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अस्थि
उन पदार्थों के योग्य है अर्थात उनको उठाकर आचार्य के समीप
ले जावे। कुरल १२/१ इदं हि न्यायनिष्ठत्व यन्निष्पक्षतया सदा। न्याय्यो भागो हृदादेयो मित्र य रिपवेऽथवा ॥१॥ न्यायनिष्ठाका सार केवल इसमे है कि मनुष्य निष्पक्ष होकर धर्मशीलताके साथ दूसरेके देय अशको दे देवे, फिर चाहे लेनेवाला शत्रु हो या मित्र । ३. शंका समाधान
१. कर्मादि पुद्गलोंके ग्रहण में भी दोष लगेगा स सि ७/१५/३५२/१२ यद्य व कमनोकर्मग्रहणमपि स्तेय प्राप्नोति,
अन्येनादत्तत्वात् । नैषदोष , दानादाने यत्र सम्भवतस्तत्रैव स्तेयव्यवहार । कुत , अदत्तग्रहणसामर्थ्यावा- प्रश्न-यदि स्तेयका पूर्वोक्त (अदत्तादान) अर्थ किया जाता है तो कर्म और नोकर्मका ग्रहण करना भी स्तेय ठहरता है, क्योकि, ये किसीके द्वारा दिये नही जाते ? उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि, जहाँ देना और लेना सम्भव है वहीं स्तेय का व्यवहार होता है । प्रश्न यह अर्थ किम शब्दसे फलित होता है। उत्तर-मृत्रमें दिये गये 'अदत्त' शब्द से।
(रा वा ७१५/१-३/५४२/१५) २ पुण्योपार्जन प्रशस्त चोरी कहलायेगा रा.वा.७/१५/८/५४३/१ स्यान्मतम् वन्दनाक्रियासबन्धेन धर्मोपचये सति प्रशस्त स्तेय प्राप्नोति, तन्न, कि कारणम् । उक्तत्वात् । उक्तमेतत्दानादानसभत्रो यत्र तत्र स्तेयप्रसंग इति । प्रश्न --बन्दना सामायिक आदि क्रियाओके द्वारा पुण्यका संचय साधु बिना दिया हुआ ही ग्रहण करता है, अत उसको प्रशस्त चोर कहना चाहिये ? उत्तरयह आशका निर्मूल है, क्योकि, यह पहले ही कह दिया गया है कि जहाँ लेन देन का व्यवहार होता है वही चोरी है ।
३. शब्द ग्रहण व नगरद्वार प्रवेशसे साधुको दोष लगेगा रावा. ७/१४/७५४३ स्यादेतत्-शब्दादि विषयरध्याद्वारादीन्यदत्तानि
आददानस्य भिक्षी स्तेय प्राप्नोतीति । तन्न , कि कारणम् । अप्रमत्तयात। दत्तमे वा तत्मर्वम् । तथा हि अय पिहितद्वारादीन न प्रविशति । प्रश्न - इन्द्रियोके द्वारा शब्दादि विषयोको ग्रहण करने मे तथा नगरके दरवाजे आदिको बिना दिये हुए प्राप्त करनेसे साधुको चोरीका दोष लगना चाहिए। उत्तर-यत्नवान अप्रमत्त और ज्ञानी माधुको शास्त्र दृष्टिसे आचरण करनेपर शब्दादि सुननेमें चोराका दोष नहीं है, क्योकि, वे मत्र वस्तुए तो सबके लिए दी ही गयो है, अदत्त नही है। इसीलिए उन दरवाजो में प्रवेश नहीं करता जा सार्वजनिक नही है या बन्द है । (स.सि ७/१२/३५३/२) अस्थि-१, औदारिक शरीरों में अस्थियोका प्रमाण-दे औदारिक
१/७, २ इनमें षट् काल कृत वृद्धि ह्रास-दे. काल ४ ॥ अस्थिर-दे स्थिर। अस्नान-साधुका एक मूलगुण -दे स्नान । अहंकार-त अनु १५ये कर्मकृताभावा परमार्थनयेन चारमनोभिन्ना । तत्रात्माभिनिवेशाऽहकारोऽह यथा नृपतिः ॥१५॥ कर्मोके द्वारा निर्मित जा पर्याये है और निश्चयनयसे आत्मासे भिन्न है, उसमे आत्माका जो मिथ्या आरोप है, उसका नाम अह कार है जैसे
मै राजा हूँ। प्रसा ता वृ ६४/१४ मनुष्पादिपर्यायरूपोऽहमित्यह कारो भण्यते।
- मनुष्यादि पर्यायरूप ही मै हूँ' ऐसा कहना अहंकार है। द्र स.टी. ४१/१६६/१ कर्मजनितदेहपुत्रकलत्रादौ ममेदमिति ममकारस्त त्रैवाभेदेन गौरस्थूलादिदेहोऽहं राजाऽहमित्यह कारलक्षण मिति । - कर्मोंसे उत्पन्न जो देह, पुत्र, स्त्री आदिमें 'यह मेरा शरीर है, यह मेरा पुत्र है', इस प्रकारकी जो बुद्धि है वह ममकार है, और उन
अहिंसा शरीरादिमे अपनी आत्मासे अभेद मानकर जो 'मै गौर वर्ण का हूँ, माटे शरीर वाला हूँ, राजा हूँ,' इस प्रकार मानना सो अहंकारका लक्षण है। अहंक्रिया-म स्तो टी १२/२६ अहमस्य सर्वस्य स्यादिविषयस्य ___ स्वामिति क्रिया अह क्रिया। - 'मैं इस स्त्री आदि समस्त विषयोका
स्वामी हूँ' इस प्रकारकी क्रिया को अह क्रिया कहते है। अहमिन्द्र-दे इन्द्र। अहिंसा-जेन धर्म अहिंसा प्रधान है, पर अहिसाका क्षेत्र इतना सकुचित नहीं है जितना कि लोक्में समझा जाता है इसका व्यापार बाहर व भीतर दोनो ओर हता है। बाहर में तो क्सिी भी छोटे या बडे जीवको अपने मनसे या वचनसे या कायसे, क्सिी प्रकार की भी हीन या अधिक पीडा न पहुँचाना तथा उसका दिल न दुग्वाना अहिसा है. और अन्तर गमें राग द्वेष परिणामोसे निवृत्त ह कर माम्यभाव में स्थित होना अहिसा है। बाह्य अहिंसाको व्यवहार और अन्तर गका निश्चय कहते है। वास्तव में अन्तर गमें आशिक सभ्यता आये बिना अहिमा सम्भव नही, और इस प्रकार इसके अतिव्यापक रूप में सत्य अचौर्य ब्रह्मचर्य आदि सभी सदगुण समा जाते है। इसीलिए अहिसा का परम धर्म व हा जाता है। जल थल आदिमे सर्वत्र ही क्षुद्र जीवो का सद्भाव होनेके वारण यद्यपि बाह्य में पूर्ण अहिसा पलनी असम्भव है पर यदि अन्तर गमें साम्यता
और बाहर में पूरा-पूरा यत्नाचार रखने में प्रमाद न किया जाय तो बाह्य जीवोके मरने पर भी साधक अहिसक ही रहता है। १. अहिंसा निर्देश * निश्चय अहिंमाका लक्षण-दे अहिसा २/१।
१. अहिंसा अणुव्रतका लक्षण र क श्रा५३ स कल्पात कृतकारितमननाद्योगत्रयस्य चरसत्वान् । न हिनस्ति यत्तदाहु स्थूल वधाद्विरमण निपुण ॥५३॥ - मन,वचन, कायके स कल्पसे और कृत, कारित, अनुमोद नामे त्रस जीवोको जो नहीं हनता, उस क्रियाको गणधरादिक निपुण पुरुष स्थूल हिसासे विरक्त हाना अर्थात् अहिसाणुवत कहते है। (स सि ७/२०/३५८/७), (रा.वा.
७/२०११/५४७/६), (साध १/७) । वसु.श्रा २०६ जे तसकाया जीवा पुवुद्दिवाण हिसियव्या ते । एई दिया विणिकरणेण पढम वयं थूलं ॥२०६-जो त्रस जीत्र पहिले बताये गये है, उन्हे नही मारना चाहिए और निष्कारण अर्थात बिना प्रयोजन एकेन्द्रिय जीवोको भी नही मारना चाहिए। यह पहिला स्थूल अहिसा व्रत है । (सा ध.४/१०) काअ/मू ३३१-३३२ जो वावरेइ सदओ अप्पाणसमं पर पि मण्णं तो। णिदण गरहण-जुतो परिहरमाण महार भे॥३३॥ तसघाद जो ण करदि मणवयकाए हि णेव कारयदि। कुब्बत पि ण इच्छादि पढमवयं, जायदे तस्स ॥३३२॥-जो श्रावक दयापूर्ण व्यापार करता है, अपने ही समान दूसरोको मानता है, अपनी निन्दा और गर्दा करता हुआ महा आरम्भको नही करता ॥३३१॥ तथा जो मन, वचन व कायसे त्रस जीबोका घात न स्वय करता है, न दूसरोसे कराता है और न दूसरा करता हो उसे अच्छा मानता है, उस श्रावकके प्रथम अहिसाणुवत होता है। २. अहिंसा महाव्रतका लक्षण मू आ, ५,२८६ कार्य दियगुणमग्गण कुलाउजोणीसु सव्वजीवाण । णाऊण
य ठाणादिसु हिसादिविवज्जणमहिसा ॥५॥ एइ दियादिपाणा पंचविधाबज्जभीरुणा सम्म । ते खलु ण हि सितव्या मणवचिकायेण सव्वस्थ ॥२८॥- काय, इन्द्रिय, गुणस्थान, मागंणास्थान, कुल, आयु, योनि-इनमें सब जीवो को जानकर कायोत्सर्गादि क्रियाओं में हिंसा आदिका त्याग करना अहिसा महावत है ॥५॥ सम देश और सब
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