२/१), (घ७/२/११.०३/२४०/४) घ. १/४,१,७१/३३३/३ दोण्डं सुत्ताण विरोहे सतेत्थप्पावल बणस्स णाइयतादो । - दो सूत्रोके मध्य विरोध होनेपर चुप्पीका अवलम्बन करना हो न्याय है ( १/४.१.४४/११६/४) ( १४/५.६.११६/१५१/५) भ. १४/५.६.१९६/२६/११ सचमेदमेव होयमिदि किंतु अन दो मिलिट्टमा सजिये. जिन-गण
पत्तेयबुद्ध - पण्णममण-सुदकेव लिआदीणमभावादो ॥
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- यह सत्य है कि इन दोनो में से कोई एक अल्पबहुत्व होना चाहिए किन्तु यही अल्पबहुत्व होना चाहिए इसका वर्तमान कालमें निश्चय करना शक्य नही है, क्योंकि इस समय जिन, गणधर, प्रत्येकबुद्ध, प्रज्ञाश्रमण, और केवल आदिका अभाव है (गो. जी / जी. २८८ /६१६/२४) ( और भी दे आगम ३ / १ )
१०. विचित्र द्रव्यों आदिका प्ररूपक होनेके कारण प्र.सा./त प्र २३५ आगमेन तावत्सर्वाण्यपि द्रव्याणि प्रमीयन्ते विचित्र गुणपर्यायविशिष्टानि च प्रतीयन्ते सहक्रमप्रवृत्ताने कधर्म व्यापकाने कान्तमत्वेनैवागमस्य प्रमात्वोपपत्ते । आगम द्वारा सभी द्रव्य प्रमेय (ज्ञेय) होते है । आगमसे वे द्रव्य विचित्र गुण पर्यायवाले प्रतोत होते है. क्योंकि आगमको सहप्रवृत्त और क्रमप्रवृत्त अनेक धर्मोमें व्यापक अनेकान्तमय होनेसे प्रमाणताकी उपपत्ति है ।
यस्मादिष्टं
११ पूर्वापर अविरोधी होनेके कारण अष्टसहस्त्रो पृ ६२ (निर्णय सागर बम्बई) "अविरोध ( प्रयोजनभूतं ) मोक्षादिक तत्त्वं ते प्रसिद्धेन प्रमाणेन न बाध्यते । तथा हि यत्र यस्याभिमत तत्त्व प्रमाणेन न बाध्यते स तत्र युक्तिशास्त्राविरोधी बाट अर्थात् प्रयोजनभूत मोक्ष आदित किसी भी प्रसिद्ध प्रमाण न होनेके कारण अविरोधी हैं। जहाँपर जिसका अभिमत प्रमाण बाधित नहीं होता, वह वहाँ दुक्ति और शास्त्र से अविरोधी वचनवाला होता है।
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अन. ध. २/१८/१३३ दृष्टेऽर्थेऽध्यक्षतो वाक्यमनुमेयेऽनुमानत' । पूर्वापरा, विरोधेन परोक्षे च प्रमाण्यताम् ॥ १८॥ - आगममें तीन प्रकारके पदार्थ बताये है दृष्ट, अनुमेय और परोक्ष इनमें से जिस तरहके पदार्थको बतानेके लिए आगममें जो वाक्य आया हो उसको उसी तरहसे प्रमाण करना चाहिए। यदि दृष्ट विषयमें आया हो तो प्रत्यक्षसे और अनुमेय विषय में आया हो तो अनुमानसे तथा परोक्ष विषयमें आया हो तो पूर्वापरका अविराध देखकर प्रमाणित करना चाहिए ।
क. पा १/१.१५/३० / ४४/४ कथं णामसणिदान पदवक्काणं पमाणत्त । ण, तेसु विसवादाणुबलं भादो प्रश्न-नाम शब्द से बोधित होने बाले पद और वाक्योंको प्रमाणता कैसे ? उत्तर - नहीं, क्योंकि, इन पदो में विसंवाद नहीं पाया जाता, इसलिए वे प्रमाण है ।
१२. युक्तिसे बाधिन नहीं होनेके कारण
सहस पू. २ (नि सा बम्बई) "यत्र यस्याभिमतं तवं प्रमाणेन न बाध्यते स तत्र युक्तिशाखाविरोधिवाक्। "जहाँ जिसका भिमत तस्य प्रमाणसे बाधित नहीं होता, वहाँ वह युक्ति और शाखसे अविरोधी वचनवाला है ।
ति. प. ७/६१३ / ७६६ / ३ तदो ण एत्थ इदमित्थमेवेति एयंतपरिग्गृहेण असग्गाहो कायो, परमगुरुपरं पराग उवएसस्स जुत्तिमले बिहडावेदुमसक्कियन्तादो । - 'यह ऐसा ही है' इस प्रकार एकान्त कदाग्रह नहीं करना चाहिए, खोंकि गुरु परम्परासे आये उपदेशको युक्तिके बलसे विघटित नहीं किया जा सकता ।
घ. ७/२.१.५६/१८/१० आगमपमाणेण होदु णाम समस्स अत्यित्तं ग जुत्तीए चे । ण, जुत्तोहि आगमस्स बाहाभावादो आगमेण वि जच्चा
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१३६६. आपकी प्रामाणिक हेतुओं का
ती बाहिरिति सच्चे माहियदि जया जुली किन्तु इमा बाहिज्जदि जच्चात्ताभावादो । - प्रश्न- आगम प्रमाणसे भले दर्शनका अस्तित्व हो, विन्तु युक्तिसे तो दर्शनका अरित्व य नहीं होता उत्तर होता है. क्योकि तियोंसे बागमको बाधा नही होती। प्रश्न - आगमसे भी तो जात्य अर्थात उत्तम युक्तिकी बाधा नही होनी चाहिए ? उत्तर- सचमुच ही आगमसे युक्तिकी बाधा नहीं होती किन्तु प्रस्तुत युक्तिकी बाधा अवश्य होती है। क्योंकि वह उत्तम युक्ति नहीं है।
यो समिविरुद्वा पमाणं बाहिज्जदे, विरोहादो
१२/४१,३३३३३ / १३ च त्तिविरुद्धतादो मुत्तमे मिदि जुत्सितामायादो च अप्पमाण प्रश्न- युक्ति विरुद्ध होनेसे यह सूत्र
ही नही है ? उत्तर- ऐसा कहना शक्य नहीं है। क्योकि जो युक्ति सूत्रके विरुद्ध हो वह वास्तवमे मुक्ति ही सम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त अप्रमाणके द्वारा प्रमाणको माधा नही पहुँचायी जा सकती क्योकि वैसा होनेमें विरोध है। (गो जो / जी प्र १६६ / ४३६ / १५ ) १२/४.२.१४.२८/४६४ / १५ च तपडिकूल होदि णाभासहत्तादो। ण च जुत्तीए सुत्तस्स बाहा संभवदि, सयलबाहादीदस्स] [सुत्तमवसादो सूत्रके प्रतिकूल उपाख्यान होता नहीं है। क्योंकि वह व्याख्यानाभास कहा जाता है। प्रश्न- यदि कहा जाय कि युक्तिसे सूत्रको बाधा पहुँचायी जा सकती है उत्तर सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो समस्त बाधाओ से रहित है उसकी सुप्रज्ञा है ( १४/५.६.५५२/४७१/१० ) १३. प्रथमानुयोगकी प्रामाणिकता
नोट-भ आ./मूलमें स्थल-स्थल पर अनेको कथानक दृष्टान्त रूप में दिये गये है, जिनसे ज्ञात होता है कि प्रथमानुयोग जो बहुत पो fafe हुआ वह पहले आचार्यों को ज्ञात था । ६. आगमकी प्रामाणिकताके हेतुओं सम्बन्धी शंका
समाधान
१ अर्वाचीन पुरुषों द्वारा लिखित आगम प्रामाणिक कैसे हो सकते है
"
१९.१.२२/१०/१ अमानमिदानीतन आगम बारातीयपुरुषउपाख्यातार्थस्यादिति चेद्र रेगीनज्ञानविज्ञानसंज्ञया प्राप्तप्रामाण्यराचार्यैव्यख्यातार्थव्या कथं स्थान सत्यवादिवमिति चेन्न यथाश्रुतव्याख्यातॄणां तदविरोधात प्रमाणगुरुपर्व क्रमेणायातोऽयमर्थ इति कथमवसीयत इति चेन्न, दृष्टविषये सर्वमादाय अदृष्टविषयेऽप्यविसंवादिनागमभावेने करवे सति सुनिश्चितासंभवबाधकप्रमाणकत्वात् । ऐदंयुगीनज्ञान विज्ञानस पन्न भूयसामाचार्याणामुपदेशाद्वा तदवगते । ==! = प्रश्न- आधुनिक आगम अप्रमाण है, क्योकि अर्वाचीन पुरुषोने इसके व्याख्यानका अर्थ किया है ? उत्तर - ग्रह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस काल सम्बन्धी ज्ञान-विज्ञान से युक्त होनेके कारण प्रमाणताको प्राप्त आचार्योंके द्वारा इसके अर्थका व्याख्यान किया गया है, इसलिए आधुनिक आगम भी प्रमाण है। प्रश्न- छद्मस्थों के सत्यवादीपना केसे माना जा सकता है 1 उत्तर नही, क्योंकि श्रुतके अनुसार व्याख्यान करनेवाले आचार्यो के प्रमाणता माननेमें विरोध नहीं है। प्रश्न - आगमका विवक्षित अर्थ प्रामाणिक गुरुपरम्परासे प्राप्त हुआ है यह कैसे निश्चित किया जाये 1 उत्तर - नहीं, क्योंकि प्रत्यक्षभूत विषयमें तो सब जगह विसंवाद उत्पन्न नही होनेसे निश्चय किया जा सकता है । और परोक्ष विषय में भी, जिसमें परोक्ष विषयका वर्णन किया गया है वह भाग अभिसंभादी आगमके दूसरे भागोके साथ आगमकी अपेक्षा एकताको प्राप्त होनेपर अनुमानादि प्रमाणीके द्वारा बाधक प्रमाणोका अभाव सुनिश्चित होनेसे उसका निश्चय किया जा सकता है । अथवा
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