________________
आकाश
२२२
३. अवगाहना सम्बन्धी विषय
आकाश तो प्रधानका विकार है। उत्तर-नहीं क्योंकि निश्य तथा निष्क्रिय व अनन्त रूप प्रधानके आत्माकी भान्ति विकार ही नहीं हो सकता। (विशेष दे त सा.१/परि..पृ १६६/शोलापुर वाले प० बंशीधर)। पंध/उ २३ सोऽप्यनोको न शून्योऽस्ति षभिर्द्रव्यैरशेषतः । व्योम
मात्रावशेषत्वाद् व्योमात्मा केवलं भवेत् ॥२३॥ -वह अलोक भी सम्पूर्ण छहो द्रव्योसे शून्य नहीं है किन्तु आकाश मात्र शेष रहनेसे वह अन्य पाँच द्रव्यो से रहित केवल आकाशमय है। ३. अवगाहना सम्बन्धी विषय १. सर्वावगाहना गुण आकाशमें ही है अन्य द्रव्यमें नहीं
तथा हेतु प्र. सा./त. प्र /१३३ विशेषगुणो हि युगपत्सर्वद्रव्याणां साधारणावगाहहेतुस्वमाकाशस्य एवममूर्तानां विशेषगुणसक्षेपाधिगमे लिङ्गम् । तत्रैककालमेव सकलद्रव्यसाधारणावगाहसंपादनमसर्व गत्वादेव शेषदव्याणामसम्भवदाकाशमधिगमयति । -युगपत् सर्वद्रव्योके साधारण अबगाहका हेतुत्व आकाशका विशेषगुण है। इस प्रकार अमूर्त द्रव्यों के विशेष गुणों का ज्ञान होनेपर अमूर्त द्रव्योंको जाननेके लिए लिंग प्राप्त होते है। (अर्थात विशेष गुणो के द्वारा अमूर्त द्रव्यों का ज्ञान होता है) • वहाँ एक ही काल में समस्त द्रव्योके साधारण अवगाहका संणदन (अवगाह हेतुत्व रूप निंग प्राकाशको बतलाता है, क्योकि शेष द्रव्योके सर्वगत न होनेसे उनक यह सम्भव नहीं है।
२. लोकाकाशमें अवगाहना गुणका माहात्म्य घ ४/१.३.२०/२४/२ तम्हा ओगहणलक्रवणेण सिद्धलोगागासस्स अोगाहणमाहप्पमाइरियपर परागदोबदेसेण भणिस्सामो। तं जहा-उस्सेहधणंगुलस्स असखेज्जदिभागमेत खेत्ते मुहमणिगोदजीवस्स जहष्णोगाहणा भवदि । तम्हि द्विदघणलोगमेत्तजोवपदेसेसु पडिपदेसमभवसिद्विएहि अणतगुणा सिद्धाणभणं तभागमेत्ता होदूण विदओरालियसरीरपरमाणूणं तं चैव खेत्तभोगास जादि । पुणो ओरालियसरीरपरमाणू हितो अगंतगुणाणं तेजइयसरीरपरमाणूण पि तम्हि चेत्र खेत्ते ओगाहणा भवदि। तेजइयपरमाणूहितो अण तगुणा कम्मइयपरमाणू तेणेव जीवेण मिच्छत्तादिकारणे हिं संचिदापडिपदेसमभवसिद्धिएहि अण तगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता तत्थ भवंति, तेसि पि तम्हि चेव खेत्ते ओगाहणा भवदि । पुणो ओरालिय-तेजा-कम्मइय-विस्ससोवचयाणं पदिक्कं सबजीवेहि अणंतगुणाणं पडिपरमाणुम्हि तत्तियभेत्ताणं तम्हि चेव खेत्ते ओगाहणा भवदि। एवमेगजीवेणच्छिदअंगुलस्स असंखेज्जदिमागमेत्ते जहण्णखेतम्हि समाजोगाणा होण विदिओ जीवो तत्थेब अच्छदि । एवमणताणताणं समाणोगाहणाणं जीवाणं तम्हि चेव खेत्ते ओगाहणा भवदि । तदो अवरो जीवो तम्हि चैत्र मज्झिमपदेसमतिमं काऊण उबवणो। एदस्स वि ओगाहणाए अर्णताणंत जीवा समाणोगाहणा अच्छति त्ति पुठवं व परवेदब्वं । एवमेगेपदेसा सव्व दिसासु वड्ढावेदव्या जाव लोगो आबुण्णो त्ति । mअब हम अवगाहण लक्षणसे प्रसिद्ध लोकाकाशके अवगाहन माहात्म्यको आचार्य परम्परागत उपदेशके अनुसार कहते हैं। वह इस प्रकार है-उत्सेधांगुलके अअंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्रमें सूक्ष्म निगोदिया जीव की जघन्य अवगाहना है। उस क्षेत्रमें स्थित घनलोक मात्र जीवके प्रदेशमें-से प्रत्येक प्रदेशपर अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भाग मात्र होकरके स्थित औदारिक शरीरके परमाणुओंका वही क्षेत्र अवकाशपनेको प्राप्त होता है। पुन. औदारिक शरीरके परमाणुओंसे अनन्तगुणे तेजस्कशरीरके परमाणुओंकी भी उसी क्षेत्रमें अवगाहना होती है । तैजस परमाणुओंसे अनन्तगुणे उस ही जीवके द्वारा मिथ्यात्व अविरति आदि कारणोंसे संचित और प्रत्येक प्रदेशपर अभव्य सिद्रोंसे अनन्तगुणे तथा सिद्धोंके
अनन्तवें भाग मात्र कर्म परमाणु उस क्षेत्रमें रहते हैं। इसलिए उन कर्म परमाणुओंकी भी उस ही क्षेत्रमें अवगाहना होती है। पुन' औदारिक शरीर तैजस शरीर और कार्माण शरीरके विखसोपचौंका जो कि प्रत्येक सर्व जीवोंसे अनन्तगुणे हैं और प्रत्येक परमाणुपर उतने ही प्रमाण है। उनकी भी उसी ही क्षेत्र में अवगाहना होती है। इस प्रकार एक जीवसे व्याप्त अंगुलके असंख्यातवे भागमात्र उसी जघन्य क्षेत्रमे समान अवगाहना वाला होकरके दूसरा जीव भी रहता है। इसी प्रकार समान अवगाहना वाले अनन्तानन्त जीवों की उसी ही क्षेत्रमें अवगाहना होती है। तत्पश्चात दूसरा कोई जीव उसी क्षेत्रमे उसके मध्यवर्ती प्रदेशको अपनी अवगाहनाका अन्तिम प्रदेश करके उत्पन्न हुआ। इस जीवकी भी अवगाहनामे समान अवगाहनावाले अनन्तानन्त जीव रहते है। इस प्रकार यहाँ भी पूर्व के समान प्ररूपणा करनी चाहिए। इस प्रकार लोक्के परिपूर्ण होने तक सभी दिशाओं में लोकका एक एक प्रदेश बढाते जाना चाहिए।
३. लोक असं.प्रदेशोंपर एकानेक जीवोंकीअवस्थान विधि त सू.५/१५ (लोका काशस्य) असंख्येयभागादिषु जीवानाम् (अवगाहा)। जीवोका अवगाह लोकाकाशके असख्यातवे भागको आदि लेकर सर्वलोक पर्यन्त होता है। रा वा. ५/१५/३-४/४५७/३१ लोकस्य प्रदेशा' असख्येया भागाः कृता', तत्रै कस्मिन्नसंख्ययभागे एको जीवोऽवतिष्ठते। तथाद्वित्रिचतुरादिष्वपि असंख्येयभागेषु आ सर्वलोकादवगाह' प्रत्येतव्यः । नानाजीवानाम् तु सर्व लोक एव। असख्येयस्याऽसंख्येयविकतपत्वात् । अजघन्योस्कृष्टासख्येयस्या हि असंख्येय विकल्पा अतोऽवगाह विकल्पो जीवानां सिद्ध'। रा बा.५५८०४/१४६/३३ जीवः तावत्प्रदेशोऽपि संहरण विसर्पणस्वभावस्वात कर्म निर्वतितं शरीरमणु महद्वा अधितिष्ठस्तावदवगाह्य वर्तते। यदा तु लोक्पूरणं भवति तदा मन्दरस्याधश्चित्रवज्रपटलयोर्मध्ये जीवस्याष्टौ मध्यप्रदेशा. व्यवतिष्ठन्ते, इतरे प्रदेशाः ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च कृत्स्नं लोकाकाशं व्यश्नुवते । -लोकके असंख्यात प्रदेश हैं, उनके असंख्यात भाग किये जायें। एक असंख्येय भागमे भी जीव रहता है तथा दो तीन चार आदि असंख्येय भागोंमें और सम्पूर्ण लोकमे जीवोंका अवगाह समझना चाहिए । नाना जीवोंकी अवगाह तो सर्व लोक है। असंख्यातके भी असंख्यात विकल्प है। और अजघन्योत्कृष्ट असंख्येयके असंख्येय विकल्प हैं अतः जीवोंके अवगाहमें भेद भी हो जाता है। तथा जोवके असंख्यातप्रदेशी होनेपर भी संकोचविस्तार शोल होनेसे कर्मके अनुसार प्राप्त छोटे या बड़े शरीरमें तत्प्रमाण होकर रहता है जब इसकी समुदघात कालमे लोकपूरण अवस्था होती है तब इसके मध्यवर्ती आठ प्रदेश मुमेरु पर्वतके नीचे चित्र और वज्रपटलके मध्य के आठ प्रदेशोंपर स्थित हो जाते है, बाकी प्रदेश ऊपर नीचे चारों ओर फैल जाते है।
४. अवगाहना गुणों को सिद्धि स.सि ५/१८/२८४ यद्यवकाशदानमस्य स्वभावो बज्रादिभिर्लोष्टदीना भित्त्यादिभिर्गवादीनां च व्याघातो न प्राप्नोति । दृश्यते च व्याघातः। तस्मादस्यावकाशदान हीयते इति। नैष दोषः, बजलोष्टादीना स्थूलानापरस्पर व्याघात इति नास्यावकाशदानसामध्ये हीयते तत्राबगाहिनामेवव्याघातात् । वज्रादयः पुन: स्थूलत्वात्परस्परं प्रत्यवकाशदानं न कुर्वन्तीति नासावाकाशदोषः ये खलु पुदगला सूक्ष्मास्ते परस्पर प्रत्यवकाशदानं कुर्वन्ति। यद्य नेदमाकाशस्यासाधारणं लक्षणम्, इतरेषामपि तत्सदभावादिति । तन्न; सर्व पदार्थाना साधारणावगाहनहेतुत्वमस्यासाधारण लक्षणमिति नास्ति दोषः। अलोकाकाशे सदभावादभाव इति चेदा न; स्वाभावापरित्यागाव प्रश्नयदि अवकाश देना अवकाशका स्वभाव है तो बघ्रादिकसे लोढा आदिका और भीत आदिसे गायका व्याघात नहीं प्राप्त होता, किन्तु
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org