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आकाश
अविचन्य धर्म
ही होने चाहिए। उत्तर-सकाकारका उक्त कथन धटित नही होता, क्योकि उक्त कथनके मान लेनेपर पुद्गलोके भी अस ख्यातपनेका प्रसग आता है। अर्थात लोकाकाशके प्रदेश प्रमाण हो परमाणु होंगे तथा उनलोकपमाण परमाणुओकेद्वारा कर्म,शरीर,घट पट औरस्तंभ आदिकोमें-से एकभी वस्तु निष्पन्न नहीं हो सकती है, क्योकि, अनन्तानन्त परमाणुओके समुदायका ममागम हुए बिना एक अबसन्नासन्न सज्ञक भी स्कन्ध होना सम्भव नहीं है-प्रश्न-एकभी वस्तु निष्पन्न नहीं होवे, तो भी क्या हानि है। उत्तर- नहीं क्योंकि, ऐसा माननेपर समस्त पुद्गल, द्रव्यको अनुपलब्धिका प्रसंग आता है, तथा सर्व जीवों के एक साथ ही केवल ज्ञानकी उत्पत्तिका भी प्रसग प्राप्त होता है। (क्योकि इतने मात्र परमाणुओसे यदि किसी प्रकार सम्भव भी हो तो भी एक हो जो वका कार्माण शरीर बन पायेगा अन्य सर्व जीव कर्मरहित हो जायेगे). इस प्रकार अतिप्रसग दोष न आवे, इसलिए अबगाह्यमान जीव और अजीव द्रव्योंकी सत्ता अन्यथा न बननेसे क्षीर कुमका मधुकुम्भके समान अवगाहन धर्मवाला लोकाकाश है, ऐसा मान लेना चाहिए। ध.३/१,२,४५/२५८/१७६२२८१६२५१४२६४३३७५६३५४३६५०३३६ एत्तियमेत्तमणुसपज्जत्तरासिम्हि सखेजण्दर'गुलेहि गुणिदे माणुस् खेत्तादो संखेजगुणत्तप्पसंगा। संखेज्जुसेहगुलमेत्तोगाहणो मणुसपजत्तरासी सम्मादि त्ति णामकणिज्ज, सब्बुकस्सोगाहणमणुसपज्जत्तरासिम्हि संखेजपमाणपदर गुलमेत गाहणगुणगारमुह वित्थारुवल भादो । प्रश्न-७६२२८१६२५१४२६४३३७५६३५४३६५०३३६इतनी मनुष्य पर्याप्तराशिको सख्यात प्रतगंगुन्नौ (मनुष्य का निवास क्षेत्र) से गुणा किया जाये तो उस प्रमाणको मनुष्य क्षेत्रसे (४५ लाख रोजन व्यास -- १६००६०३०६५४६० १११, वर्ग योजन - १४४२५११४६६८१६४३४००००००००० प्रतर्रागुल । इसमें से दो समुद्रोका क्षेत्रफल घटानेपर शेष-६१६७०८४६६८१६४१६२०००००००० प्रतरांगुल । अन्तर्वीप तो है पर उनमें मनुष्य अत्यल्प होनेसे विवक्षामें नहीं लिये ) संरण्यात गुणाका प्रसग आ जावेगा। उसमें सख्यात उत्सेधागुलमात्र अवगाहनास युक्त मनुष्य पर्याप्त राशि समा जायेगी ( अधिक नहीं) । उत्तर सो ठीक नही, क्योकि सबसे उत्कृष्ट अवगाहनासे युक्त मनुष्य पर्याप्त राशिमें सख्यात प्रमाण प्रतरागुन मात्र अवगाहनके गुणकारका मुख विस्तार
पाया जाता है (न कि सब मनुष्योका)। पं. का /ता वृ१०/१५० अनन्तानन्तजीवास्तेभ्योऽप्यनन्तगुणा पुद्गला
लोकाकाशप्रमितप्रदेशप्रमाणा कालाणवो धर्माधर्मों चेति सर्वे कथमत्र काशं लभन्त इति । भगवानाह । एकापवरके अनेकप्रदीपप्रकाश बदेकगूढनागरसगद्याणके बहुवर्णदेकस्मिनुष्ट्र क्षीरघटे मधुघटवदेकस्मिस् भूमिगृहे जपघण्टादिवद्विशिष्टावगाहगुणेनासंख्येयप्रदेशेऽपि लोके अनन्तसख्या अपि जोबाइयोऽवकाश लभन्त इत्यभिप्राय । = प्रश्न-जीव अनन्तानन्त है, उससे भी अनन्त गुणे पुद्गल द्रव्य है, लोकाकाश प्रदेश प्रमाण काल द्रव्य है, तथा एक धर्म द्रव्य व एक अधर्म द्रव्य है । असरूपात प्रदेशी लोकमें ये सब कैसे अवकाश पाते है। उत्तर-एक घरमे जिस प्रकार अनेक दीपकोका प्रकाश समा रहा है, जिस प्रकार एक छोटेसे गुटके में बहुत-सी सुवर्ण की राशि रहती है उष्ट्रीके एक घट दूधमें एक शहदका घडा समा जाता है, तथा एक भूमि गृहमें जय-जय व घण्टादिके शब्द समा जाते है, उसी प्रकार अपरूपात प्रदेशी लोकमें विशिष्ट अवगाहन शक्ति के कारण जीवादि अनन्त पदार्थ सहज अवकाश पा लेते है । (द्र. स./न./२०/५६) ६. एक प्रदेशपर अनन्त द्रव्योंके अवगाहकी सिद्धि स सि 11/१०/२७५ परमाण्वादयो हि सूक्ष्मभावेन परिणता एकैकस्मिन्नप्याकाशप्रदेशेऽनन्तानन्ता' अबतिष्ठन्ते। -सूक्ष्म रूपसे परिणत हुए पुदगल परमाणु आकाशके एक-एक प्रदेशपर अनन्तान्त ठहर सकते है। (रावा./५/१०/३.६/४५३) (विशेष दे. आकाश ३/५)
ध,१४/५६.९३१/४४५/१एगपदेसियस्स पोग्गलस्स होदु णाम एगागासपदेसे अवट्ठाण, कथं दुपदेसिय-तिपदेसियसखेज्जासखेज्ज अणं तपदेसियवंधाण णतस्थावट्ठाण ण, तत्थ अण तोगा गुणस्स सभवादो। तं पि कुदो णव्यदे जीव-पोग्गलाणमाण तियत्त हाणवत्ती दो। प्रश्न-- एक प्रदेशी पुद्गलका एक आकाश प्रदेश मे अवस्थान होवो परन्तु द्विप्रदेशी,त्रिप्रदेशी,सख्यात प्रदेशी, अस ख्यात प्रदेशी और अनन्त प्रदेशी स्कन्धोका वहाँ अवस्थान कैसे हो सकता है। उत्तर--नही। क्योकि वहाँ अनन्तको अवगाहन करनेका गुण सम्भव है । प्रश्न-सो भी कैसे 1 उत्तर-जीव व पुद्गलोकी अनन्तपनेकी
अन्यथा उपपत्ति सम्भव नही। प्रसा/त प्र १४०/१९८ स खल्वेकोऽपिशेषपञ्चद्रव्यप्रदेशानां सौम्यपरिणतानन्तपरमाणुस्कन्धानां चावकाशदानसमर्थ । वह आकाशका एक प्रदेश भी बाकी के पाँच द्रव्यो के प्रदेशोको तथा परम सूक्ष्मता रूपसे परिमे हुए अनन्त परमा ओके स्कन्धोको अवकाश
देने के लिए समर्थ है। द स /२७ जावदियं आयास अविभार्ग पुग्गलाणुउदृद्ध । त खु पदेसं जाणे सव्वाणुढाणदाणरिह ॥२७॥ = जितना आकाश अविभागी पुद्गलाणुसे रोका जाता है, उसको सर्व परमाणुओं को स्थान देने में समर्थ प्रदेश जानो। आकाशगता चूलिका- श्रुतज्ञान II । आकाशगामी ऋद्धि-दे. ऋद्धि ४ । आकाश पुष्प-दे० असत् ।। आकाश भूत-भूत जातिके व्यन्तर देवोका एक भेद - दे, भूत । आकिंचन्य धर्म-बा. अ ७६ होऊण य णिस्संगो णियभाव णिग्गहितु सुहदुहद । णिचं देण दु बट्टदि अणयारे तस्स कि चण्णह ॥७॥ - जो मुनि सर्व प्रकार के परिग्रहोसे रहित होकर और सुख-दुख के देनेवाले कर्म जनित निजभावो को रोककर निद्वन्द्वतासे अर्थात निश्चिन्ततासे आचरण करता है उसके आकिचन्य धर्म होता है । (पं वि./
१/१०१-१०२) ससि ६/६/४१३ उपात्तेष्वपि शरीरादिषु संस्कारापोहाय ममें दमित्यभिसन्धिनिवृत्तिराक्चिन्यम् । नास्य विञ्चनास्तीत्यक्चिन । तस्य भाव' कर्मवा आञ्चिन्यम् - जो शरीरादि उपात्त है उनमें भी संस्कारका त्याग करनेके लिए 'यह मेरा है' इस प्रकारके अभिप्रायका त्याग करना आविञ्चन्य है । जिसका कुछ नहीं है वह अविश्वन है,
और उसका भाव या कर्म आञ्चिन्य है । (रा बा.६/६/२१/५६८/१४) (त.सा६/२०) (अन ध.६/५४/६०७) भ.आ/वि.४६/१५४/१६ अकिचनतासकल ग्रन्यायाग = सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करना यह आकिंचन्य धर्म है । ( का. अ ४०२)
२. आकिंचन्यधर्म पालानार्थ विशेष भावनाएँ रा बा/8/६/२७/५६६/२६ परिग्रहाशा बलवती सर्वदोषप्रसवयोनि' । न तस्या उपाधिभिः तृप्तिरस्ति सलिलैरिव सलिलनिधेरिह बडवायाः। अपि च, क पूरयति दु पूमाशागतम् । दिने दिने यत्रास्तमस्तमाधेयमाधारत्वाय कल्पते। शरीरादीषु निर्ममत्व' परमनिवृत्तिमवाप्नोति । शरीरादिषु कृताभिष्वङ्गस्य सर्वकाल भिष्वङ्ग एव संसारे । परिग्रहकी आशा बडी बलवती है वह समस्त दोषों की उत्पत्तिका स्थान है जैसेपानीसे समुद्रकाबडवानल शान्त नही होता उसी तरह परिग्रहसे आशासमुद्र की तृप्ति नहीं हो सकती। यह आशाका गड ढा दुष्पूर है इसका भरना बहुत कठिन है। प्रतिदिन जो उसमें डाला जाता है वही समा कर मुह बाने लगता है । शरीरादिस ममत्व शून्य व्यक्ति परम सन्तोषको प्राप्त होता है। शरीरादिमें राग करनेवाले सदा संसार परिभ्रमण सुनिश्चित है। (पं वि./१/८२-१०५)
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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