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अविपाक
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अशुद्ध
अविपाक-दे० विपाक । अविभाग प्रतिच्छेद-शक्ति अंशको अविभागप्रतिच्छेद कहते हैं । वह जड़ व चेतन सभी पदार्थोंके गुणों में देखे जाते हैं। यथा
१. द्रव्य व गगों सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद थ. १२/४,२,७,१६६/४/१० सव्वमंदाणुभागपरमाण घेतण वण्णगंधरसे
मोत्तूण पासं चेव बुद्धी ए घेतूण तस्स पग्णाच्छेदो कायवो जाव विभागवज्जिदपरिच्छेदो त्ति । तस्स अंतिमस्स खंडस्स अछज्जस्स अविभागपडिच्छेद इदि सण्णा । = सर्व मन्द अनुभागसे युक्त परमाणु - को ग्रहण करके, वर्ण गन्ध रसको छोड़कर, केवल स्पर्शका (एक गुणका) ही बुद्धिसे ग्रहण कर उसका विभाग रहित छेद होने तक प्रज्ञाके द्वारा छेद करना चाहिए। उस नहीं छेदने योग्य अन्तिम खण्डकी अविभाग प्रतिच्छेद संज्ञा है। (रा. वा. २/५/४/१०७/६) (गो.जी./भाषा ५६/१५४/१८) ध. १४/५/६/५०४/४०१/४एगपरमाणुम्हि आ जहणिया बड्ढो सो अविभागपडिच्छेदो णाम । = एक परमाणु में जो जघन्य वृद्धि होती है। उसे अविभागप्रतिच्छेद कहते हैं।
२. अनुभाग सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद ध. १२/४,२,७,१९६/१२/३ तत्थ एक्काम्हि परमाणु म्हि जो जहण्णेण वडिदो अणु भागो तस्स अविभागपडिच्छेदो त्ति सण्णा। -एक परमाणुमें जो जघन्यरूपसे अबस्थित अनुभाग है उसकी अविभाग प्रतिसाद संज्ञा है।
३. योग सम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेद ध. १०/१,२,४.१७८/४४०/५ जोगाविभागपहिच्छेदो णाम किं । एक्के म्हि
जीवपदेसेजोगस्स जाजहणिया वड्ढो सो जोगाविभागपडिच्छेदो।.... एकजीवपदेसद्वियजहणजागे असंखेज्जलागे हि खंडिदे तत्य एगरखण्डम विभागपडिच्छेदो णाम । - प्रश्न--योगाविभागप्रतिच्छेद किसे कहते हैं ! उत्तर-एक जीवप्रदेशसे योगकी जो जघन्य वृद्धि है, उसे योगाविभागप्रतिच्छेद कहते हैं ।...एक जीवप्रदेश में स्थित जघन्य योगको असंख्यात लोकोसे खण्डित करनेपर उनमें से एक खण्ड अविभागप्रतिच्छेद कहलाता है। * गुणोंमें अविभागप्रतिच्छे दों रूप अंशकल्पना
-दे. गुण २। अविरत सम्यग्दृष्टि-दे० सम्यग्दृष्टि ५ । अविरत-द्र.संटो. ३०८८/३ अभ्यन्यरे निजपरमात्मस्वरूपभावनोत्पन्नपरमसुखामृतरतिविलक्षणा बहिविषये पुनरवतरूपा चेत्यविरतिः। -अन्तरं गमें निज एरमात्मस्वरूपको भावनासे उत्पन्न परमसखामत में जो प्रीति, उससे विलक्षण तथा बाह्य विषयमें व्रत आदिको धारण न करना सो अविरति है। स. सा./ता. वृ.८८ निर्विकारस्वसंवित्तिविपरीतावतपरिणामविकारो
ऽविरतिः। -निर्विकार स्वसंवेदनसे विपरीत अत रूप विकारी . परिणामका नाम अविरति है।
२. अविरतिके भेद बा. अणु. ४८ अविरमण हिंसादी पंचविही सो हवइ णियमेण । अविरति नियमसे हिंसा आदि पाँच प्रकारकी है-अर्थात् हिंसा, झूठ,
चोरी, कुशील व परिग्रह रूप है । (न.च.तृ.३०७); (द्र.सं/मू./30/८८) स.सि.८/१/३७५/१२ अविरतिवदिश विधाः षट् कायषट् करण विषयभेदात् ।
-छह कायके जीवों की दया न करनेसे और छह इन्द्रियों के विषयभेदसे अविरति बारह प्रकारकी होती है । रा. वा. ८/१/२६/५६४/ २४); (द. सं./टी.३०/८६/३) नोट:- और भी दे. असंयम* कर्मबन्धके प्रत्ययके रूपमें अविरति-दे. अंध ३ । * अविरति व कषायमें अन्तर-दे. प्रत्यय ।
अविरुद्ध-न. च. वृ २४८ सामण्ण अह विसेसं दवे गाणं हवेइ अविरोहो। साहइ तं सम्मत्तं णहू पुण तं तस्स विवरीयं ॥२४८॥ - द्रव्यमें सामान्य तथा विशेषका ज्ञान होना ही अविरुद्ध है वह ही सम्यक्त्व को साधता है, क्योंकि वह उससे विपरीत नहीं है। अविरुद्धोपलब्धि हेत-टोना अविशद-दे. विशद। विशेषसमा-न्या.स./न. व. भा. १-१/२३ एकधर्मोपपत्तेरविशेषे सर्वाविशेष प्रसंगात्सद्भावोपपत्तेर विशेषसमः ॥२३॥ एको धर्मः प्रयत्नानन्तरीयकरवं शब्दघटयोरुपपद्यत इत्यविशेषे उभयोर नित्यत्वे सर्वस्थाविशेषः प्रसज्यते। -विवक्षित पक्ष और दृष्टान्तव्यक्तियों में एक धर्म की उपपत्ति हो जानेसे अविशेष हो जानेपर पुनः सद्भावकी उपपत्ति होनेसे सम्पूर्ण बस्तुओंके अविशेषका प्रसंग देनेसे प्रतिवादी द्वारा अविशेषसम प्रतिषेध उठाया जाता है ॥२३॥ जैसे कि प्रयत्नान्तरोयकत्वरूप एक धर्म शब्द व घट दोनोंमें घटित हो जानेसे दोनोंका विशेषरहितपना स्वीकार कर चुकनेपर, पुनः प्रतिवादी द्वारा सम्पूर्ण वस्तुओं के समान हो रहे 'सत्त्वं' को घटनासे सबको अन्तरहित या नित्यपनेका प्रसंग देना अविशेषसमा जाति है। (श्लो. वा. ४/न्या. ४०७/५१८/४) अविष्वग्भाव-स. म. १६/२१७/२४ अविष्व ग्भावेनावयविनोऽवयवेषु वृत्तः स्वीकाराद। =प्रत्येक अवयवा अनेक अवयवोंमें अवि
वाभाव रूपसे अर्थात् अभेद रूपसे स्वीकार किया गया है। अव्यक्त-आलोचनाका एक दोष। -दे. आलोचना २। अव्यवस्था-दे. व्यवस्था । अव्याघात ल.सा./भाषा.५4/04/१ जहाँ स्थिति काण्डकधात न
पाइए सो अव्याघात (अपकर्षण) है।- विशेष दे. अपकर्षण । अव्याप्त-लक्षणका एक दोष।-दे. लक्षण। अव्यावाध-लोकान्तिक देवों का एक भेद ।-दे, लौकान्तिक । अव्याबाध सुख-दे. सुख । अशन-मू. आ./मू. ६४४ असणं खुहप्पसमण । - जिससे भूख मिट
आय वह अशन है। अन.ध.७/१३/६६७ ओरनाद्यशनं 1-भात दाल आदि भोज्य सामग्रीको
अशन कहते हैं। . आहार 11४/१-आहारका दोष । अशनिघोष-१ मानषोत्तर पर्वतस्थ अअनकूट का स्वामी भवनवासी सुपर्ण कुमार देव । दे. लोक ५/१०/२. (स.पु.५६/२१२-२१८)पूर्व पापके कारण हाथी हुआ, मुनिद्वारा सम्बोधे जानेपर अणु बत धारण कर लिया। पूर्व बैरी सर्प के डस लेनेसे मरकर स्वर्ग में श्रीधर देव हुआ। यह संजयन्त मुनिका पूर्वका सातवाँ भव है। अशनिजव-महोरग जातिके व्यन्तरदेवका एक भेद-2.महोरग। अशय्याराधिनी-यह एक मन्त्र विद्या है -दे. विद्या । अशरण-अशरणानुप्रेक्षा-दे. अनुप्रेक्षा।
-पिशाचजातीय व्यन्तरदेव - दे. पिशाच अशुत्वानुप्रेक्षा-दे. अनुप्रेक्षा अशुद्ध-आ. प. ६ शुद्ध' केवलभावमशुद्ध तस्यापि विपरीतम् ।
- केवल अर्थात असंयोगी भावको शुद्ध कहते हैं और अशुद्ध उससे विपरीत है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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