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अहिंसा
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३. प्रतकी कथंचित प्रधानता
कालमें मन वचन कायसे एके द्रियसे लेकर पंचेन्द्रिय प्राणियोके प्राण पाँच प्रकारके पापोसे डरनेवालेको नही घातने चाहिए, अति जोवोको रक्षा करना अहिसावत है ॥२८॥ (नि.सा /मू. ५६)
३. अहिसाणुव्रतके पॉच अतिवार ता.सू.७/२५ बन्धबधच्छेदातिभारारोपणान्नपाननिरोधा' । बन्ध, वध,
छेद, अतिभारारोपण, अन्नपानका निरोध, ये अहिसाणुवतके पाँच
अतिचार है। साध ४/१६मत्रादिनापि बंधादिः कृतो रज्ज्यादिवन्मल । तत्तथा यत्नीय स्यान्न यथा मलिन बत ११३५ मन्त्रादिके द्वारा भी किया गया बन्धनादिक रस्सी वगैरहसे किये गये बन्धकी तरह अतिचार होता है। इसलिए उस प्रकारसे यत्न पूर्वक प्रवृत्ति करनी चाहिए, जिस प्रकारसे कि व्रत मलिन न होवे।
४. अहिंसा महाव्रतकी भावनाएं त. सू ७/४ वाड्मनोगुप्तोर्यादाननिक्षेपणसमित्याला कितपानभोजनानि
पञ्च ॥४॥=वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदाननिक्षेपणसमिति और आलोकित पान भोजन (अर्थात् देख शोधकर भोजन पान ग्रहण करना) ये अहिसावतकी पाँच भावनाएँ है। (मू आ. ३३७), (चा.पा/मू. ३१)
५. अहिंसा अणुव्रतकी भावनाएं स.सि. ७/६ ३४७/३ हिसाया तावत, हिंस्रो हि नित्याद्वेजनीय सततानुबद्भवैरश्च इह च वधबन्धपरिक्लेशादीन् प्रतिलभते प्रेत्य चाशुभा गति गहितश्च भवतीति हिसाया व्युपरम श्रेयात् । एवं हिसादिष्वपायावद्यदर्शनं भावनोयम् । = हिसामें यथा-हिसक निरन्तर उद्वेजनीय है' वह सदा वैरको बाँधे रहता है, इस लाकमें वध, बन्ध और क्लेश आदिको प्राप्त होता है, तथा परलोकमें अशुभ गतिको प्राप्त होता है, और गर्हित भी होता है, इसलिए हिंसाका त्याग श्रेयस्कर है। • इस प्रकार हिसादि दोषोमे अपाय और अवद्यके दर्शनकी भावना करनी चाहिए। * व्रतोंकी भावना व अतिचार-दे व्रत २। * साधजन पशु पक्षियोका मार्ग छोडकर गमन करते है
-दे. समिति १/३ २. निश्चय अहिंसाकी कथंचित् प्रधानता
१. प्रमाद व रागादिका अभाव ही अहिंसा है भ,आ /म.८०३,८०६ अत्ता चेत्र अहिंसा अत्ता हिंसत्ति णिचाओ समये।
जो होदि अप्पमत्तो अहिसगो हिसगो इदरो।८०६॥ जदि सुद्धस्स य बधो होहिदि बाहिर गवत्थुजोगेण । णस्थि दु अहिसगो णाम होदि वायवादिबधहेदु ॥८०६॥-आत्मा ही हिंसा है और वह ही अहिसा है, ऐसा जिनागममें निश्चय किया है। अप्रमत्तको अहिंसक और प्रमत्तको हिंसक कहते है ॥८०३॥ यदि रागद्वेष रहित आत्माको भी बाह्य वस्तुमात्रके सम्बन्धसे बन्च होगा, तो 'जगत में कोई भी अहिसक नहीं है', ऐसा मानना पड़ेगा, क्योंकि, मुनि जन भा वायुकायिकादि जीवोके वधके हेतु है ।८०६॥ स सि.७/२२/३६३/१० पर उद्धृत-रागादोणमणुप्पा अहिसगत्तं त्ति देसिदं समये । तेसिं चे उप्पत्तो हिंसेत्ति जिणेहि णिहिट्ठा । शास्त्रमें यह उपदेश है कि रागादिकका नही उत्पन्न होना अहिसा है। तथा जिनदेवने उनकी उत्पत्तिको हिंसा कहा है। (क.पा /पू. १/१/ ४२/१०२) (घु सि.उ ४४) (अन.घ. ४/२६) घ./पु १४/५.६१३/९/१० स्वय ह्यहिसा स्वयमेव हिंसनं न तत्पराधीनमिह द्वयं भवेत् । प्रमादहीनोऽत्र भवत्यहिसक प्रमादयुक्तस्तु सदैव हिंसक ५॥ = अहिंसा स्वयं होती है और हिसा भी स्वय हो होती
है । यहाँ ये दोनो पराधीन नही है। जो प्रमाद रहित है वह अहिसक है और जो प्रमाद युक्त है वह सदा हिसक है। प्र. सात प्र २१७-२१८ अशुद्धोपयोगसद्भावस्य सुनिश्चितहिसाभावप्रसिद्ध स्तथा तद्विनाभाबिना प्रयताचरेण प्रसिद्भयदशुद्धोपयोगासद्भावपरस्य परप्राणव्यपरोपसद्भावेऽपि बन्धाप्रसिद्धया सुनिश्चितहिसाऽभावप्रसिद्धश्चान्तरङ्ग एव छेदो बलीयान् न पुनर्बहिरङ्ग' ॥२१७॥ यदशुद्धोपयोगासदभाव निरुपले पत्वप्रसिद्ध रहिसक एव स्यात् ॥२१८॥ - अशुद्धोपयोगका सद्भाव जिसके पाया जाता है उसके हिसाके सद्भावकी प्रसिद्धि सुनिश्चित है, और इस प्रकार जो अशुद्धोपयोगके बिना होता है ऐसे प्रयत आचार से प्रसिद्ध होनेवाला अशुद्धोपयोगका असद्भाव जिसके पाया जाता है उसके परप्राणोके व्यपरोपके सद्भाव में भी बन्धकी अप्रसिद्धि होनेसे हिसाके अभावकी प्रसिद्धि सुनिश्चित है अत अन्तरंग छेद हो विशेष बलवान है बहिरग नही ॥२१७॥ अशुद्धोपयोगका असद्भाव अहिसक ही है, क्योकि उसे निर्ले
परवकी प्रसिद्धि है ।२१८॥ (नि सा /ता वृ.५६) (अन ध ४/२३) पु सि उ ५१ अविधायापि हि हिसा हिसाफलभाजन भवत्येक' । कृत्वाप्यपरो हिसा हिसाफलभाजन न स्यात् । - निश्चय कर कोई जीव हिसाको न करके भी हिसा फलके भोगनेका पात्र होता है और दूसरा हिसा करके भी हिसाके फलको भोगनेका पात्र नही होता है, अर्थात फलप्राप्ति परिणामोके आधीन है, बाह्य हिसाके आधीन नहीं।
२. निश्चय अहिंसाके बिना अहिंसा सम्भव नहीं नि सा./ता वृ ५६ तेषा मृतिर्भवतु वा न वा, प्रयत्नपरिणाममन्तरेण ___ सावद्यपरिहारो न भवति। - उन (बाह्य प्राणियो) का मरण हो या
न हो, प्रयत्नरूप परिणामके बिना सावद्यपरिहार नहीं होता। पप्र./टी २/६८ अहिसालक्षणो धर्मः, सोऽपि जीवशुद्धभाव बिना न स भवति । = धर्म अहिसा लक्षणवाला है, और वह अहिसा जीव के शुद्ध भावोके बिना सम्भव नहीं। ३. परकी रक्षा आदि करनेका अहंकार अज्ञान है स सा /मू २५३ जो अप्पणा दु मण्ण दि दुखि दसु हिदे करेमि सत्तेति । सो मूढो अण्णाणी गाणी एतो दु विवरीदो। - जो यह मानता है कि अपने द्वारा मै (पर) जीवोको दुखी सुखी करता हूँ, वह मूढ (मोही) है, अज्ञानी है और जो इससे विपरीत है वह ज्ञानी है। (यो सा./अ. ४/१२)
४. अहिंसा सिद्धान्त स्वरक्षार्थ है न कि पररक्षार्थ १ ध./उ ७५६ आत्मेतराङ्गिणामगरक्षण यन्मत स्मृतौ । तत्पर स्वात्मरक्षाया' कृतेनात परत्र तत् ॥१५६॥ - इसलिए जो आगममें स्व और अन्य प्राणियोकी अहिसाका सिद्धान्त माना गया है, वह केवल स्वात्म रक्षाके लिए ही है, परके लिए नही।
सा व्रतकी कचित् प्रधानता १. अहिंसा व्रतका माहात्म्य भ.आ./मू ८२२ पाणो वि पाडिहेर पत्तो छूडो वि ससुमारहदे । एगेण एकदिवसकदेण हिसावदगुणेण । - स्वल्प काल तक पाला जानेपर भी यह अहिसा वत प्राणीपर महान् उपकार करता है। जैसे कि शिशुमार ह्रदमें फेके चाण्डालने अल्पकाल तक ही अहिंसावत पालन किया था। वह इस व्रतके माहात्म्यसे देवोके द्वारा पूजा गया। ज्ञा, ८/३२ अहिसैव जगन्माताऽहिसैवानन्दपद्धति' । अहिसैव गति' साध्वी श्रीरहिसैव शाश्वती ॥३२॥ = अहिसा ही तो जगतकी माता है क्योकि समस्त जोवोका परिपालन करनेवाली है; अहिसा ही आनन्दकी सन्तति है, अहिसा ही उत्तम गति और शाश्वती लक्ष्मी है। जगत में जितने उत्तमोत्तम गुण है वे सब इस अहिसा ही में है। अ.ग.श्रा ११/५ चामीकरमयीमुझे ददानः पर्वत · सह । एकजीवाभयं नून ददानस्य समः कुत' ॥५॥ - पर्वतोसहित स्वर्ण मयी पृथिवीका
वायएसा जिनागम, १०॥ यदि राम जगत में कोई
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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