Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 224
________________ असत्यवचनयोग २०९ असिद्ध हेत्वाभास को अन्य जातिका सत्पदार्थ कहना यह अपत्यका तीसरा भेद है। असाधारण-दे. साधारण । जैसे-बैल है उसका विचार न कर यहाँ घोड़ा है ऐसा कहना। यह कहना विपरीत सत पदार्थका प्रतिपादन करनेसे असत्य है। असाम्यता-घ/प्र २७) गणित inequality | पुसि.उ ६४ वस्तु सदपि स्वरूपात पररूपेणाभिधीयते यस्मिन् ।। असावद्य कर्म-दे सावद्य/४। अनृतमिदं च तृतीयं विज्ञेयं गौरिति प्रथा श्व ॥ = स्व द्रव्यादि असिकर्म-दे सावद्य/३ । चतुण्यसे वस्तु सत होने पर भी परचतुष्टय रूप अताना तीसरा अनृत है। जैसे बैल को 'घोडा है ऐसा कहना। असिक्थ-भ आ/वि ७००1८८२/७ असिस्थग सिक्थरहितं । ___भातके सिक्थ जिसमें नहीं है ऐसा माड असिस्थग है। ४. असूनृत रूप असत्य असितपर्वत-विजयाध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे भ आ /सू ८२६ जं वा गरहिदवयणं ज वा सावज्जस जुद वयण । ज वा अप्पियवयण असत्सवयणं च उत्थं च । - जो निंद्य वचन बोलना, जो विजयाई । अप्रियवचन बोलना, और जो पाप युक्त वचन बोलना बह सत्र चौथे असिद्धत्व-दे पक्ष । प्रकारका असत्य वचन है। रा बा २/६/७/१०६/१८ अनादिकर्म बन्धसतानपरतत्रस्यात्मनः कर्मोपुसि.उ ६५गर्हितमत्रासयुतम प्रियमपि भवति वचन रूपं यत् । सामान्येन दयसामान्ये सति असिद्धत्वपर्यायो भवतीत्यौदयिक स। पुनर्मिथ्यात्रेधा मनगिदमनृतं तुरोय तु । - यह चौथा झूठका भेद तीन प्रकारका दृष्टयादिषु सूक्ष्मसाम्परायिकान्तेषु कर्माष्टकोदयापेक्ष, शान्तक्षीणहै-गर्हित अर्थात् निंद्य,सावध अर्थात हिसा युक्त, और अप्रिय । कषाययो सप्तकर्मोदयापेक्ष , सयोगिकेवल्ययोगिकेवलिनोरघाति* गहित ट अप्रिय आदि वचन--दे वचन कर्मोदयापेक्ष | अनादि मबद्ध आत्माके सामान्यत सभी वर्गों के उदयसे असिद्ध पर्याय होती है । दसवें गुणस्थान तक आठों कर्मोंके * असत्यका हिसामे अन्तर्भाव-दे अहिमा ३ ज्दयसे ग्यारहवे और बारहवे गुण स्थानमे मोहनीयके सिवाय सात असत्यवचनयोग-दे वचन कर्मों के उदयसे, और सयोगी और अयोगीमे चार अघातिया कर्मोके असत्योपचार-दे उपचार उदयसे असिद्धत्व भाव होता है। (स. सि. २/६/१५६/६) (ध /पु. ५/१७१/१८६/६), असद्भाव स्थापना-दे. निक्षेप ४ प ध /उ ११४३ नेद सिद्धत्वमत्रेति स्यादसिद्धत्वमर्थत । संसार असद्भूत नय-दे नय V५ अवस्थामें उक्त सिद्ध भाव (अष्ट कर्मरहित अष्टगुण सहित) नही होता, असमवायी-दे समवाय इस कारणसे यह असिद्धत्व कहलाता है। असमीक्ष्याधिकरण-दे, अधिकरण २ असिद्धत्व भावको औदयिक कहनेका कारण असम्यक् ववनोदाहरण-दे उदाहरण ध १४/५,८,१६/१३/१० अघाइकम्मच उक्कोदयजणिदमसिद्धसं णाम ।-चार अघाति कर्मोके उदयसे हुआ असिद्धत्व भाव है। असर्वगतत्व-दे. सर्व गतत्व प.ध./उ./११४१ असिद्धत्वं भवेद्भावो नूनमौदयिको मत' । व्यस्ताद्वा असहा-भ. आ/वि १५०/३४५/११ जिनायतनं यतिनिवास वा स्यात्समस्ताद्वा जात कर्माष्टकोदयात् ॥ ११४१॥ असिद्धत्वभाव प्रविशन् प्रदक्षिणीकुर्यान्निसी धिकाशब्द प्रयोग च । निर्गतुकाम निश्चय करके औदयिकभाव होता है क्योकि असमस्तरूपसे अथवा आमोपिकेति । आदिशब्देन परिगृहीतस्थानभोजन शयनगमनादि समस्तरूपसे आठो कर्मोके उदयसे होता है। क्रिया । - जिनमन्दिर अथवा यतिका निवास अर्थात मठमें प्रवेश कर असिद्ध पक्षाभास-दे. पक्ष । प्रदक्षिणा रे । उस समय निसिधिका शब्दका उच्चारण कर, और असिद्ध हेत्वाभास- मु६/२२ असत्सत्तानिश्चयोऽसिद्ध.॥२२॥ बहासे लौटते समय आसाधिका शब्दका उच्चारण करें। इसी तरह - जिसकी सत्ताका पक्षमें अभाव हो और निश्चय न हो उसे असिद्ध स्थान, भोजन, शयन, गमनादि क्रिया करते समय भी मुनियोको कहते है। प्रयत्नपूर्वक प्रवृत्ति करनी चाहिए। अन,ध ८/१३२-१३३ वसत्यादौ विशेत् तत्स्थ भूतादि निसहोगीरा । न्या /वि/वृ. २/१९७/२२६/ तथा साध्ये सत्यसति च यस्यासिद्धिरसौ आपृच्छच तस्मानिर्गच्छेत्तचापृच्छयासही गिरा ॥ ३२॥ आत्मन्या असिद्धो नाम । तया साध्यके होनेपर अथवा न होनेपर जिसकी सिद्धि स्मासितो येन त्यक्ता वाशास्य भावत । नीसह्यसह्यौ स्तोऽन्यस्य नही होती, वह हेतु असिद्ध कहलाता है । तदुच्चारणमात्रकम् । ॥१३३॥ साधुओको जम मठ चैत्यालय या न्या दी. ३/६४०/८६ 'अनिश्चितपक्षवृत्तिरसिद्ध , यथा अनित्य शब्दवसति आदिमें प्रवेश करना हो तब उन मठादिकोमे रहनेवाले भूत श्चाक्षुषन्वात अत्र हि चाक्षुषत्व हेतु पथ कृते शब्दे न वर्तते श्रावणयक्ष नाग आदिकोसे निसही' इस शब्दका बोलकर पूछकर प्रवेश स्वाच्छन्दस्य । तथा च पक्षधर्म विरहाद सिद्धत्व चाक्षुषत्वस्य ।- पक्षमें करना चाहिए। इसी तरह जब वहाँ से निकलना हो तब असही' जिसका रहना अनिश्चित हो वह असिद्ध हेत्वाभास है। जैसे - 'शब्द इसी शब्द के द्वारा उनसे पूछकर निकलना चाहिए ॥१३२॥ निसही अनित्य है, क्योकि इन्द्रियसे जाना जाता है। यहाँ 'चक्षु इन्द्रियसे और असही शब्द का निश्चयनयकी अपेक्षा अर्थ बताते है। जिस जाना जाता है। यह हेतु पक्षभूत शब्द में नही रहता है। कारण, शब्द साधुने अपनी आत्माको अपनी आत्मामे ही स्थापित कर रखा है श्रोतेन्द्रियसे जाना जाता है। इसलिए पक्षधर्मत्वके न होनेसे 'चक्षु उसके निश्चयनयसे 'निसही' समझना चाहिए। और जिसने इस इन्द्रियसे जाना जाना' हेतु असिद्ध हेत्वाभास है । (न्या दी. ३/६६०/ लोक परलोक आदि सम्पूर्ण विषयोकी आशाका परित्याग कर दिया १००/२) है उसके निश्चय नयसे असही' समझना चाहिए। किन्तु उनके २ असिद्ध हेत्वाभासके भेद प्रतिकून जो बहिरात्मा है अथवा आशावान है उनके ये निसही और पमु ६/२४,२६ स्वरूपेणासत्त्वात् ॥२४॥ सदेहाव ॥२६॥ - असिद्ध हेवाअसही केवल शब्दोच्चारणमात्र ही समझना चाहिए । भास दो प्रकारका होता है स्वरूपासिद्ध और सदिग्धासिद्ध । (न्या, असातावेदनीय-दे वेदनीय । दी ३६६०/१००) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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