Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 229
________________ अस्तेय २ महाव्रतीके लिए अस्तेय की भावनाएं भ आम १२०८ - १२०६ अणणुण्णादग्गहण असगबुद्धी अणुण्णवित्तावि । मध उम्माहापुस २० माि पवेसस्स गोयरादीसु । उग्गहजायणमणुत्रोचिए तहा भावणा तइए ॥ १२० ॥ - १. उपकरणोको उसके स्वामीकी परवानगी के बिना ग्रहण न करना, २ उनकी अनुज्ञासे भी यदि ग्रहण करे तो उनमें आसक्तिन करना, ३ अपने प्रयोजनको बताते हुए कोई वस्तु (माँगना. ४ या अपनी मर्जी से भी यदि दातार देगा तो वह सबकी सब ग्रहण कर लूगा ऐसी भावना न करना, ५. ज्ञान व चारित्रमे उपयोगी ही वस्तु या उपकरण ग्रहण करना, अन्य नहीं, तथा अनुपयोगी वस्तुकी याचना न करना | १२०८ ॥ ६ घरके स्वामी द्वारा घरमे प्रवेश की मनाई होनेपर उसके घर मे प्रवेश न करना, ७ आगमसे अविरुद्ध ही सयमोपकरणकी याचना करना ऐसी ये अचौर्य व्रतकी भावनाएँ है || १२०॥ ( आ ३३१) (अन ध ४/५७/३४५)। त सू ७ / ६ शून्यागार विमा चितावास परोपरोधाकरणभैक्ष्यशुद्धिसधर्माविसंवादा पञ्च ॥ ॥ शून्यागारावास, विमोचित या व्यक्तावास परोपरोधाकरण अति दूसरेके आनेमें रुकावट न डालना, भैक्षशुद्धि अर्थात् भिक्षु चर्याको शुद्धि, सर्माविवाद अवधि सामजम से वाद विवाद न करना ये अचौर्यव्रतकी पाँच भावनाएँ है । २१४ ( चा पा. मू. ३३) अन ध ४/५७ में आचार आदि शास्त्रों से उद्धृत पृ ३४६ उपादान मतस्वमतेचासक्त बुद्धिता । गार्ह्यस्यार्थ कृतो लानमितरस्य तु वर्जनम् । अप्रवेश मतेऽगारे गृहिभिर्गोचरादिषु । तृतीये भावना योग्ययाञ्चा सूत्रानुसारत ॥ देहण भात्रण चावि उग्गह च परिग्गहे । सतुट्ठी भत्तपाणे तदिय वदमिस्सदो ॥ =यहाँ दो प्रकारसे पाँच पाँच भावनाएँ बतायी है एक आचार शाखके अनुसार और दूसरी प्रतिक्रमणशास्त्र के अनुसार । -१ तहाँ आचार शास्त्र के अनुसार तो१ स्वामीके द्वारा अनुज्ञात तथा योग्य ही वस्तुका ग्रहण करना, २ और अनुमत वस्तुमें भी आसक्त बुद्धि न रखना, ३ तथा जितने से अपना प्रयोजन सिद्ध हो जाता हो उतना ही उसको ग्रहण करना बाकीको छोड देना, ४ गोचरादिक करते समय जिस गृहमें प्रवेश करनेकी उसके स्वामीकी अनुमति नही है, उसमें प्रवेश न करना, ५ और सूत्र के अनुसार योग्य विषयकी ही याचना करना। २. प्रतिक्रमण शास्त्र के अनुसार- १. शरीरकी अशुचिता या अनित्यतादिका विचार करना, २ आत्मा और शरीरको भिन्न-भिन्न समझना, परिग्रह निग्रह अर्थात् 'जितने भी चेतन या अचेतन परपदार्थ है उनके सम्पर्क से आत्मा अपने हिस्से हो जाता हैऐसा विचार करना, ४ भक्त सन्तोष अर्थात् विधि पूर्वक जैसा भी भोजन प्राप्त हो जाये उसमें ही सन्तोष धारण करना; ५ पान सन्तोष अर्थात् यथा लब्ध पेय वस्तुके लाभालाभमे सन्तोष रखना, उन दोनो की प्राप्तिके लिए गृद्ध न होना । म पू. २०/१६३ मितोचिताभ्यनुज्ञाणापग्रहोऽन्नधा संतोषो भाने व तृतीयभावमा ।।१६।१ परिमित आहारा २. धरण योग्य आहार लेना के प्रार्थना करने पर आहार लेना; ४. योग्य विधिके विरुद्ध आहार न लेना, ५ तथा प्राप्त हुए भोजन में सन्तोष रखना पॉच तृतीय बचतको भावनाएँ है ॥ १६३ ॥ ३. अणुव्रतीके लिए अस्तेय की भावनाएं ससि ७/२/२४० वास्तेन परद्रव्यहरणास सर्वयोजनीयो भवति । चाय हस्तपाद कर्ज नासोत्तरीच्छेदमभेदनहरणादीन् प्रतिभाशुभा मति गर्हितरच भक्तोति स्याह परति श्रेयसी एवं हिसादिष्वायाद्यदर्शनं भावनीयम - पर द्रव्यका अपहरण करनेवाले चोरका सब तिरस्कार करते है । Jain Education International २ अस्तेय निदेश इस लोक मे वह ताडना मारना, बाँधना तथा हाथ, पैर, नाक, कान, ऊपर के ओठका घेदना, भेदना और सर्वस्वहरण आदि दु खोको और परलोकमे अशुभ गतिको प्राप्त होता है, और गर्हित भी होता है. इसलिए चोरीका त्याग श्रेयस्कर है। इस प्रकार हिसा आदि दोषोमें अपाय और अवद्यके दर्शनकी भावना करनी चाहिए । ★ व्रतोकी भावानाओ सम्बन्धी विशेष विचार--दे, व्रत २ । ४. अन्याय पूर्वक ग्रहण करनेका निषेध कुरल १२/३,६ अन्यायप्रभवं वित्तं मा गृहाण कदाचन वरमस्तु तदादाने लाभं वास्तु दूषणम् ॥३॥ नीति मन परित्यज्य कुमार्ग यदि धावते । सर्वनाश विजानीहि तदा निक्टस स्थितम् ॥६॥ = अन्याय से उत्पन्न धनको कभी भी ग्रहण न करो। भलेही उससे लाभके अतिरिक्त अन्य वस्तुकी सम्भावना न हो अर्थात् उससे केवल लाभ होना निश्चित हो ॥ ३ ॥ जब तुम्हारा मन नीतिको त्याग कुमार्ग में प्रवृत्ति करने लगता है तो समझ लो कि तुम्हारा सर्वनाश निकट ही है ॥६॥ ५. चोरीको निन्दा भ आमू = ६५ / ६८४ पदव्वहरणमेदं आसवदार खु वेति पावस्स । सोग रियवाहपदारवेहि चोरोहु पापदरो । परद्रव्य हरण करना पाप आनेका द्वार है। सूअरका घात करने वाला, मृगादिकोंको पकड़नेवाला और परस्त्रीगमन करनेवाला, इनसे भी चोर अधिक पापी गिना जाता है । ६ अस्तेयका माहात्म्य भ आम् ८७५-८७६ एदे सव्वे दोसा ण होति परदव्वहरण- विरदस्स । विवरीदा य गुणा होति सदा दत्तभोइस्स ॥ ८७५॥ देविदराय गहवइदेवदसाहन तुम्हा उमाहविडीया दिग्ण सामन्य साहृण्यं ॥ ८७६ ॥ = उपर्युक्त चोरीका दोष जिसने त्याग किया है, ऐसे महापुरुषमे दोष नही रहते है, परन्तु गुण ही उत्पन्न होते है। दिये हुए पदार्थका उपभोग लेनेवाले उस महापुरुष में अच्छे-अच्छे गुण प्रगट होते है ८० देवेन्द्र राजा गृहस्थ, राजाधिकारी देवता और साथमिक साहसे योग्य विधिसे दिया हुआ सिद्धि करनेवाला, जिससे ज्ञानकी सिद्धि व सयमकी वृद्धि होगी, ऐसा पदार्थ हे क्षपक 'तू ग्रहण कर ॥ ८७६ ॥ ७ चोरीके निषेधका कारण २/१६८१०० ततोऽयह पाप स्यात्परहरणे नृणाम्। याद मरणे दुखं साहश णि क्षितौ ॥१६८॥ एवमेतत्परिज्ञाय दर्शनाकोत्तमै । कर्त्तव्या न मति क्वापि परदारधनादिषु ॥ १६६ ॥ आस्ता परस्व स्वीकार नारकादिषु यदजैन भनेक दु व क्षमो नरः ॥ १७० ॥ - चोरी करनेवाले पुरुषको अवश्य महापाप उत्पन्न होता है, क्योंकि जिसका धन हरण किया जाता है उसको जैसा मरने दुख होता है वैसा ही दु ख धनके नाश हो जानेपर होता है ॥ १६८ ॥ उपरोक्त प्रकार चोरीके महादोषोको समझकर दर्शनप्रतिमा धारण करनेवाले उत्तम श्रवकको दूसरेकी स्त्री वा दूसरेका धन हरण करने के लिए कभी भी अपनी बुद्धि नही करनी चाहिए ॥ १६६ ॥ दूसरेका धन हरण करनेसे वा चोरी करनेसे जो नरक आदि दुर्गतियो में महादुख होता है वह तो होता ही है किन्तु ऐसे लोगोको इस जन्म में ही जो दुख होते है उनको भी कोई मनुष्य कह नहीं सकता ।। १७० ।। * चोरीका हिसामे अन्तर्भाव अहिंसा है। ८. मागंमें पड़ी वस्तु मिलनेपर कर्तब्ध मू आ १५७ ज तेण तद्धं सच्चित्ताचित्त मित्सय दव्वं । तस्स य सो आरओ अरिहदि एवंगुण सोनि १५० -ते समय मार्ग शिष्यादि चेतन पुस्तकादि अचेतन और पुस्तकसहित शिष्यादि मिश्र ये पदार्थ मिल जॉस तो आगे जानेवाले गुणवान् आचार्य ही जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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