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अवर्ण्यसमा
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अवस्था
द्याघोषणं देवावर्ण बाद ॥१२॥ - 'केवली भोजन करते है, कम्बल आदि धारण करते है, तु बडीका पात्र रखते है उनके ज्ञान और दर्शन क्रमश होते है इत्यादि केवलो का अवर्णवाद है ॥८॥ मासमछलौका भक्षण, मधु और सुगका पीना, कामातुरको रतिदान तथा रात्रि भोजन आदिमे कोई दोष नहीं है, यह सत्र श्रुतका अवर्णवाद है । ये श्रमण शू है,स्नान न करनेसे मलिन शरीरवाले है, अशुचि है, दिगम्बर है, निर्लज्ज है इसी ल कमे ये दुखी है, परलोक भी इनको कष्ट है, इत्यादि सबका अवणवाद है ॥१०॥ जिनोपदिष्ट धर्म निर्गुण है, इसके धारण करनेवाले मर कर असुर होते है इत्यादि धर्मका अवर्णबाद है ॥११॥ देव मद्य मामका सेवन करते है. आहल्या
आदिमे आसक्त हुए थे, इत्यादि देवोका अवर्णवाद है। भ. आवि/२७/१६१/२३ मर्वज्ञतावीतरागते नाई ति विद्य ते रागादिभिरविद्यया च अनुगता समस्ता एक प्राणभृत इत्यादिरहतामवर्णवाद । स्त्रोवस्त्रगन्धमाल्यालकारादिविरहिताना सिद्वाना मरख न किचिदतीन्द्रियाणाम् । तेषा समधिगतौ न निबन्धनमस्ति किचिदिति सिद्धावर्णवाद ।...न प्रतिबिबादिस्था अर्हदादय तदगुणवेकल्यान प्रतिबिवानामह दादिमिति चेत्यावर्णवाद । अज्ञात चापदिशतो बच कथ सत्य । तदुद्गत च ज्ञान कथ समार्च निमिति श्रुतावणबाद । सुन्वदायी चे द्वर्म स्वनिष्पत्त्यनन्तर मुखमात्मन कि न करोति इति धर्मावर्णवाद । केशान्लु चनादिभि पीडयता च कथ नात्मवध । अष्टमात्मविषय, धम, पाप, तत्फलं च गदता 14 सत्यवतम् । इति साध्ववर्णवाद । एवमितरयारपि । वीतरागता व सर्व ज्ञपना अर्हन्तमे नही है, क्योकि जगतमे सम्पूर्ण प्राणो ही रागदप
और अज्ञानमे घिरे हुए देखे जाते है, ऐसा कहना यह अर्हन्तका अवर्ण वाद है। खो, बख, इतर वगैरह मुगधी पदार्थ, पुष्पमाला ओर वस्खाल कार ये ही सुखके कारण है। इन पदार्थोका अभाव होनेसे सिद्धों का सुख नहीं है। मुख इन्द्रियोसे प्राप्त होता है परन्तु वे सिद्धोको नही है, अत वे सुरखी नही है ऐसा कहना सिद्धावर्ण वाद है। मूर्तिमे अर्हन्त सिद्ध आदि पूज्य पुरुष वास नही करते है, क्योंकि उनके गुण मूतिमें दीखते नही है, ऐसा कहना चैत्यावण बाद है। अज्ञात वस्तुका यदि वह उपदेश करेगा तो उसके उपदेश में प्रमाणता कैसे आवेगी। उसके उपदेशमे लोगो को जो ज्ञान उत्पन्न होगा वह भी प्रमाण कैसे माना जायेगा। अत आगमज्ञान प्रमाण नहीं है। ऐसा कहना श्रुतावर्णवाद है। यदि धर्म सुखदायक है ता वह उत्पन्न हानेक अनन्तर हो सुख क्यो उत्पन्न नही करता है। ऐसा कहना यह बर्मावणं बाद है। ये साधु केशलोच उपवासादिके द्वारा अपने आरमाको दुख देते है, इसलिए इनका आत्मवधका दोष क्यो न लगेगा। पाप और पुण्य दृष्टिगाचर हाते नही है, तो भी ये मुनि उनका और उनके नरक स्वर्गादि फलोका वर्णन करते है। उनका यह विवेचन झूठा होनेमे उन्हे सत्यवत कैसे हो सकता है। इत्यादि कहना यह साधु अवर्ण वाद है। ऐसे ही अन्यमे भी जानना। अवर्ण्यसमा-न्यायविषयक एक जाति-दे, वर्ण्यसमा। अवलब-अर्थात् कारण-दे कारण I/१।। अवलबना-ध १३/७५,३७/२४२/४ अवलम्बते इन्द्रियादीनि स्वोस्पत्ये इत्यवग्रह अवलम्बना ।-जो अपनी उत्पत्ति के लिए इन्द्रियादिकका अवलम्बन लेता है, वह अवलम्बना अबग्रहका चौथा नाम है । अवलंबनाकरण-ध १०/१,२४.११२/३३०/११ किमवलंबणाकरण णाम । परभवआिउअवरिमट्ठिदिदव्वस्स ओकडूढणाए हेट्ठा णिवदणमवल बणाकरणं णाम। एदस्स अकणसण्णा किण्ण कदा। ण उदयाभावेण उदयावलियबाहिरे अणिबदमाणस्स ओक्छणा ववएसविराहाद।।-प्रश्न- अवल बनाकरण किसे कहते है ? उत्तर-परभव सम्बन्धी आयुकी उपरिम स्थितिमे द्रव्यका अपकर्षण द्वारा नीचे पतन करना अवलंबनाकरण कहा जाता है । प्रश्न-इसकी अप
कर्षण सज्ञा क्यो नही की १ उत्तर-नहीं, क्योकि, परभविक आयुका उदय नहीं होनेमे इसका उदयावलि के बाहर पतन नही होता, इसलिए इसकी अपकर्पण सज्ञा करने का विरोध आता है। [आशय यह है कि परभव सम्बन्धी आयुका अपकर्षण होनेपर भी उसका पतन आबाधा कालके भीतर न होकर आबाधासे ऊपर स्थित स्थितिनिपेको में होता है। इसोसे इसे अपकर्षण से जुदा बताया गया है। अवलंब ब्रह्मचारी-दे. ब्रह्मचारी। अवश-नि. सामू/१४२ ण वसा अबसो-जो अन्यके वश नहीं है
वह अवश है। नि सा/ता वृ/१४२ यो हि योगी स्वात्मपरिग्रहादन्येषा पदार्थाना वशं न गत । अतश्व अवश इत्युक्त ।-जा योगी निजात्माके परिग्रहके अतिरिक्त अन्य पदार्थोक वश नही होता है, और इसीलिए जिसे अवश कहा जाता है। म श/टो/३७/२३६ अवश विषयेन्द्रियाधानमनारमायत्तमित्यर्थ ।विषय व इन्द्रियोके आवान अनात्म पदार्थोंका निमित्तपना अवश है अर्थात अपने वश मे नही है। अवसन्न-भ आ/मू १२६४-१२६/१२७२ आसण्णसेवणाओ पडिसेवंतो अमजद। हाई। मिद्विपहपक्किदाओ ओहीणा साधुसस्थाढो । १२६४। इ दियकमायगुरुगत्तणेण सुहमालभाविदासमणो । करणालसो भवित्ता मेदि आमण्णमेवाओ।१२६५-जा साधु चारित्रसे भ्रष्ट होकर सिद्धमार्ग की अनुयायी क्रियाएं करता है तथा अस यत जनोकी सेवा करता है, वह अबसन्न साधु है। ताब कषाय युक्त होकर वे इन्द्रियोके विषयोमे आसक्त हो जाते है, जिसके कारण सुखशील होकर आचरणमे प्रवृत्ति करते है। भा/वि २५/०८/१४ पर उदत गाथा "पासरथो सच्छदो कुसील ससत्त होति ओसण्णा। ज सिद्धि पच्छिदादो ओहीणा साधु मस्थादो।"पार्श्वस्थ, स्वच्छन्द, कुशील, ससक्त और अवसन्न ये पॉच प्रकार के मुनि रत्नत्रय मार्ग मे विहार करनेवाले मुनियोका त्याग करते है अर्थात् स्वच्छन्दसे चलते है। भ आ वि १६५०/१७२१/२१ यथा कर्दमे क्षुण्ण मार्गाद्धीनोऽवसन्न इत्यु
च्यते स द्रव्यताऽवसन्न । भावावसन्न अशुद्वचारित्र ।-जैसे कीचडमें फॅमे हुए और मार्गभ्रष्ट पथिकको अबसन्न कहते है, उसको द्रव्यावसन्न भी कहते है, वैसे ही जिसका चारित्र अशुद्ध बन गया है ऐसे मुनिको भावावसन्न कहते हैं। (विशेष विस्तार दे० साधु ५) चा सा.१४४/१ जिनवचनानभिज्ञो मुक्तचारित्रभारो ज्ञानाचारणभ्रष्टः करणालसोऽवसन्न । जो जिनवचनोको जानते तक नहीं, जिन्होंने चारित्रका भार सब छोड दिया है, जो ज्ञान और चारित्र दोनोसे भ्रष्ट है और चारित्रके पालन करनेमें आलस करते है, उन्हे अवसन्न कहते है । (भा.पा/टी १४/१३७/२१) ★ अवसन्न साधुका निराकरण आदि-दे० साधु अवसन्नासन्न क्षेत्र प्रमाणका एक भेद । अपर नाम उत्संज्ञासंज्ञ
दे गणित I/१/३। अवपिणी-ध.१३/५,५,५६/३१/३०१ कोटिकोटयोदशैतेषां पत्याना सागरोपमम् । सागरोपमकोटीना दश कोट्योऽवसर्पिणी ॥३॥ -दस कोडाकोडी पत्योका एक सागरोपम होता है और दस कोडाकोडी सागरोपमोका एक अवसर्पिणी काल होता है। विशेष दे.
काल/४। अवसाय-न.वि. वृ.१/७/१४०/१६ अवसायोऽधिगमः- पदार्थके
ज्ञान या निश्चयका नाम अवसाय है। अवस्था-प. पू. ११७ अपि नित्या प्रतिसमयं विनापि यत्न हि परिणमन्ति गुणा । स च परिणामोऽवस्था तेषामेव ॥११७॥-गुण
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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