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आगम
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७. सूत्र निर्देश
ध १३/५.५,१३७/३८६/२ न च केवलज्ञान विषयीकृतेष्वर्थेषु सकलेष्वपि रजोजुषा ज्ञानानि प्रवर्तन्ते येनानुपलम्भाज्जिनवचसस्याप्रमाणत्वमुच्येता केवलज्ञानके द्वारा विषय किये गये सभी अर्थों में छद्मस्थोके ज्ञान प्रवृत्त भी नहीं होते है। इसलिए यदि छद्मस्थोंको कोई अर्थ नहीं उपलब्ध होते है तो जिनवचनोंको अप्रमाण नहीं कहा जा
सकता। ध. १५/३१७/४ सयलसुद विसयावगमें पयडिजीवमेवेण णाणाभेदभिण्णे असंते एवं ण होदि त्ति वोत्तमसक्कियत्तादो। तम्हा मुत्ताणुसारिणा सुत्ताविरुद्धवक्वाण मवल बेयव्वं । समस्त श्रुतविषयक ज्ञान होनेपर तथा प्रकृति एवं जोबके भेदसे नाना रूप भेदके न होनेपर यह नहीं हो सकता 'ऐसा कहना शक्य नही है। इस कारण सुत्रका अनुसरण करनेवाले प्राणीको सुत्रमे अविरुद्ध व्याख्यानका अवलम्बन करना
चाहिए। प.वि १/१२५ य' कल्पयेव किमपि सर्वविदोऽपि वाचि सदिह्य तत्त्वमसमञ्जसमात्मबुद्धया। खे पत्रि विचरतां सदृशेक्षिताना संख्या प्रति प्रविदधाति स वादमन्धः ॥१२५॥ -जो सर्वज्ञके भी वचनोंमें संदिग्ध होकर अपनी बुद्धिसे तत्त्वके विषयमें भी कुछ कल्पना करता है, वह अज्ञानी पुरुष निर्मल नेत्रोंवाले व्यक्तिके द्वारा देखे गये आकाशमें विचरते हुए पक्षियों की संख्याके विषयमें विवाद करनेवाले अन्धेके समान आचरण करता है ॥१२॥ (प वि.१३/३४) ५. आगममें भूल सुधार व्याकरण व सूक्ष्म विषयों में
करनेको कहा है प्रयोजनभूत तत्त्वोंमें नहीं नि. सा./मू. १८७ णियभावणाणिमित्त मए कई णियमसारणाम् सुदं ।
णच्चा जिणोवदेसं पुवावरदोष विम्मुक्कं ॥१८७॥ - पूर्वापर दोष रहित जिनोपदेशको जानकर मैने निम भावनाके निमित्तसे नियमसार नामका शास्त्र किया है। नि.स /गा १८७/क ३१० अस्मिन् लक्षणशास्त्रस्य विरुद्ध पदमस्ति चेत् ।
लुप्त्वा तत्कवयो भद्रा कुर्वन्तु पदमुत्तमम् ॥३१०॥ - इसमें यदि कोई पद लक्षण शाखसे विरुद्ध हो तो भद्र कवि उसका लोप करके उत्तम
पद करना। ध.३/१,२,५/३८/२ अहदियस्थ विसर छदुवेस्थवियप्पिदजुत्तीर्ण णिण्णयहेयत्ताणुववत्तीदो। तम्हा उवएसं लधुण बिसेसणिण्णयो एस्थ कायब्वो ति। - अतीन्द्रिय पदार्थोंके विषयमें छमस्थ जीवोंके द्वारा कल्पित युक्तियों के विकल्प रहित निर्णयके लिए हेतुता नहीं पायी जाती है। इसलिए उपदेशको प्राप्त करके इस विषयमें निर्णय करना
चाहिए। प.प्र. २/२१४/३१६/२ लिङ्गवचनक्रियाकारकसधिसमासविशेष्यविशेषणवाक्यसमाप्क्ष्यादिकं दूषणमत्र न ग्राह्य विद्वद्भिरिति। -लिंग, वचन, क्रिया, कारक, सन्धि, समास, विशेष्य विशेषणके दोष विद्वजन
ग्रहण न करें। बसु. श्रा. ५४५ जं कि पि एत्थ भणियं अयाणमाणेण पबयणविरुद्धं ।
खमिऊण पवयणधरा सोहित्ता तं पयासतु ॥५४॥-अजानकार होने से जो कुछ भी इसमें प्रवचन विरुद्ध कहा गया हो, सो प्रवचनके धारक(जानकार) आचार्य मुझे क्षमा करें और शोधकर प्रकाशितकरें।
६. पौरुषेय होनेके कारण अप्रमाण नहीं कहा जा सकता रा, वा. १/२०७/७१/३२ ततश्च पुरुषकृतिवादप्रामाण्य स्यात् । ...न चापुरुषकृतित्वं प्रामाण्यकारणमः चौर्याद्वयुपदेशस्यास्मर्यमाणकर्तृकस्य प्रामाण्यप्रसङ्गात्।अनित्यस्य च प्रत्यक्षादे' प्रामाण्ये को विरोधः। -प्रश्न-पुरुषकृत होने के कारण श्रुत अप्रमाण होगा।उत्तर-अपौरुषेयता प्रमाणताका कारण नहीं है। अन्यथा चोरी आदिके उपदेश भी प्रमाण हो जायेंगे क्योंकि इनका कोई आदि प्रणेता ज्ञात नहीं है। त्यक्ष आदि प्रमाण अनित्य है पर इससे उनकी प्रमाणतामें कोई कसर नहीं आती है।
७ आगम कथंचित् अपौरुषेय तथा नित्य है ध १३/५.६,५०/२८६/२ अभूत इति भूतम्, भवतीति भव्यम्, भविष्यतीति भविष्यत, अतीतानागत-वर्तमानकालेष्वस्तीत्यर्थ । एव सत्यागमस्य नित्यत्वम् । सत्येवमागमस्यापौरुषेयत्वं प्रसजतीति चेत-न, वाच्य-वाचकभावेन वर्ण-पद-पक्तिभिश्च प्रवाहरूपेण चापौरुषेयत्वाभ्युपगमात। - आगम अतीत काल में था इसलिए उसकी भूत सज्ञा है, वर्तमान काल में है इसलिए उसकी भव्य संज्ञा है और भविष्यव कालमें रहेगा इसलिए उसको भविष्य संज्ञा है और आगम अतीत. अनागत और वर्तमान काल में है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार वह आगम नित्य है। - प्रश्न-ऐसा होनेपर आगमको अपौरुषेयताका प्रसंग आता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि वाच्य वाचक भावसे तथा वर्ण, पद व पंक्तियोके द्वारा प्रवाह रूपसे आनेके कारण
आगमको अपौरुषेय स्वीकार किया गया है। पं. ध /पृ ७३६ वेदा' प्रमाणमत्र तु हेतु केवलमपौरुषेयत्वम् । आगम गोचरतया हेतोरन्याश्रितादहेतुरत्वम् ॥७३६॥ - वेद प्रमाण है यहाँपर केवल अपौरुषेयपना हेतु है, किन्तु अपौरुषेय रूप हेतुको आगम गोचर होनेसे अन्याश्रित है इसलिए वह समीचीन हेतु नहीं है।
८. आगमको प्रमाण माननेका प्रयोजन आप्त मी.२/पृ.६ प्रयोजन विशेष होय तहाँ प्रमाण संप्लव इष्ट है । पहले प्रमाण सिद्ध प्रामाण्य आगम तै सिद्ध भया तौऊ तथा हेतु प्रत्यक्ष देखि अनुमान ते सिद्ध करै पोछे ताकू प्रत्यक्ष जाणें तहाँ प्रयोजन विशेष होय है ऐसे प्रमाण सप्लव होय है। केवल आगम ही तें तथा आगमाश्रित हेतुजनित अनुमान त प्रमाण कहि काहे के प्रमाण संप्लव कहना। ७. सूत्र निर्देश
१.सूत्रका अर्थ द्रव्य व भाव श्रुत
१ द्रव्य श्रुत प्र.सा./त.प्र. ३४ श्रुत हि, तावत्सूत्र। तच्च भगवदर्हत्सर्वज्ञोपज्ञ' स्यास्कारकेतनं पौहगलिक शब्दब्रह्म । -श्रुत ही सूत्र है, और वह सूत्र भगवान् अर्हन्त सर्व ज्ञके द्वारा स्वयं जानकर उपदिष्ट, स्यारकारचिह्नयुक्त पौद्गलिक शब्द ब्रह्म है । स.म ८/७४/६ सूत्र'तु सुचनाकारि ग्रन्थे तन्तुव्यवस्थयोः। सूत्र शब्द ग्रन्थ, तन्तु और व्यवस्था इन तीन अर्थों को सूचित करता है।
२. भाव श्रुत स.सा./ता वृ. १५/४० सूत्र' परिच्छित्तिरूपं भावभूत ज्ञानसमय इति ।-परिच्छिति रूप भावश्रुत ज्ञान समयको सूत्र कहते हैं ।
२. सूत्रका अर्थ श्रुतकेवली ध १४/५,६,१२/८/4 सुत्तं सुदकेवली । -सूत्रका अर्थ श्रुतकेवली है।
३. सूत्रका अर्थ अल्पाक्षर व महानार्थक ध १/४.१,१४/११७/२५६ अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारबद गूढनिर्णयम् । निर्दोषहेतुमत्तथ्य सूत्रमित्युच्यते बुधैः ॥११७|| -जो थोडे अक्षरों से स युक्त हो, सन्देहसे रहित हो. परमार्थ सहित हो, गूढ पदार्थीका निर्णय करनेवाला हो, निर्दोष हो, युक्तियुक्त हो और यथार्थ हो, उसे पण्डित जन सूत्र कहते है ॥११७॥ (क.पा. १/१,१५/६८/१५४) (आवश्यक नियुक्ति सू.८८६) क.पा. १/१.१५/७३/१५१ अर्थस्य सूचनात्सभ्यक् सूतेर्वार्थस्य सूरिणा।
सूत्रमुक्तमनपार्थ सूत्रकारेण तत्त्वतः ॥७३॥ -जो भले प्रकार अर्थका सूचन करे, अथवा अर्थको जन्म दे उस बहुअर्थ गर्भित रचनाको सूत्रकार आचार्य ने निश्चयसे सूत्र कहा है। (वृ कल्पभाष्य गा. ३१४), (पाराशरोपपुराण अ. १८), (मध्व भाष्य १/११), (मुग्धबोध व्याकरण
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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