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आकाश
व्याघात तो देखा जाता है इससे मालूम होता है कि अवकाश देना अवकाश का स्वभाव नहीं ठहरता है ? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है क्योंकि वज्र और लोढा आदिक स्थूल पदार्थ है इसलिए इनका आपस में व्याघात है, अत आकाशकी अवगाह देने रूप सामर्थ्य नहीं नष्ट होती। यहाँ जो व्याघात दिखाई देता है वह अवगाहन करनेबाले पदार्थों का ही है। तात्पर्य यह है कि बाकि स्थूल पार्थ है. इसलिए वे परस्पर में अवकाश नहीं देते है यह कुछ आकाशका दोष नहीं है। हॉ जो पुद्गल सूक्ष्म होते है वे परस्पर अवकाश देते है । प्रश्न- यदि ऐसा है तो यह आकाशका असाधारण लक्षण नही रहता, क्योकि दूसरे पदार्थोंमें भी इसका सद्भाव पाया जाता है ' उत्तरनहीं, क्योकि आकाश द्रव्य सत्र पदार्थोंको अवकाश देनेमें साधारण कारण है यही इसका असाधारण लक्षण है, इसलिए कोई दोष नहीं है। प्रश्न- अलोकाकाशमें अवकाश देने रूप स्वभाव नहीं पाया जाता, इससे ज्ञात होता है कि यह आकाशका स्वभाव नही है 1 उनर-नहीं, क्योकि कोई भी द्रव्य अपने स्वभावका त्याग नहीं करता । रा. वा ५ / १ २३/४३४/६ अलोकाकाशस्यावकाशदानाभावात्तदभाव इति चेद, न तत्सामर्थ्याविरहाद २२ कियानिमिचवेऽपिडि विशेषबल लाभात् गोशब्दवत् तदभावेऽपि प्रवर्तते प्रश्न - अलोकाकामें द्रव्यों का अवगाहन न होनेसे यह उसका स्वभाव घटित नहीं होता ? उत्तर - शक्तिकी दृष्टिसे उसमें भी आकाशका व्यवहार होता हैपाका निमित्तपना होनेपर भी रूदि विशेष बल से भी असोकाकाशको आकाश संज्ञा प्राप्त हो जाती है, जिस प्रकार बैठी हुई गऊ चलन क्रियाका अभाव होनेपर भी चलन शक्ति के कारण गौ शको प्रवृत्ति देखी जाती है।
गोजो जो ६०५/२०६०/२ ननु कियाोगाजीवामकाशदानं युक्त धर्मादीनां तु निष्क्रियाणां नित्य
कथ इति तन्न उपचारेण तत्सिद्धे । यथा गमनाभावेऽपि सर्वगतामाकाशमित्युच्यते सर्वत्र सात तथा धर्मादीनां अस्थाहनक्रियाया अभावेऽनि सर्वत्र दर्शनात अत्रगाह इत्युपचर्यते । प्रश्न जो अवगाह क्रियावान तो जीव पुद्गल है तिनको अवकाश देना युक्त कहा। महूर धर्मादिक द्रव तो निष्क्रिय हैं, नित्य सम्बन्धको घरै है नवीन नाहीं आये जितको अवकाश देनासम्भवे असे इहाँ कैसे कहिये सो कही 1 उत्तर-जी उपचार करि कहिये है जैसे गमनका अभाव होते सत भी सर्वत्र सद्धभावकी अपेक्षा आकाशको सर्वत कहिये ते धर्मादि व्यनिके अवगाह कियाका अभाव होते संभी लोकि सद्भावकी अपेक्षा अवगाहनका उपचार कीजिये है । (स. सि. ५/१८/ २८४/३) रा. वा /५/१८/२/४६६/१८) ।
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५. असं. प्रदेशी लोकमें अनन्त द्रव्योंके अवगाहकी सिद्धि स.सि ५/१०/२०५ स्यावेतवरूपातप्रदेशी लोका अनन्तप्रदेशस्यान्तानन्तप्रदेशस्य च स्कन्धस्याधिकरणमिति विरोधः......नैष दोष ; सूक्ष्मपरिणामाबगाहशक्तियोगात् । परमाण्वादयो हि सूक्ष्मभावेन परिगता एके कस्मिन्नप्याकाशप्रदेशेऽनन्तानन्ता अवतिष्ठन्ते अवगाहनशतश्चैवाव्याहतास्ति । तस्मादेकस्मिन्नपि प्रदेशे अनन्तानन्तानामवस्थान न विरुध्यते । ( नायमेकान्त - अल्पेऽधिकरणे महद्रव्यं नावतिष्ठते इप्रिय विशेषाविशेष समर्पितचम्पकादिगन्धादिवत् ६ / रा, वा ) प्रश्न- लोक असंख्यात प्रदेशवाला है इसलिए वह अनन्तानन्त प्रदेशवाले स्कन्धका आधार है इस बात के माननेमें विरोध आता है। उत्तर- यह कोई दोष नहीं है, ' क्योंकि सूक्ष्म परिणमन होनेसे और अवगाहन शक्तिके निमित्तसे अनन्त या अनन्तानन्त प्रदेशवाले पुद्गल स्कन्धोका आकाश आधार हो जाता है। सूक्ष्म रूपसे परिणत हुए परमाणु आकाशके एक-एक प्रदेश में अनन्तानन्त ठहर जाते है। इनकी यह अवगाहन शक्ति व्याघात रहित है। इसलिए आकाश एक प्रदेशमें भी अनन्तानन्तगतका अवस्थान विरोधको प्राप्त नहीं होता। फिर यह कोई एकान्तिक नियम
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३ अवगाहना सम्बन्धी विषय
नहीं है कि छोटे आधारमें बड़ा द्रव्य ठहर ही नहीं सकता हो । पुद्गलों में विशेष प्रकार सघन सघात होनेसे अल्प क्षेत्र में बहुतोका अवस्थान हो जाता है जैसे कि छोटी-सी चम्पाकी कली में सूक्ष्म रूपसे बहुत से गन्धावयव रहते है, पर वे ही जब फैलते है तो समम्त दिशाओं को व्याप्त कर लेते है। (रा. वा ३/१०/३-६/४३३/१४ )
स. सि /५/१४/२७६ अवगाहनस्वभावत्वात्सूक्ष्म परिणामाच्च मूर्तिमतामध्यगाहो न विरुध्यते एकावर अनेकदीपप्रकाशावस्थान आगमप्रामाण्याच्च तथाऽध्यवसेयम् । - ( पुद्गलोका) अवगाहन स्वभाव है और सूक्ष्म रूपसे परिणमन हो जाता है इसलिए एक मकान में जिस प्रकार अनेक दीपकोंका प्रकाश रह जाता है उसी प्रकार - मूर्तमान पुद्गलोंका - एक जगह अवगाह विरोधको प्राप्त नहीं होता तथा आगम प्रमाणसे यह बात जानी जाती है । ( रा वा ५/१३ । ४-६/४२७ ) रा. मा. /५/१५/५/४५८/० प्रमाण विरोधादवगाहासुरिति चेत .. सन्नः कि कारणम् जीवद्वै विध्यात् । द्विविधा जोमा; बावरा सूक्ष्मश्चेति तत्र भादरा सप्रतिघातशरीरा सूक्ष्मा जीवाः सूक्ष्मपरिणामादेव सशरीरत्वेऽपि परस्परेण बादरेश्य न प्रतिहन्यन्त त्यतिपातशरी 1 तठो सूक्ष्म नियोजीवस्तिष्ठति तत्र नन्तानन्ता' साधारणशरीरा वसन्ति । बादराणां च मनुष्यादीना शरीरेषु सस्वेदजस मूर्च्छ मजादीना जोवानां प्रतिशरीरं बहूनामवस्थानमिति नास्तयवगाहविरोध। यदि बादरा एव जोबा अभविष्यअतिहि गावशेषोऽनिष्यत कब सारीरस्यात्मनोऽतिपातत्व मिति चेत् दृष्टत्वात् दृश्यते हि बालाग्रकोटिमात्र छिद्ररहिते धनबहलायस भित्तितले वज्रमयकपाटे बहि समन्तात् वज्रले पलिप्ते अपवरके देवदत्तस्य मृतस्य मूर्तिमज्ज्ञानावरणादिकर्म ते जसकामणशरीरसन्धियेऽपि गृहमभिश्चैव निर्गमन तथा सूक्ष्म निगोतानामप्यप्रति घातित्व वेदितव्यम् । प्रश्न- द्रव्य प्रमाणसे जीवराशि अनन्तानन्त है तो वह असख्यात प्रदेश प्रमाण लोकाकाश में कैसे रह सकती है । उत्तर - जीव बादर और सूक्ष्मके भेदसे दो प्रकार के है। बादर जीव सप्रतिघात शरीरी होते है पर सूक्ष्म जीवोंका सूक्ष्म परिणमन होनेके कारण सशरीरी होनेपर भी न तो बाइसे प्रतिपात होता है और न परस्पर ही । वे अप्रतिघातशरीरी होते है इसलिए जहाँ एक सूक्ष्म निगोद जीव रहता है वहीं अनन्तान्त साधारण सूक्ष्म शरीरी रहते है। बादर मनुष्यादिके शरीरोमें भी संस्वेदज आदि अनेक सम्मूर्च्छन जीव रहते हैं। यदि सभी जीव बादर ही होते तो अवगाह में गडबड पड सकती थी। सशरीरी आत्मा भी अप्रतिघाति है यह बात तो अनुभव सिद्ध है। निश्छिद्र लोहेके मकानसे, जिसमें वज्र के किवाड लगे हों, और वज्रलेप भी जिसमें किया गया हो, मर कर जीव कार्माण शरीर के साथ निकल जाता है। यह काम शरीर मूर्तिमान ज्ञानावरणादि कमकापिण्ड है। तेजस शरीर भी इसके साथ सदा रहता है। मरण काल में इन दोनों शरीरोंके साथ जीव वज्रमय कमरेसे निकल जाता है और उस कमरे में कहीं भी छेद या दरार नहीं पडती । इसी तरह सूक्ष्म निगोदिया जीवोंका शरीरभी अप्रतिघाती ही समझना चाहिए । ध, ४/१ ३,२/२२ / ४ कधमणता जीवा असं खेज्जपदेसिए लोए अच्छेति । ...लोग मजदि होति तो लोग असंखेाविभागमे रोहि चेत्र जीवेहि होदव्यमिदि णेदं घडदे, पोग्गलाणं पि असं खेज्जत्तप्पस गादी...लोगमेता परमाणू भवति, लोगमेरापरमा हि कम्मसरीरघड-प-भादि एगो नि असारमा समुदयसमागमेण विणा एकिस्से असण्णासणियाए वि सभवाभावा । होदु चे म समलपग्लदव्यस्स अलपसगादो सम्मानममे केव समापत्तिपसं गावच एगो माहोदिति अवगेज्मान जीवाजीवण हाणुववत्ती दो अत्रगाहणधम्मिओ लोगागासोत्ति इच्छि खीरकुम्भस्स मधुगंधी व प्रश्न असंख्यात प्रदेशवाले लोकमें अनन्त संख्यावाले जीव कैसे रह सकते है 1. यदि लोकके मध्यमें जीन रहते हैं (असोक में नहीं तो वे लोक असंस्थायें भागमात्रमें
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