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आगम
३. आगमका र्थ करनेकी विधि
एदीए गाहाए णाभदत्तं काऊग सक्किन दि, अइप्पसं गादो। - प्रश्नयदि ऐसा है तो (देश सयतमें तेरह करोड मनुष्य है) इस गाथाके साथ इस पूर्वोक्त व्याख्यानका विरोध क्यों नही आ जायेगा। उत्तर-- यदि उक्त गाथाके साथ पूर्वोक्त व्याख्यानका विरोध प्राप्त होता है तो होओ...जो युक्ति सिद्ध है और आचार्य परम्परासे आया हुआ है उसमें इस गाथासे असमीचीनता नहीं लायी जा सकती, अन्यथा अतिप्रसग दोष आ जायेगा । (ध.४/१,४,४/१५६/२) रहस्यपूर्ण चिट्ठी पं. टोडरमल/पृ ५१२ दे आगम ३/४/१
३. शब्दका नही भावका ग्रहण करना चाहिए स.सि. १४३३/१४४ अन्यार्थस्यान्यार्थेन सबन्धाभावात् । लोकसमय विरोध इति चेत् । विरुध्याताम् । तत्त्वमिह मीमास्यते, न भैषज्यमातुरेच्छानुवर्ति' अन्य अर्थका अन्य अर्थ के साथ सम्बन्धका अभाव है । प्रश्न-इससे लोक समयका (व्याकरण शास्त्र) का विरोध होता है। उत्तर-यदि विरोध होता है तो होने दो, इससे हानि नहीं, क्योंकि यहाँ तत्त्वकी मीमांसा की जा रही है। दवाई कुछ पीडित मनुष्यकी इच्छाका अनुकरण करनेवाली नहीं होती। रा.वा. २/६/३,८/१०६ द्रव्यालङ्ग नामकर्मोदयापादितं तदिह नाधि
कृतम्, आत्मपरिणामप्रकरणात ...द्रव्यलेश्या पुद्गल विपाकिकर्मोंदयापादितेति सा नेह परिगृह्यत आत्मनो भावप्रकरणात् । -चू कि आत्मभावों का प्रकरण है, अत' नामकर्मके उदयसे होनेवाले द्रव्यलिंगकी यहाँ विवक्षा नहीं है। द्रव्य लेश्या पुदगल विपाकी शरीर नाम कर्मके उदयसे होती है अत: आत्मभावोंके प्रकरण में उसका ग्रहण नहीं किया है। ध. १/१,१,६०/३०३/६ अन्यैराचार्येरव्याख्यातमिममर्थ भणन्त कथं न सूत्रप्रत्यनीका । न, सूत्रवशवतिना तद्विरोधात। - प्रश्न-अन्य आचार्योके द्वारा नहीं व्याख्यान किये इस अर्थ का इस प्रकार व्याख्यान करते हुए आप सूत्रके विरुद्ध जा रहे है ऐसा क्यों नहीं माना जाये। उत्तर-नहीं.. सूत्रके वशवर्ती आचार्योंका ही पूर्वोक्त (मेरे) कथनसे विरोध आता है। (अर्थात् मै गलत नहीं अपितु वही
गलत है।) ध, ३/१,२,१२३/४०८/५ आइरियवयणमणेयंतमिदिचे, होदु णाम, णस्थि मझेरथ अग्गह।। - आचार्योंके वचन अनेक प्रकारके होते है तो होओ. इसमें हमारा आग्रह नहीं है। ध.१,७,३/१६७/६ सव्वभावाण पारिणामियत्त पसज्जदीदिचे होदण कोइ दोसो। सभी भावोंके पारिणामिकपनेका प्रसंग आता है तो
आने दो। ध ७/२,१५६/१०१/२ चक्षुषा दृश्यते वा तं तत् चक्खुदसणं चक्षुई र्शनमिति वेति ब वते । चविखदियणाणादो जो पुवमेव सुवसतीए सामग्णाए अणुहओ चक्खुणाणुप्पत्तिणिमित्तो त चक्खुदंसणमिदि उत्त होदि । बालजणबीण चक्खूणं जं दिस्सदितं चक्खूदसणमिदि परूबणादो। गाहएगलभजणकाऊण अज्जुवस्थो किण्ण घेपदि। ण, तत्थ पुश्वुत्तासेसदासप्पसंगादो। जो चक्षुओको प्रकाशित होता है अथवा आँख द्वारा देखा जाता है वह चक्षुदर्शन है इसका अर्थ ऐसा समझना चाहिए कि चक्षु इन्द्रिय ज्ञानसे पूर्व ही सामान्य स्वशक्तिका अनुभव होता है जो कि चक्षु ज्ञानको उत्पत्तिमें निमित्तभूत है वह चक्ष दर्शन है।...बालक जनोको ज्ञान करानेके लिए अन्तरंगमें माह्य पदार्थोके उपचारसे 'चक्षुओंको जो दीखता है वही चक्षु दर्शन है' ऐसा प्ररूपण किया गया है । प्रश्न-गाथाका गला न घोट कर सीधा अर्थ क्यों नहीं करते । उत्तर-नहीं करते, क्योंकि वैसा करनेमें पूर्वोक्त समस्त दोषोंका प्रसंग आता है। प्र.सा./त.प्र.८६ शब्दाब्रह्मोपासनं भावज्ञानावष्टम्भदृढीकृतपरिणामेन सम्यगधीयमानमुपायान्तरम् । - (मोह क्षय करने में) परम शब्द ब्रह्मकी उपासनाका, भावज्ञानके अवलम्बन द्वारा दृढ किये गये परिणामसे सम्यक् प्रकार अभ्यास करना सो उपायान्तर है।
स.सा./आ, २७७ नाचारादिशब्दश्रूतं, एकान्तेन ज्ञानस्याश्रयः तत्सद्भाबेऽपि...शुद्धाभावेन ज्ञानस्याभावात् ।-आचारादि शब्दश्रुत एकान्तसे ज्ञानका आश्रय नहीं है, क्योंकि आचारागादिकका सद्भाव होनेपर भी शुद्धारमाका अभाव होनेसे ज्ञानका अभाव है। स.सा./ता.वृ. ३/ स्वसमय एव शुद्धात्मन' स्वरूपं न पुनः परसमय" इति पातनिका लक्षणं सर्वत्र ज्ञातव्यम्। -स्व समय ही शुवाश्माका स्वरूप है पर समय नहीं। इस प्रकार पातनिकाका लक्षण सर्वत्र जानना चाहिए।
५. भावार्थ करनेकी विधि पं.का./ता,वृ २७/६१ कर्मोपाधिजनितमिथ्यास्वरागादिरूप समस्तबिभाषपरिणामास्त्यवत्वा निरुपाधिकेवलज्ञानादिगुणयुक्तशुद्धजीवास्तिकाय एव निश्चयनयेनोपादेयत्वेन भावयितव्य इति भावार्थः। प.का /ता.वृ. ५२/१०१ अस्मिन्नधिकारे यद्यप्यष्टविधज्ञानोपयोगचतुर्विध
दर्शनोपयोगव्याख्यानकाले शुद्धाशुद्धविवक्षा न कृता तथापि निश्चयनयेनादिमध्यान्तवजिले परमानन्दमालिनी परमचैतन्यशालिनि भगवरयात्मनि यदनाकुलत्वलक्षणं पारमार्थिकारखं तस्योपादेयभूतस्योपादानकारणभूतं यत्केवलज्ञानदर्शनद्वयं सवेवोपादेय मिति श्रद्धेय शेयं तथैवातरौद्रादिसमस्तविकल्पजालत्यागेन ध्येयमिति भावार्थ:कर्मोपाधि जनित मिथ्यात्व रागादि रूप समस्त विभाव परिणामों
को छोड़कर, निरुपाधि केवल ज्ञानादि गुणोंसे युक्त जो शुद्ध जीवास्तिकाय है, उसीको निश्चय नयसे उपादेय रूपसे मानना चाहिए यह भावार्थ है। वा यद्यपि इस अधिकारमैं आठ प्रकारके ज्ञानोपयोग तथा चार प्रकारके दर्शनोपयोगका व्याख्यान करते समय शुद्धाशुद्धकी विवक्षा नहीं की गयी है। फिर भी निश्चय नयसे आदि मध्य अन्तसे रहित ऐसी परमानन्दमालिनी परमचैतन्यशालिनी भगवान आत्मामें जो अनाकुलत्व लक्षणवाला पारमार्थिक सुख है, उस उपादेय भूतका उपादान कारण जो केवलज्ञान व केवल दर्शन हैं, ये दोनों ही उपादेय हैं। यही श्रद्धय है, यही ज्ञेय है, तथा इस हो को बार्त रौद्र आदि समस्त विकल्प जालको त्यागकर ध्येय बनाना चाहिए। ऐसा भावार्थ है । (व.का./ता.वृ. ६१/११३) द्र सं.टी. २/१० शुद्धनयाश्रितं जीवस्वरूपमुपादेयम्. शेषं च हेयम् । इति हेयोपावे यरूपेण भावार्थोऽप्यवबोद्धव्यः । एवं"यथासंभव व्याख्यानकाले सर्वत्र ज्ञातव्यः । - शुद्ध नयके आश्रित जो जीवका स्वरूप है वह तो उपादेय यानी-ग्रहण करने योग्य है और शेष सम त्याज्य है। इस प्रकार हेयोपादेय रूपसे भावार्थ भी समझना चाहिए । तथा व्याख्यानके समयमें सब जगह जानना चाहिए।
६. आगममें व्याकरणको प्रधानता ध.१/१.१,१/२/8-१०/३ धाउपरूवणा किम कीरदे। ण, अणवयधाउस्स सिस्सस्स अस्था गमाणुब्वत्तादो। उक्तं च 'शब्दास्पदप्रसिद्धिः पदसिद्ध रर्थनिर्णयो भवति । अर्थात्तत्त्वज्ञानं तत्त्वज्ञानात्पर श्रेय'२इति । -प्रश्न-धातुका निरूपण किस लिए किया जा रहा है (यह तो सिद्धान्त ग्रन्थ है)! उत्तर-ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए। क्योंकि जो शिष्य धातुसे अपरिचित है, उसे धातुके परिज्ञानके बिना अर्थका परिज्ञान नहीं हो सक्ता और अर्थबोधके लिए विवक्षित शब्द का अर्थज्ञान कराना आवश्यक है, इसलिए यहाँ धातूका निरूपण किया गया है। कहा भी है-शब्दसे पदको सिद्धि होती है, पदकी सिद्धि से अर्थ का निर्णय होता है, अर्थ के निर्णयसे तत्त्वज्ञान अर्थात हेयोपादेय विवेककी प्राप्ति होती है और तत्त्वज्ञानसे परम कल्याण होता है। मपु. ३८/१११ शब्द विद्यार्थ शास्त्रादि चाध्येय नास्थ दृष्यति। ससं
स्कारप्रबोधाय वै यात्यख्यातयेऽपि च ॥११॥ - उत्तम संस्कारोंको जागृत करनेके लिए और टिद्वत्ता प्राप्त करनेके लिए इस व्याकरण आदि शब्दशाख और न्याय आदि अर्थशास्त्रका भी अभ्यास करना
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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