Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 236
________________ आकाश २२१ २ आकाश निर्देश २. आकाश निर्देश १. आकाशका आकार आचारसार ३/२४ व्योमामूर्त स्थितं नित्यं चतुरस्र सम धनम् । अवगाहनाहेतवश्चानन्तानन्त प्रदेशकम् ॥२४।। = आकाश द्रव्य अमूर्त है, नित्य अवस्थित है, घनाकार चौकोर है, अवगाहनाका हेतु है, अनन्तानन्त प्रदेशी है। २ आकाशके प्रदेश तसूह आकाशस्यानन्ता. 18| = आकाश द्रव्यके अनन्त प्रदेश है (द्र सं.मू. २५) (नि सा. मू. ३६) (गो जी.मू.५८७/१०२५) प्रसा/त प्र १३५/१६१ सर्व व्याप्यनन्तप्रदेशप्रस्ताररूपस्वादाकाशस्य च प्रदेशवत्वम् । = सर्वव्यापी अनन्तप्रदेशोके विस्ताररूप होनेसे आकाश प्रदेशवान है। ३ आकाश द्रव्यके विशेष गुण त.स १८ आकाशस्थावगाह ॥१८॥ = अवगाहन देना आकाशद्रव्यका उपकार है। ध १५/३३/७ ओगाहणलक्रवणमायासदव्यं । आकाश द्रव्यका असाधा रण लक्षण अवगाहन देना है। आ प २/१/११४ आकाशद्रव्ये अवगाहनाहेतुरू मद्तरमचेतनत्वमिति । - आकाश द्रव्यके अवगाहना हेतुत्व, अमूर्तत्व और अचेतनत्व में (विशेष) गुण हैं। प्रसा/त प्र १३३ विशेषगुणो हि युगपरसर्व द्रव्याणां साधारणावगाहहेतुस्वामाकाशस्य । युगपत् सर्व द्रव्योके साधारण अवगाहका हेतुत्व आकाशका विशेष गुण है। ४. आकाशके १६ सामान्य विशेष स्वभाव न.च वृ ७० इगवीस तु सहावा दोण्हं (१) तिण्ह (२) तु सोडसा भणिया। पंचदसा पुण काले दव्वसहावा (३) य णयव्वा ॥५०॥ जीव व पुद्गल के २१ स्वभाव, धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य के १६ स्वभाव, तथा काल द्रव्यके १५ स्वभाव कहे गये है। (आप/ अधि४) न च वृ./टी ७० (सद्रूप. असद्रूप, नित्य, अनित्य, एक, अनेक, भेद, अभेद, भव्य, अभव्य स्वभाव, विभाव, चैतन्य, अचैतन्य, मूर्त, अमूर्त, एक प्रदेशी, अनेक प्रदेशी, शुद्ध, अशुद्ध उपचरित, अनुपचरित, एकान्त, अनेकान्त । इन चौबीसमे-से अनेक, भव्य, अभव्य, विभाव, चैतन्य, मूर्त, एक प्रदेशत्व, अशुद्ध। इन आठ रहित १६ सामान्य विशेष स्वभाव आकाश द्रव्यमें है) (आ. प./अधि ४) ५. आकाशका आधार स. सि. ३/१/२०४ आकाशमात्मप्रतिष्ठम् ।-आकाश द्रव्य स्वय अपने आधारसे स्थिति है। (स.सि.१२/२७७) (रा वा ३/१/८/१६०/१६) रा. बा.५/१२/२-४/४५४ आकाशस्यापि अन्याधारकतपनेति चेत्, न, स्वप्रतिष्ठत्वात् ॥२॥ ततोऽधिकप्रमाणद्रव्यान्तराधाराभावात ॥३॥ तथा चानवस्थानिवृत्तिः ॥ ४॥प्रश्न-आकाशका भी कोई अन्य आधार होना चाहिए । उत्तर-नहीं, वह स्वयं अपने आधारपर ठहरा हुआ है ॥ २ ॥ उससे अधिक प्रमाणवाले दूसरे द्रव्यका अभाव होनेके कारण भी उसका आधारभूत कोई दूसरा द्रव्य नही हो सकता। ३॥ यदि किसी दूसरे आधारकी कल्पना की जाये तो उससे अनवस्था दोषका प्रसंग आयेगा, परन्तु स्वयं अपना आधारभूत होनेसे वह नही आ सकता है। ६. अखण्ड आकाशमें खण्ड कल्पना रावा.५/८/५-६/४५०/३ एकद्रव्यस्य प्रदेशकलगना उपचारत' स्यात् । उप चारश्च मिथ्योक्तिर्न तत्त्वपरीक्षायामधिक्रियते प्रयोजनाभावात । न हि मृगतृष्णिकया मृषार्थात्मिकया जलकृत्यं क्रियते इति; तन्न, कि कारणम् । मुख्यक्षेत्राविभागात । मुख्य एवं क्षेत्र विभाग , अन्यो हि घटावगाह्य आकाशप्रदेशः इतरावगाह्यशन्य इति। यदि अन्यत्व न स्यात् व्याप्तित्वं व्याहन्यते ॥ ५ ॥ निरव यवत्त्वानुपपत्तिरिति चेतन, द्रव्यविभागाभावाच ॥६॥ एक द्रव्य यद्यपि अविभागी है वह घटकी तरह सयुक्त व्य नही है। फिर भी उसमे प्रदेश वास्तविक है उपचारसे नही। घर के द्वारा जा आकाशका क्षेत्र अवगाहित किया जाता है वह पटादिके द्वारा नहीं । दोनो जुदे-जुदे है। यदि प्रदेश भिन्नता न होती तो वह सर्वव्यापी नही हो सकता था। अत द्रव्य अविभागी होकर भी प्रदेशशून्य नही है। अनेक प्रदेशी होते हुए भी द्रव्यरूपसे उन प्रदेशोके विभाग न होनेके कारण निरवयव और अखण्ड द्रव्य मानने में कोई बाधा नहीं है। प्र सा /त प्र १४०/१६८ अस्ति चाविभाग कद्रव्यत्वेऽप्यशकल्पनमाका शस्य, सर्वेषामणुनामवकाशदानस्यान्यथानुपपत्ते। यदि पुनराकाशस्यांशा न स्युरिति मतिस्तदाङ्कलीयुगल नभसि प्रसार्य निरूप्यता विमेकं क्षेत्र कि मनेकम् ॥-आकाश अविभाग (अखण्ड) एक द्रव्य है । फिर भी उसमें (प्रदेश रूप) खण्ड कल्पना हो सकती है, क्योकि यदि, ऐसा न हो तो सब परमाणुओको अवकाश देना नहीं बनेगा। ऐसा होनेपर भी, यदि आकाशके अश नही होते (अर्थात् अंश कल्पना नही की जाती) ऐसी मान्यता हो तो आकाशमे दो अंगुलिया फैलाकर बताइये कि दो अंगुलियोका एक क्षेत्र है या अनेक १ (अर्थात् यह दो अगुल अ काश है यह व्यवहार तभी बनेगा जबकि अखण्ड द्रव्यमे खण्ड कल्पना स्वीकार की जाये।) द्र स /टो.२०/७५ निर्विभागद्रव्यस्यापि विभागकल्पनमायात घटाकाश. पटाकाशमित्यादिवदिति । - घटाकाश व पटाकाशकी तरह विभाग रहित आकाश व्यकी भी विभाग कल्पना सिद्ध हुई । (पं. का./त.प्र ५/१५) ७. लोकाकाश व अलोकाकाशकी सिद्धि रा. वा १/१८/१०-१३/४६७/२४ अजाप्तत्वादभाव इति चेत न, असिद्ध ॥१०॥ द्रव्यार्थिकगुणभावे पर्यायाथिकप्राधान्यात् स्वप्रत्ययागुरुलधुगुणवृद्धिहानिविकल्पापेक्षया अवगाहकजीवपुद्गलपरप्रत्ययावगाहभेदविवक्षया च आकाशस्य जातत्वोपपत्ते' हेतोरसिद्धि । अथवा, व्ययोस्पादौ आकाशस्य दृश्यते । यथा चरमसमयस्यासर्वज्ञस्य सर्वज्ञत्वेनोत्पादस्तथो पलब्धे असर्वज्ञत्वेन व्य यस्तथानुपलब्धे , एव चरमसमयस्यासर्वज्ञस्य साक्षादनुपलभ्यमाकाशं सर्वज्ञरवोपपत्तौ उपलभ्यत इति उपलभ्यत्वेनोत्पन्नमनुपलभ्यत्वेन च विनष्टम् । अनावृत्तिराकाश मिति चेत, न, नामवत् तत्सिइधे ॥१६॥...यथा नाम वेदनादि अमूर्तत्वात अनावृत्यपि सदस्तीत्यभ्युपगम्यते, तथा आकाशमपि वस्तुभूतमित्यवसेयम् । शब्द लिङ्गखादिति चेत्' न पौद्गलिकत्वात ॥१२॥ प्रधान विकार आकाशमिति चेत्, न तत्परिणामाभावात आत्मवत् ॥१३॥ - प्रश्न - आकाश उत्पन्न नही हूआ इसलिए उसका अभाव है। उत्तर-आकाशको अनुत्पन्न कहना असिद्ध है। क्योकि द्रव्यार्थिककी गौणता और पर्यायाथिक्की मुख्यता होनेपर अगुरुलधु गुणोकी वृद्धि और हानि के निमित्तने स्वप्रत्यय उत्पाद व्यय और अवगाहक जीव पुद्गलोके परिणमनके अनुसार परप्रत्यय उत्पाद व्यय आकाशमें होते ही रहते है । जेसे-कि अन्तिम समयमे असर्वज्ञताका विनाश होकर किसी मनुष्यको सर्वज्ञता उत्पन्न हुई हो तो आकाश पहले अनुपलभ्य था वही पीछे सर्वज्ञको उपलभ्य हो गया। अत आकाश भी अनुपलभ्यत्वेन विनष् होकर उपलभ्यत्वेन उत्पन्न हुआ ॥१०॥-प्रश्नआकाश आवरणाभाव मात्र है 1 उत्तर नहीं किन्तु बस्तुभूत है। जैसे कि नाम और वेदनादि अमूर्त होनेसे अनावरण रूप होकर भी सत है, उसी तरह आकाश भी॥११॥ प्रश्न-अवकाश देना यह आकाशका लक्षण नहीं है । क्योकि उसका लक्षण शब्द है । उत्तर-ऐसा नहीं है क्योकि शब्द पौद्गलिक है और आकाश अमूर्तिक । प्रश्न जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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