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अहिंसा
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अहित
दान करनेवाला भी पुरुष, एक जीवकी रक्षा करनेवाले पुरुषके समान कहाँसे हो सकता है। भा पा./टी १३४/२८३ पर उद्धृत "एका जीवदये कत्र परत्र सकला क्रिया'। परं फलं तु सर्वत्र कृषेश्चिन्तामणेरिव ॥१॥ आयुष्मान सुभग' श्रीमान सुरूप कीर्तिमान्नर' । अहिसावतमाहात्म्यादेकस्मादेव जायते ॥२॥ - एक जोवदयाके द्वाराहो चिन्तामणिकी भॉति अन्य सकल धार्मिक क्रियाओके फल की प्राप्ति हो जाती है ॥१॥ आयुष्मान् होना, सुभगपना, धनवानपना, सुन्दर रूप, कीर्ति आदि ये सब कुछ मनुष्यको एक अहिसा बतके माहात्म्य से ही प्राप्त हो जाते है ॥२॥
२. सर्व व्रतोमें अहिंसावन ही प्रधान है। भ.आ/मू ७८४-७४० णस्थि अणूदो अप्पं आयासादो अणूणय णस्थि ।
जह तह जाण महल्लं ण वयमहिसासम अस्थि ॥७८४॥ सव्वेसिमासमाणं हिदय गम्भो व सव्वसत्थाण । लम्वेसि बदगुणाण पिडो सारो अहिंसा हु ॥७६०॥ इस जगत् में असे छोटी दुसरी बस्तु नही है
और आकाशसे भी बडी कोई चीज नहीं है । इसी प्रकार अहिसा व्रतसे दूसरा कोई बड़ा बत नही है ॥७८४॥ यह अहिंसा सर्व आश्रमोंका हृदय हे, सर्व शास्त्रोका गर्भ है और सर्व वतोका निचोडा हुआ सार है ॥७॥ कुरल ३३/३ अहिसा प्रथमो धर्म सर्वेषामिति सन्मति । ऋषिभिबहुधा गीत सुनृत तदनन्तरम् ॥३॥ =अहिंसा सब धर्मों में श्रेष्ठ है । ऋषियोने प्राय उसको महिमाके गीत गाये है। सच्चाईकी श्रेणी उसके पश्चात्
आती है। स सि,७/१/२४३/४ तत्र अहिसा व्रतमादौ क्रियते प्रधानत्वात् । सत्यादोनि हि तत्परिपालनार्थादीनि सस्थस्य वृत्तिपरिक्षेपवत । - इन पाँचों बतोमे अहिसा व्रतको (सुत्रकारने) प्रारम्भमे रखा है, क्योकि वह सबमें मुख्य है। धान्यके खेतके लिए जैसे उसके चारों ओर कॉटोका घेरा होता है उसी प्रकार सत्यादिक सभ' व्रत उसकी रक्षा
के लिए है। (रा वा. ७/१/६/५३४/१) . पुसि.उ ४२ आत्मपरिणाम हिसनं हेतुत्वात्सर्व मेव हिसैतत् । अनृतवच
नादि केवल मुदाहृत शिष्यबोधाय ॥४२॥ - आत्म परिणामोका हनन करनेमे असत्यादि सब हिंसा ही है। असत्य वचन आदि ग्रहण तो केवल शिष्य जनोको उस हिसाका बोध कराने मात्रके लिए है । ज्ञा ८/७,३०,३१,४२ सत्याद्य सरनि औषयमजातनिबन्धनम्। शीलैश्च
यद्यधिष्ठानम हिसाख्य महावतम् १७॥ एतत्समयसर्वस्वमेतत्सिद्धान्तजोवितम् । यज्जन्तुजातरक्षार्थ भावशुद्धया दृढ बतम् ॥३०॥ श्रूयते सर्वशास्त्रेषु सर्वेषु समयेषु च। अहिसालक्षणो धर्म. तहिपक्षश्च पातकम् ॥३९॥ तप श्रुतमयज्ञानध्यानदानादिकमणा। सत्यशीलवतादोनाम हिसा जननी मता ॥४२॥ - अहिंसा महावत सत्यादिक अगले ४ महाबतोका तो कारण है, क्योकि वे बिना अहि साके नहीं हो सकते। और शीलादि उत्तर गुणोकी चर्याका स्थान भी अहिसा ही है । वही तो समय अर्थात् उपदेशका सर्वस्व है, और वही सिद्धान्तका रहस्य है, जो जीवोके समूहको रक्षाके लिए हो। एव वही भाव शुद्धिपूर्णक दृढबत है ॥३०॥ समस्त मतोके शास्त्रोमें यही सुना जाता है, कि अहिंसा लक्षण तो धर्म हे और इसका प्रतिपक्षी हिसा करना हो पाप है ॥३१॥ तप, श्रुत, यम, ज्ञान, ध्यान और दान करना तथा सत्य, शील व्रतादिक जितने भी उत्तम कार्य है उन सबकी माता एक अहिसा हो है ॥४२॥ (ज्ञा /२)
३. व्रतके बिना अहिंसक भी हिंसक है पु मि. उ. ४८ हिसायामविरमणं हिसापरिणमनमपि भवति हिंसा। तस्मात्प्रमत्तयोगे प्राणव्यपरोपणं नित्यम् ॥४८॥ -हिसामें विरक्त न होना हिंसा है और हिसारूप परिणमना भी हिंसा होती है। इसलिए प्रमादके योगमें निरन्तर प्राण घातका सद्भाव है।
प्र.सा/त.प्र. २१७ प्राणव्यपरोपसद्भावे तदसद्भावे वा तदविनाभाविनाप्रयताचारेण प्रसिद्भयदशुद्धोपयोगसद्भावस्य सुनिश्चितहिसाभावप्रसिद्ध । -प्राणके व्यपरोपका सद्भाव हो या असद्भाव, जो अशुद्धोपयोगके बिना नही होता ऐसे अप्रयत आचारसे प्रसिद्ध होनेवाला अशुद्धोपयोग जिसके पाया जाता है उसके हिसाके सद्भावकी प्रसिद्धि सुनिश्चित है। ४. निश्चय व्यवहार अहिसा समन्वय
१. सर्वत्र जीवोंके सद्धावमे अहिंसा कैसे पले भ.आमू १०१२-१०१३ कध चरे कध चिट्ठे धमासे कध सये। कध भुजेज्ज भासिज्ज कध पाव ण वज्झदि ॥१०१२॥ जद चरे जद चिट्ठ जदमासे जदं सये। जद भुजेज्ज भासेज्ज एव पाव ण बज्झई ॥१०१३॥ प्रश्न -इस प्रकार कहे गये क्रमकर जीवोसे भरे इस जगत् में साधु किस तरह गमन करे, कैसे तिष्ठ, कैसे बैठे, कैसे सोये, कैसे भोजन करे, केसे बाले, कैसे पापसे न बन्धे। उत्तर-यत्नाचारसे गमन करे, यत्नसे तिष्ठे, पीछीसे शाधकर यत्नसे बैठे, शोधकर रात्रिमे यत्नसे सावे, यत्नसे दोष रहित आहार करे, भाषा समितिपूर्वक यत्नसे बोले । इस प्रकार पापसे नहीं बन्ध सकता। रा.वा. ७/१३/१२/५४१/५ मे उद्धृत-जले जन्तु: स्थले जन्तुराकाशे जन्तुरेव च । जन्तुमालाकुले लोके कथ भश्चरहिसक । सोऽत्रावकाशे न लभते। भिक्षानिध्यानपरायणस्य प्रमत्तयोगाभायात। किच सूक्ष्मस्थूलजोवाम्युपगमात् । सूक्ष्मा न प्रतिपोड्यन्ते प्राणिन स्थूलमूर्तय । ये शक्यास्ते विवज्यन्ते का हिसा स यतारमन । प्रश्नजल में, स्थल में और आकाशमे सब जगह जन्तु ही जन्तु है। इस जन्तुमय जगतमे भिक्षु अहिसक कसे रह सकता है" उत्तर---इस शकाको यहाँ अवकाश नहीं है, क्योकि, ज्ञानध्यानपरायण अप्रमत्त भिक्षुको मात्र प्राणवियोगसे हिसा नहीं होती। दूसरी बात यह है कि जीव भी सूक्ष्म व स्थूल दो प्रकार के है। उनमे जो सूक्ष्म है ये तो न किसीसे रुकते है, और न किसोको रोक्ते है, अत उनकी तो हिसा होती नही है। जो स्थूल जीव है उनकी यथा शक्ति रक्षा की जाती है। जिनको हिसाका रोकना शक्य है उसे प्रयत्न पूर्वक रोकनेवाले सयतके हिसा कैसे हो सकती है। साध ४/२२-२३ कषाय विकथानिद्राप्रणयाक्ष विनिग्रहात । नित्योदयां दया कुत्पिापध्वान्तर विप्रभा ॥२२॥ विष्वगजीवचिते लाके कचरन कोऽप्यभोक्ष्यत। भाव कसाधनौ बन्धमोक्षौ चेन्नाभविष्यता ॥२३॥ - अहिसाणुवतको निर्मल करने की इच्छा रखनेवाला श्रावक कषाय, विकथा, निद्रा, माह, और इन्द्रियोके विधिपूर्वक निग्रह करनेसे पापरूपी अन्धकारको नष्ट करने के लिए सूर्य की प्रभाके समान, तथा नित्य है उदय जिसका, ऐसी दयाको करो ॥२२॥ यदि परिणाम ही है एक प्रधान कारण जिनका ऐसे बन्ध और मोक्ष न हाते, अर्थात् यदि बन्ध और मोक्षके प्रधान कारण परिणाम या भाव न होते तो चारो तरफसे जीवोके द्वारा भरे हुए ससारमें कहीपर भी चेष्टा करनेवाला कोई भी मुमुक्षु पुरुष मोक्षका प्राप्त न कर सकता।
२. निश्चय अहिंसाको अहिंसा कहनेका कारण प.प्र/टी २/१२५ रागाद्यभावो निश्चयेनाहिसा भण्यते। कस्मात् । निश्चयशुद्धचैतन्यप्राणस्य रक्षाकारणात् । -रागादिके अभावको निश्चयसे अहिंसा कहते है, क्योकि, यह निश्चय शुद्ध चेतन्यप्राणकी रक्षाका कारण है। * अन्तरग व बाह्य हिसाका समन्वय -दे, हिसा अहित-अहित सम्भाषणकी इष्टता अनिष्टता। -दे, सत्य/२
दि-मध्य लोकमें द्विचरम सागर व द्वीप। -दे, लोक ५११
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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