Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 240
________________ आकृति २२५ आगम रा. वा,हिं /९/६/६६६ का सारार्थ (जाकै शरीरादि विषै ममत्व नाही होय सो परम सुख कुंपावै है।) * दश धर्मोंकी विशेषताएँ-दे. धर्माद * आकिंचन्य व शौचधर्ममे अन्तर-दे. शौच आकृति-न्या. सू/म्. व.भा./२/२/६५/१४३ आकृतिर्जातिलिझारख्या ॥६९॥ {सा च नान्यसत्त्वावयवानां तदवयवानां च नियवाद व्यूहादिति । ] नियतायवयवव्यूहा खलु सत्त्वावयवा जातिलिङ्ग । शिरसा पादेन गामनुमिन्वन्ति । नियते च सत्त्वावयवानां व्यूहे सति गोत्व प्रख्यायत इति ।- जिससे जाति और उसके लिंग प्रसिद्ध किये जायें उसे आकृति कहते है । और उसके अगोंकी नियत रचना जातिका चिह्न है । शिर और पादोंसे गायको पहिचानते है । अवयवोंके प्रसिद्ध होनेसे गोत्व प्रसिद्ध होता है कि 'यह गौ है' इत्यादि। पं. ध./पू ४८ शक्तिलक्ष्मविशेषो धर्मो रूपं गुण स्वभाबश्च । प्रकृति शील चाकृतिरेकार्थवाचका अमी शब्दा' ॥४८॥ = शक्ति लक्ष्मलक्षण विशेषधर्मरूप गुण तथा स्वभाव प्रकृति-शील और आकृति ये सब शब्द एक ही अर्थ के वाचक है। आक्रदत-स.सि.६/११/३२६ परितापजाताश्रपातप्रचुरविप्रलापादिभिर्व्यक्तनन्दनमाक्रन्दनम् । = परितापके कारण जो आँसू गिरनेके साथ विलाप आदि होता है, उससे खुलकर रोना आक्रन्दन कहलाता है । (रा वा.६/११/४/४१६/२६) आक्रोश परिषह-स सि.१/8/४२४ मिध्यादर्शनोक्तामर्ष परूपावज्ञानिन्दासभ्यवचनानि क्रोधाग्निशिरवाप्रवर्धनानि निशण्यतोऽपि तदर्थेष्वसमाहितचेतस सहसा तत्प्रतिकार कर्तुमपि शक्नुवत पापकर्म विपाकमचिन्तयतस्तान्याय॑ तपश्चरणभावनापरस्य कषायविषलवमात्रस्याप्यनवकाशमात्महृदयं कुर्वत आक्रोशपरिषहसहनमवधार्यते। मिथ्यादर्शनके उद्रेकसे कहे गये जो क्रोधाग्निकी शिखाको बढाते है ऐसे क्रोधरूप, कठोर, अवज्ञा कर, निन्दारूप और असभ्य वचनों को सुनते हुए भी जिसका उनके विषयों में चित्त नही जाता है, यद्यपि तत्काल उनका प्रतिकार करने में समर्थ है फिर भी यह सब पाप कर्मका विपाक है इस तरह जो चिन्तबन करता है, जो उन शब्दोंको सुनकर तपश्चरणकी भावनामें तत्पर होता है और जो कषायविषके लेश मात्रको भी अपने हृदय में अवकाश नहीं देता उसके आक्रोश परिषह सहन निश्चित होता है। (रा.बा.६/१/१७/६१०/३५) (चा.सा. १२०/४) आक्षेपिणी कथा-दे. कथा । आखेट-१. आखेटका निषेध ला.सं. २/१३६ अन्तर्भावोऽस्ति तस्यापि गुणवतसंज्ञिके। अनर्थदण्डत्यागाख्ये बाह्यानर्थ क्रियादिवत् ११३६॥ = शिकार खेलना बाह्य अनर्थ क्रियाओं के समान है, इसलिए उसका त्याग अनर्थ दण्ड त्याग नामके गुणवतमें अन्तर्भूत हो जाता है । २. सुखपदायी आखेटका निषेध क्यों ? ला.सं २/१४१-१४८ ननु चानर्थदण्डोऽस्ति भोगादन्यत्र याः क्रिया। आत्मानन्दाय यत्कर्म तरकथं स्यात्तथाविधं ॥१४१॥ यथा सृकचन्दनं योषिद्वस्त्राभरणभोजनम् । सुखार्थ सर्वमेवैतत्तथाखेट क्रियापि च ॥१४२॥ मैवं तीवानुभावस्य बन्ध प्रमादगौरवात् । प्रमादस्य निवृत्त्यथं , स्मृत व्रतकदम्बकम् ॥१४३॥ सृक्चन्द नवनितादौ क्रियाया वा सुखातये। भोगभावो सुख तत्र हिंसा स्यादानुषङ्गिकी ।१४४। आखेटके तु हिंसाया भाव' स्याइवरिजन्मिन' । पश्चाई वानुयोगेन भोग स्याद्वा न वा क्वचित ॥१४॥ हिंसानन्देन तेनोच्चै रौद्रध्यानेन प्राणिनाम् । नारकस्यायुषो बन्ध' स्यानिर्दिष्टो जिनागमे ।१४६॥ ततोऽवश्यं हि हिंसायर्या भावश्चानर्थदण्डकः । त्याज्यः प्रागेव सर्वभ्य' .संक्लेशेभ्य' प्रयत्नतः ॥१४७॥ तत्रावान्तररूपस्य मृगयाभ्यासकर्मण । त्याग भैयानवश्यं स्यादन्यथाऽसातबन्धनम् ॥१४८॥ - प्रश्न-भोगोपभोगके सिवाय जो क्रियाएँ की जाती है उन्हे अनर्थदण्ड कहते है। परन्तु 'शिकार खेलनेसे आत्माको आनन्द प्राप्त होता है इसलिए शिकार खेलना अनर्थदण्ड नहीं है ॥१४१॥ परन्तु जिस प्रकार पुष्पमाला, चन्दन, खियाँ, वखाभरण भोजनादि समस्त पदार्थ आत्माको सुख देनेवाले है उसी प्रकार शिकार खेलनेसे भी आत्माको सुख प्राप्त होता हे ॥१४२॥ उत्तर-ऐसा कहना युक्त नहीं। क्योकि प्रमादकी अधिकताकै कारण अनुभाग बन्धकी अधिक तीव्रता हो जाती है और प्रमादको दूर करनेके लिए ही सर्व व्रत पाले जाते है। इसलिए शिकार खेलना भोगोपभोगकी सामग्री नहीं है। बल्कि प्रमादका रूप है ॥१४३॥ माला, चन्दन, स्त्री आदिका सेवन करनेमे सुखकी प्राप्तिके लिए ही केवल भोगोपभोग करनेके भाव किये जाते है तथा उनका सेवन करनेसे सुख मिलता भी है और उसमे जो हिंसा होती है वह केबल प्रसगानुसार होतो है संकल्पपूर्वक नही ११४४॥ परन्तु शिकार खेलने में अनेक प्राणियोकी हिसा करनेके ही परिणाम होते है, तदनन्तर उसके कर्मों के अनुसार भोगोपभोगकी प्राप्ति होती भी है और नहीं भी होती है ॥१४५॥ शिकार खेलनेका अभ्यास करना, शिकार खेलने की मनोकामना रखकर निशाना मारनेका अभ्यास करना तथा और भी ऐसी हो शिकार खेलने के साधन रूप क्रियाओंका करना शिकार खेलने में ही अन्तर्भूत हैं। इसलिए ऐसे सर्व प्रयोगोका त्याग भी अवश्य कर देना चाहिए क्योकि ऐसा त्याग कल्याणकारी है। इसका त्याग न करनेसे असाता वेदनीयका पाप कर्म बन्ध ही होता है जो भावी दु खोका कारण है ॥१४६-१९८॥ ३. आखेट त्यागके अतिचार सा.घ. २/२२ वस्त्रनाणकपुस्तादि-न्यस्तजीवच्छिदादिकम् । न कुर्यात्यक्तपापद्धिस्तद्धि लोकेऽपि गर्हितम् ॥२२॥-शिकार व्यसनुका त्यागी वस्त्र, सिक्का, काष्ठ और पाषाण दि शिल्पमें बनाये गये जीवोके छेदनादिकको नही करे क्योंकि वह वस्त्रादिकमें बनाये गये जीवोका छेदन-भेदन लोकमें निन्दित है। ला.सं २/१५०-१५३ कार्य विनापि क्रीडार्थम् कौतुकार्थभथापि च । कर्तव्यमटनं नैव वापीकूपादिवर्मसु ॥१५०॥ पुष्पादिवाटिकासूच्चैर्वनेधूपबनेषु च । सरित्तडागक्रीडादिसर शून्यगृहादिषु ॥१५९॥ शस्याधिष्ठानक्षेत्रेषु गोष्ठीनेष्वन्यवेश्मसु । कारागारगृहेषूच्चैर्मठेषु नृपवेश्मसु ॥१५२॥ एवमित्यादि स्थानेषु विना कार्य न जातुचित् । कौतुकादि विनोदाथं न गच्छन्मृगयोज्झितः ॥१५३॥ - बिना किसी अन्य प्रयोजनके केवल क्रीडा करनेके लिए अथवा केवल तमाशा देखनेकेलिए इधर उधर नही घूमना चाहिए। किसी बावडी या ऑके मार्ग में या और भी ऐसे ही स्थानों में बिना प्रयोजनके कभी नहीं धूमना चाहिए ॥१५०॥ जिसने शिकार खेलनेका त्याग कर दिया है उसको बिना किसी अन्य कार्य के केवल तमाशा देखनेके लिए या केवल मन बहलानेके लिए पौधे-फूल, वृक्ष आदिके बगीचोमें, बडे-बडे वनों में, उपवनोमें, नदियों में, सरोवरोंमें, क्रीडा करनेके छोटे-छोटे पर्वतों पर, क्रीडा करनेके लिए बनाये हुए तालाबोमें, सूने मकानों में, गेहूँ, जौ, मटर आदि अन्न उत्पन्न होने वाले खेतोंमें, पशुओके बाँधनेके स्थानो में, दूसरेके घरोंमें, जेलखानोमें बडे-बडे मठोमें, राजमहलोंमें या और भी ऐसे ही स्थानोमें कभी नहीं जाना चाहिए ॥१५१-१५३॥ आगम-आचार्य परम्परासे आगत मूल सिद्धान्तको आगम कहते है। जैनागम यद्यपि मूलमें अत्यन्त विस्तृत है पर काल दोषसे इसका अधिकांश भाग नष्ट हो गया है। उस आगमकी सार्थकता उसकी शब्द रचनाके कारण नहीं बल्कि उसके भाव प्रतिपादनके कारण है। इसलिए शब्द रचनाको उपचार मात्रसे आगम कहा गया है। इसके भावको ठीक-ठीक ग्रहण करनेके लिए पाँच प्रकारसे इसका अर्थ करनेकी १५ जनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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