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अस्तिकाय
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अस्तित्व
हार करते है कि स्निग्धरूक्ष गुण के कारण होनेवाले बन्धका काल द्रव्यमे अभार है, इसलिए वह काय नही हो सकता। प्रश्न-ऐसा भी क्यो है । उत्तर-स्यो कि स्निग्ध तथा रुक्षपना पुद्गल का हो धर्म है, कालमे स्निग्ध रूक्ष नही है। स्निग्धरुषत्व ठाक्तिका अभाव होने के कार । उपचारसे भो कालाणु ओके कायल नहीं है। ३ काल द्रव्यको एकप्रदेशी या अकाय मानने की क्या
आवश्यकता प्र सात १/१२४ सप्रदेशत्वे हि कालस्य कुत ए-द्रव्यनिवन्धन लोकाकाश तुल्याम रब्येयरदेशत्व नाभ्युपगम्यते। पर्यायसमयावमिह । प्रदेशमात्र हि द्रव्यसमयमतिकामत परमाणो पर्यायसमय प्रसिद्ध ध्यति। लोकाकाशतुल्यास ख्येयप्रदेशेक द्रव्यत्वऽपि तस्यैक प्रदेशमतिकामत परमाणोस्तत्सिद्धिरिति चेन्नै । एक्देशवृत्तं सर्ववृत्तित्वविरोधात । सर्वस्यापि हि कालपदार्थस्य यसक्ष्मो वृत्त्यश स समयो न त तदेकदेशस्य । तिर्यक् प्रच यस्योर्ध्व प्रच्यत्वप्रमनाच्च । तथाहि - प्रथममे केन प्रदेशेन वर्तते ततोऽन्येन ततोऽप्यन्तरेणेति तिर्यपचयोऽप्यूर्यप्रचयीभूय प्रदेशमात्र द्रव्यमवस्थापयति । ततम्तिी प्रचस्योर्ध्वप्रचयत्यमनिच्छता प्रथममेव प्रदेशमात्र कालद्रव्य व्यवस्थापयितव्यम् । = प्रश्न-जब कि इस प्रकार काल (थंचित्) सपदेश है तो उसके एकद्रव्यके कारणभूत लोकाकाशनस्य असख्येयप्रदेश क्यो न मानने चाहिए । उतर - ऐसा हो तो पर्याय समय मिद नही होता। इसलिए अस ख्यप्रदेश मानना योग्य नहीं है। परमाणुके द्वारा प्रदेशमात्र द्रव्यसमयका उपल धन पग्नेपर पर्यायसमय प्रसिद्ध होता है। यदि दध्म समग्र लोक काश ताप असख्य प्रदेशी ह' तो पर्याय ममगकी सिद्धि कहाँसे होगी। प्रश्न-यदि कालदप लोकाकाश जितने अस रुग प्रदेशबाला हो तो भी परमाणु के द्वारा उसका एकप्रदेश उल्ल धित होने पर पर्यायसमयकी सिद्धि हो जायेगी ? उत्तर - यह भी ठीक नहीं है, क्योकि १ एप्रदेशकी वृत्तिको सम्पूर्ण द्रध्यको वृत्ति मानने मे विरोध है। सम्पूर्ण काल पदार्थ का जो सूक्ष्म वृत्त्यश है वह समय है, परन्तु उसके एक्देशका बृत्यश समय नही। २ (दूसरे) तिर्यपचयको ऊर्ध्व प्रचयत्व का प्रसग आता है। वह इस प्रकार है- प्रथम, कान्नद्रव्य एक प्रदेशसे वर्ते, फिर दूसरे प्रदेशसे वर्ते, और फिर अन्य प्रदेशसे वर्ते। इस प्रकार तिर्यक्प्रचय ऊर्ध्व प्रवय बनकर द्रव्यको एक प्रदेशमात्र स्थापित करता है (अर्थात् तिर्यकप्रचय ही ऊर्व प्रचय है, ऐसा मानने का प्रसग आता है, इसलिए द्रव्य प्रदेशमात्र ही सिद्ध होता है ।) इसलिए तिर्यक् प्रचयको ऊर्ध्वप्रचय न माननेवालेको प्रथम ही कालव्यको प्रदेशमात्र निश्चय करना चाहिए।
७. पंचास्तिकायको जानने का प्रयोजन द्र स /टो ५६/२२०/६ पच्चास्तिकाय •मध्ये स्त्रशुद्धजोवास्तिकाय एवोपादेय शेष न हेय । पाँचो अस्तियोमे स्त्रशुद्धजीवास्तिकाय
ही उपादेय है, अन्य सब हेय है । (प का /ता वृ४/१३/१४) पं का /ता. वृ/१६/१५ तत्र शुद्धजीवास्तिकायस्य यानन्तज्ञानादिगुण
सत्ता मिद पर्यायमत्ता च शुद्रासख्यातप्रदेशरूप कायस्य मुपादेयमिति भावार्थ - । -तहाँ शुद्ध जीवास्तिकायकी जो अनन्तज्ञानादिरूप गुगसत्ता, सिद्वपर्या यरूप द्रव्यसत्ता और शुद्ध असख्यातप्रदेश रूप कायस्व उपादेय है, ऐसा भावार्थ है। (प्र सा /ता वृ १३६/१६२/१०) प. का./ता बृ १०३/१६३-१६५/१५ अथ पञ्चास्तिकाय प्रयनस्य मुख्यवृत्त्या तदन्तर्गतशुद्धजीवास्तिकायपरिज्ञानस्य वा फल दर्शयति । द्वादशाङ्गरूपेण विस्तीर्ण स्थापि प्रवचनस्य सारभूत एष विज्ञाय ..
य कर्ता मुख्चति रागद्वेषौ द्वौ स प्राप्नोति परिमोक्षम् । -इस पंचास्तिकाय नाम ग्रन्थ के अध्ययनका तथा मुख्यवृत्तिसे उसके अन्तर्गत बताये गये शुद्र जीवास्तिकायके परिज्ञानका फल दर्शाता हूँ। द्वादशागरूपसे अति विस्तीर्ण भी इम प्रवचनके सारभूतको जानकर -गे राग व द्वेष दोनोंको छोडता है वह मोक्ष प्राप्त करता है।
अस्तित्व-१. 'अस्तित्व' शब्दके अनेक अर्थ
१. सामान्य सत्ताके अर्थमे अस्तित्व रावा २/७/१३/१११/३२ अस्तित्व तावत् साधारण षड्द्रव्यविषयत्वात् । तत कर्मादयक्षमायोपशमोपशमानपेक्षत्वाव पारिणामिकम् ।-अस्तित्व छहो द्रव्योमें पाया जाता है अत साधारण है । कर्मोदय क्षय क्षयोपशम व उपशमसे निरपेक्ष होने के कारण यह पारिणामिक है। न च वृ६१ अस्थिसहावे सत्ता । अस्तित्व स्वभावको हो सत्ता
कहते है। आ प/६ अस्तीत्येतस्य भावोऽस्तित्व सह पत्वम् । - अस्ति अर्थात् 'है पने के भावको अस्तित्व कहते है । अस्तित्व अर्थात सद्रूपत्व । (द्र स/मू २४) (नि सा /ता वृ/३४) स भ त ४५/ अस्धात्वर्थोऽस्तित्व सत्त्वपर्यवसन्नम् । = 'अस' धातुका _अर्थ अस्तित्व है और उसका सत्तारूप अर्थ से तात्पर्य है।
२.अवस्थान अर्थमे अस्तित्व रा बा ४/४२/२/२५०/१७ आयुरादिनिमित्तवशादवस्थानमस्तित्वम् ।
= आयु आदि निमित्तोके अनुसार उस पर्यायमें बने रहना सद्भाव या स्थिति है।
३ उत्पाद व्यय ध्रौव्यस्वभाव अर्धमे अस्तित्व (सू ५/३० उत्पादव्ययधौव्ययुक्त सत्॥३०॥ = जो उत्पाद व्यय और धौव्य इन तीनोसे युक्त अर्थात इन तीनो रूप है वह सत् है। प्रसा/मू /६६ सम्भावो हि सहावो गुणे हि सगपज्जा हि चित्तेहि । दबस्स सम्बकाल उप्पादठ्ययधुबत्तेहि ॥६६॥-सर्वकाल में गुणो तथा अनेक प्रकार की अपनी पर्यायोमे और उत्पादव्यम्धीव्यसे द्रव्य का जो
अस्तित्व है वह वास्तबमे स्वभाव है। प का./त प ५/१४ एकेण पर्यायेण प्रलीयमानस्थान्येनोपजायमानस्यान्वयिना गुणेन धौव्य बिभ्राणस्यै कस्यापि वस्तुन समुच्छेदोत्पादधौव्यलक्षणमस्तित्वमुपपद्यत एव । - जिसमे एक पर्यायका विनाश होता है, अन्य पर्यायकी उत्पत्ति होती है तथा उसी समय अन्यमी गुण के द्वारा जो ध्र व है ऐसी एक बस्तुका उत्पाद-व्यय-धीव्य रूप लक्षण ही अस्तित्व है। २. अस्तित्वके भेद प्र सा/त प्र/१५ अस्तित्व हि वक्ष्यति द्विविध-स्वरूपास्तित्वं साहश्यास्तित्व चेति । अस्तित्व दो प्रकारका कहेगे-स्वरूपास्तित्व
ओर सादृश्यास्तित्व । नि सा/ता वृ/३४ अस्तित्वं नाम सत्ता। सा किविशिष्टा । सप्रतिपथा
अवान्तरसत्ता महासत्तेति । अस्तित्व अर्थात सत्ता। वह कैसी है ! महासत्ता और अवान्तर सत्ता । ३ स्वरूपास्तित्व या अवान्तर सत्ता प्र सा /मू /१६ इद स्वरूपास्तित्वाभिधानम् (प्र सा /त प्र उत्थानिका) सब्भावो हि सहावो गुणेहि सगपज्जएहि । चत्तेहि । दबस्स सब्बकालं उप्पादव्ययधुबत्तेहि ॥ १६ ॥-सर्वकाल मे गुण तथा अनेक प्रकार की अपनी पर्यायोगे और उत्पादव्ययधौव्यसे द्रव्यका जो अस्तित्व है वह बास्तबमे स्वभाव है। प्र सात प्र./६७ प्रतिद्रव्य सीमानमासूत्रयता विशेषलक्षणभृतेन च स्वरूपास्तित्वेन लक्ष्यमाणानामपि-प्रत्येक द्रव्यको सीमाको बॉधते हुए ऐगे विशेषलक्षणभूत स्वरूास्तित्व से लक्षित होते है । का /त प्र ८ प्रति नियतवस्तुवतिनी स्वरूपास्तित्वसूचिकाऽवान्तरसत्ता । प्रतिनियतवस्तुवर्ती तथा स्वरूपस्तित्वको सूचना देनेवाली (अर्थात पृथक्-पृथक पदार्थ का पृथक्-पृथक् स्वतन्त्र अस्तित्व बतानेवाली) अवान्तरसत्ता है। नि सा/ता बृ /३४ प्रतिनियतवस्तुव्यापिनी ह्यवान्तरसत्ता प्रतिनियतै करू पत्र्यापिनी ह्यवान्तरसत्ता,.. प्रतिनियतकपर्यायव्यापिनी
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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