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ગામ
वि पाइये है। ऐसा जानना (सम्मति तर्क / १६) (रा. वा १/२६/४/८०) (घ१/४/२७,२१४/३/१७९) ( १२/४/१००/१७/५७)
पं. ध /उ. ६१६ वृद्ध. प्रोक्तमत' सूत्र े तव वागतिशायि यत् । द्वादशाबाह्य वा श्रुत स्थूलार्थगोचरम् । इसलिए पूर्वाचार्योंने सूत्रमें कहा है कि जो है वह वचनातीत है और द्वादशाङ्ग तथा अन वाह्यरूप शास्त्र श्रुत ज्ञान स्थूल पदार्थको विषय करने वाला है ।
१२. आगमकी बहुतसी बातें नष्ट हो चुकी है
ध ६/४,१.४४/९२६/४ दोसु वि उवएसेसु को एत्थ समंजसो, एत्थ ण बाहर जिन्भमेलाइरियवच्छवो, अलद्धोवदेसत्तादो दोण्णमेक्कस्स बाहाणुपलं भादो। किंतुदोएक्केण हादव्वं । त जाणिय वत्तब्ब । - उक्त (एक ही विषयमें) दो (पृथक्-पृथक्) उपदेशो में कौन सा उपदेश यथार्थ है, इस विषयमें एलाचार्यका शिष्य ( वीरसेन स्वामी) अपनी जीभ नही चलाता अर्थात् कुछ नहीं कहता, क्योंकि इस विषयका कोई न तो उपदेश प्राप्त है और न दोमें से एक में कोई बाधा उत्पन्न होती है । किन्तु दो में से एक ही सत्य होना चाहिए। उसे जानकर कहना उचित है।
ति प अधिकार / श्लो, (यहाँ निम्न विषयो के उपदेश नष्ट होनेका निर्देश किया गया है। ) नरक लोकके प्रकरण में श्रेणी बद्ध बिलोंके नाम (२/५४) समवशरण में नाट्यशालाओंको सम्बाई चौडाई (४२/०५७): प्रथम और द्वितीय मानस्तम्भ पोठोका विस्तार (४ /७७२); समवशरणमें स्तूपों की लम्बाई और विस्तार (४/८४७); नारदोकी ऊंचाई आयु और तोर्थंकर देवोके प्रत्यक्ष भावादिक (४/१४७१); उत्सर्पिणी कालके शेष कुलकरोंकी ऊँचाई (४/१५७२), श्री देवीके प्रकीर्णक आदि चारोके प्रमाण (४/१६८८), हैमवतके क्षेत्र में शब्दवान पर्वत पर स्थित जिन भवनको ऊँचाई आदिके (४/१७१०), पाण्डुक वनपर स्थित जिन भवन में सभापुर के आगे वाले पीठके विस्तारका प्रमाण (४/१६७). उपरोक्त जिन भवनमे स्थित पीठकी ऊँचाईके प्रमाण (४ / १६०२ ); उपरोक्त जिन भरनमें चैश्य वृक्षीके आगे स्थित पीठके विस्ताराषि (४/१९१०), सौमनस बननी माघिकामे स्थित सौधर्म इन्द्रके बिहार प्रासादको लम्बाईका प्रमाण (४ / १६५०): सौमनस गजदन्तके कूटोके विस्तार और लम्बाई ( ४ / २०३२) विद्य तत्प्रभगजदन्तके कूटों के विस्तार और सम्बाई (४ / २०४०) विदेह देवकुरुमे यमक पर्वतोपर और भी दिव्य प्रासाद है. उनकी ऊंचाई व विस्तारादि (४/२०८२). विदेहस्वामी व जम्मू वृक्षस्थलोंकी प्रथम भूमिमें स्थित ४ वापिका ओपर प्रतिदिशामें आठ-आठ कूट है, उनके विस्तार (४।२१८२), ऐरावत क्षेत्र के शलाका पुरुषो के नामादिक (४/२२६६): लवण समुद्र में पातालोके पार्श्व भागों में स्थित कौस्तुभ और कौस्तुभाभास पर्वतका विस्तार (४/२४६२), धातकी खण्डमें मन्दर पर्वतोंके उत्तरदक्षिण भाग भद्रशासोका विस्तार (४/२००६) मानुषोसर पर्वतपर १४ गुफाएँ है, उनके विस्तारावि (४/२७५३२) पुम्करार्ध में सुमेरु पर्वत उत्तर दक्षिण भागो में भद्रशाल वनोंका विस्तार (४/२८२२); जम्बूद्वीपसे लेकर अरुणाभास तक बीस द्वीप समुद्रोंके अतिरिक्त शेष द्वीप समुद्रोंके अधिपति देव के नाम (५ / ४८), स्वयम्भूरमण समुद्र में स्थित पर्वतकी ऊँचाई आदि (५/२४०), अजनक, हिंगुलक आदि द्वीपोंमें स्थित व्यन्तरोके प्रासादोकी ऊंचाई आदि (4/44) अपार इन्द्रोंके जो प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक देव होते है उनके प्रमाण (१/०६): तारोंके नाम (०/३२.४६६) गृहाँका सुमेरुले अन्तराल म वाणियों आदिका कथन (७/४५८); सौधर्मादिकके सोमादिकपालोंके आभियोग्य प्रकीर्णक और किल्बिषक देव होते है; उनका प्रमाण (८/२६६) उरेन्द्र के लोकपाल के विमानोंकी संख्या (८/३०२), सौधर्मादिक प्रकीर्णक, आभियोग्य और कमियोकी देवियोंका प्रमाण (८ / १२६) सौधर्मादिकके प्रकीर्णक, आभियोग्य और
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२. द्रव्यभाव आगम ज्ञान निर्देश व समन्वय
कोकी देवियोकी आयु (८/२१३): सौधर्मादिन के आत्मरक्षक व परिषद्की देवियोकी वायु (८/५४०) | १३. आगमके विस्तारका कारण
ससि. १/८/३० सर्वसत्त्वानुग्रहार्थो हि सतां प्रयास इति, अधिगमाभ्युपायभेदोद्द ेश कृत । सज्जनोका प्रयास सब जीवोका उपकार करना है, इसलिए यहाँ अलग-अलग ज्ञानके उपायके भेदोका निर्देश किया है।
घ. १/१,१,५/१५३/८ नैष दोष मन्दबुद्धिसत्त्वानुग्रहार्थत्वात । घ १/१.१.७० / ३११/२ द्विरस्ति-शब्दोपादानमनर्थकमिति चेन्न, विस्तररुचित्वानुग्रहार्थत्वात् । स क्षेपरुचयो नानुगृहीताश्चेन्न, विस्तररुचि
मानुग्रहस्य संक्षेपरुचिसनानुग्रहामिमामाविवाद - प्रश्न-(छोटा सूत्र बनाना ही पर्याप्त था, क्योंकि सूत्रका शेष भाग उसका अनिभायी है। उत्तर- यह कोई दोष नहीं है क्योंकि मन्दबुद्धि प्राणियो के अनुग्रह के लिए शेष भागको सूत्र में ग्रहण किया गया है। प्रश्न- सूत्र में दोबार अस्ति शब्दका ग्रहण निरर्थक है। उत्तर- नहीं, क्योंकि विस्तारसे सीखनेवाले शिष्यों के अनुग्रह लिए सूत्रमें दो बार अस्ति शब्दका ग्रहण किया गया है। प्रश्न- इस सूत्र ससेपसे समझने की रुचि रखनेवाले शिष्य अनुगृहीत नहीं किये गये है। उत्तर- नहीं, क्योंकि सक्षेपसे समझनेकी रुचि रखनेवाले जीवोका अनुग्रह विस्तारसे समझनेकी रुचि रखनेवाले शिष्योका अविनाभावी है। अर्थात विस्तार से कथन कर देनेपर संक्षेप रुचिवा शिष्यों का काम चल जाता है । (प्र.सा / ता वृ. १५ ) ।
१४. आगमके विच्छेद सम्बन्धी भविष्य वाणी
वि. प ४९४९३] [] सहस्स विरुदा सारस राग सु यदि कालदो जोस तीर्थ धर्म प्रम का कारण है, वह बीस हजार तीनसौ सत्तरह (२०३१७) वर्षो में काल दोष से व्युच्छेदको प्राप्त हो जायेगा ।
२. द्रव्य भाव आगम ज्ञान निर्देश व समन्वय
१. वास्तव में भावश्रुत ही ज्ञान
ज्ञान है द्रव्यभूत ज्ञान नहीं
ध १३/५,४,२६/६४/१२ ण च दव्वसुदेण एत्थ अहियारो, पोग्गल बियारस्स जस्स गाणीपतिय दस्त मुदत्तमिरोहादो (यानके प्रकरण में) द्रव्यता यहाँ अधिकार नहीं है, क्योंकि ज्ञानके उपलिंग स पुद्गल के विकार स्वरूप जड वस्तुको श्रुत मानने में विरोध आता है। २. भावका ग्रहण ही आगम है
न्या दी / ३ / ९७३ आप्तवाक्यनिबन्धन ज्ञानमित्युच्यमानेऽपि, आप्तवाक्यकर्म प्रक्षेऽतिव्याहि तात्पर्य मेव सत्यभिमना
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- असके वचनोसे होनेवाले ज्ञानको आगमका लक्षण कहने में भी आपके वाक्योंको सुनकर जो प्रत्यक्ष होता है उसमें लक्षणकी अतिव्याप्ति है, अत 'अर्थ' यह पद दिया है। 'अर्थ' पद तात्पर्य में रूढ है। अर्थात प्रयोजनार्थक है क्योकि 'अर्थ ही - तात्पर्य ही वचनो में है' ऐसा आचार्य वचन है ।
३. द्रव्य श्रुत को ज्ञान कहने का कारण
६/४,१,४५/१६२/३ कथं शब्दस्य तत्स्थापनायाश्च श्रुतव्यपदेश । नैष दोष', कारणे कार्योपचारादा = प्रश्न - शब्द और उसकी स्थापनाकी
संज्ञा कैसे हो सकती है उत्तर यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि कारण में कार्य का उपचार करनेसे शब्दया उसकी स्थापनाको श्रुत संज्ञा बन जाती है (.१३/५.२.२१/२२०१८ )
प्र. सा / ता. २४/४५
परिच्छ भण्यते स्फुटं । पूर्वोक्तद्रव्यश्रुतस्यापि व्यवहारेण ज्ञानव्यपदेशो भवति न तु निश्चयेनेति । शब्द श्रुतके आश्रय से ज्ञप्तिरूप अर्थ के निश्चयको निश्चय नयसे ज्ञान कहा है। पूर्वोक्त शब्द श्रुतकी अर्थाद
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