Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 219
________________ अशुद्ध चेतना २०४ अष्टपाहुड स. सा./ता. वृ. १०२ औपाधिकमुपादानमशुद्ध, तप्तायःपिण्डवत् । -औपाधिक पदार्थको अशुद्ध कहते हैं जैसे अग्निसे तपाया हुआ लोहेका गोला। पं.का./ता. वृ. १६/३६/३ परद्रव्यसम्बन्धेनाशुद्धपर्यायः । पर द्रव्य के सम्बन्धसे अशुद्ध पर्याय होती है। पं.ध./उ. २२१ शुद्ध सामान्यमात्रत्वादशुद्ध तद्विशेषतः । वस्तु सामान्यरूपेण स्वदते स्वादु सद्विदाम् ॥२२१॥ वस्तु सम्यग्ज्ञानियों को सामान्यरूपसे अनुभव में आती है इसलिए वह वस्तु केवल सामान्य रूपसे शुद्ध कहलाती है और विशेष भेदोंकी अपेक्षा अशुद्ध कहलाती है। (विशेष-दे. नय IV/२/४) अशुद्ध चेतना-दे. चेतना। अशुद्धता-पं. ध/उ. १३० तस्या सत्यामशुद्धत्वं तद्द्वयोः स्वगुण च्युतिः ॥१३०॥ --उस बन्धनरूप परगुणाकार कियाके होनेपर जो उन दोनों जीव कर्मो का अपने-अपने गुणोंसे च्युत होना है वह अशुद्धता कहलाती है। अशुद्ध द्रव्याथिक नय-दे. नय IV/२ अशुद्ध निश्चय नय-दे. नय V/१ अशुद्धोपयोग-दे. उपयोग II/2/५ अशुभ नाम कर्म-दे, शुभ । अशुभ योग-दे. योग/२। अशुभोपयोग-दे, उपयोग II/४ । अशून्य नय-दे. नय 1॥५ अशोक-१. एक ग्रह-दे. ग्रह; २. विजयाधको उत्तर श्रेणी का एक नगर-दे. विद्याधरः ३. वर्तमान भारतीय इतिहासका एक प्रसिद्ध राजा। यह चन्द्रगुप्त मौर्य का पोता और बिम्बसारका पुत्र था । मगध देश के राज्यको बढ़ाकर इसने समस्त भारत में एक छत्र राज्यकी स्थापना की थी। यह बड़ा धर्मात्मा था। पहले जैन था परन्तु पीछेसे बौद्ध हो गया था। ई०पू०२६१ में इसने कलिंग देशपर विजय प्राप्त को और वहाँके महारक्तप्रवाहको देखकर इसका चित्त संसारसे विरक्त हो गया। समय-जैन मान्यतानुसार ई०पू० २७७-२३६ है, और इतिहासकारोंके अनुसार ई० पू० २७३-२३२ है (विशेष दे. इतिहास/३/४) अशोक रोहिणो व्रत-दे. रोहिणी व्रत । अशोक वृक्ष-दे. वृक्ष/२। अशोक संस्थान-एक ग्रह-दे, ग्रह । अशोका-१. अपर विदेहके कुमुदक्षेत्र की प्रधान नगरी-दे. लोक ५/२ ... नन्दीश्वर द्वोपको दक्षिण दिशामें स्थित एक वापी-दे. लोक ४/५ । अश्मक-भरत क्षेत्रके दक्षिणी आर्य खण्डका एक देश-दे, मनुष्य ४ । अश्व-१. चक्रवर्तीके १४ रत्नों में से एक -दे. शलाकापुरुष २:२. एक नक्षत्र-दे, नक्षत्र: ३. लौकान्तिक देवोंका एकभेद-दे.लौकान्तिक; ४. इस लौकान्तिकदेवक। लोकमें अरस्थान - दे. लोक/। अश्वकर्ण करण-क्ष. सा./भाषा ४६२ चारित्रमोहकी क्षपणा विधिमें, संज्वलन चतुष्कका अनुभाग, प्रथम काण्डकका धात भए पीछे, क्रोधसे लोभ पर्यन्त क्रमसे उसी प्रकार घटता हो है, जिस प्रकार कि घोड़ेका कान मध्य प्रदेशतै आदि प्रदेश पर्यन्त घटता हो है। इसलिए क्षपककी इस स्थितिको अश्वकर्ण कहते हैं। ऐसी स्थितिमें लाने की जो विधि विशेष उसे अश्वकर्णकरण कहते हैं। इसीका अपर नाम अपवर्तनोद्वर्तन व आन्दोलनकरणभी है (ध.६/१,६-८,१६/३६४/६) २. अश्वकर्णकरण विधान क्ष. सा.गा,४६३-४६५/भावार्थ संज्वलन चतुष्कका अनुभागवन्ध वसत्व क्रम, प्रथम काण्डका घात होने से पहले निम्न प्रकार थामानका स्वाक (५११), क्रोधका विशेष अधिक (५१५), मायाका विशेष अधिक (५१८) नोभका विशेष अधिक (१२१) । यहाँ तक जो काण्डकघात होता था उसमें ग्रहण किये गये स्पधकोंका भी यही कम रहता था, परन्तु अब इस कममें परिवर्तन हो जाता है। प्रथम समय के अनुभाग काण्डका क्रम इस प्रकार हो गया-क्रोध स्पर्धक स्तोक ( ३८७); मानके विशेष अधिक (HEO); मायाके विशेष अधिक (५१०); लोभ के विशेष अधिक (५१६)। इस प्रकार काण्डकका घात भए पीछे शेष स्पधकों का प्रमाण-कोधमें १२८, मान में ३२, मायामें ८ और लोभमें २ मात्र रहे। इसी प्रकार इनके स्थिति-बम्ध व स्थिति-सवका भी यही क्रम हो गपा। यह अश्वकर्ण करण यहाँही समाप्त नहीं हो जाता. बल्कि आगे अपूर्व स्पर्धक करण' तथा 'कृष्टिकरण' में भो बराबर चलता रहता है। दे. स्पर्धक तथा कृष्टि । (क्रमशः) नोट-ऊपर जो गणनाओं का निर्देश किया है उन्हें सहमानीसमझना। क्ष.सा. ४८७-४८१ भावार्थ क मशः अश्व कणकरणका कुल काल अन्तमुहूर्त प्रमाण है। इस काल में हज़ारों अनुभागकाण्डक और हजारों स्थिति काण्डकघात होते हैं। जिससे कि अनुभागमें अनन्तगुणी हीनशक्तियुक्त अपूर्व स्पर्धकों की रचना हो जाता है। उसके अन्त समय तक स्थिति घटकर संचलनकी तो ८ वर्ष मात्र और शेष घातिया कर्मों को संस्थात वर्ष प्रमाण रह जाती है। अधातिमा कमों की स्थिति असंख्यात वर्ष मात्र रहती है । (क्रमशः) क्ष. सा. ५१० भावार्थ 1 (क्रमशः) अश्वकर्ण काल में क्षपक पूर्व व अपर्च स्पर्धकों का यथायोग्य वेदन भी करता है, अर्थात उन नवीन रचे गये स्पर्ध कों का उदय भी उसी काल में प्राप्त होता रहता है। अश्वग्रीव-म.प्र. १७/श्लो० नं. दूरवर्ती पूर्व भव में राजगृही के राजा विश्वभूतिके छोटे भाई विशारत्रभूतिका पुत्र विशास्वनन्दी था ॥७३॥ चिरकाल पर्यन्त अनेक योनियों में भ्रमण करनेके पश्चात पुण्यके प्रतापसे उत्तर विजयाध के राजा मयुरपौत के यहाँ अश्वयोव नामका पुत्र हुआ १८७-८८॥ यह वर्तमान युगका प्रथम प्रतिनारायण था-दे० शलाका पुरुष ५। अश्वत्थ-पीपल का वृक्ष । अश्वत्थामा-पा.पु. सर्ग/श्लो० गुरु द्रोणाचार्यका पुत्र था (१०/ १५०-५२)। कौरवों को ओरसे पाण्डवों के साथ लड़ा (१६/५३) । अन्तमें अर्जुन द्वारा युद्ध में मारा गया (२०११८४) । अश्वपति-कैकेय देशका राजा-ई०पू० १४५० । 1-अपर विदेहस्थ पद्मक्षेत्र की प्रधान नगरी-दे. लोक ५/२॥ अश्वमेघ दत्त-अर्जुन का दूसरा नाम-दे. अर्जुन । अश्विनी-एक नक्षत्र- दे. नक्षत्र । अश्विनी व्रत-वसु. श्रा. ३६६-३६७/भावार्थ- कुल समय१ वर्ष ; कुल उपवास-२८. विधि अश्विनी नक्षत्रमें व्रतविधिको प्रारम्भ करके आगे २७ नक्षत्रों में प्रत्येक अश्विनी नक्षत्रपर एक उपवास करे। अष्ट आयतन-दे. आयतन । अष्टदिगवलोकन-कायोत्सर्ग का एक अतिचार ।-दे. व्युत्सर्ग/। अष्ट द्रव्य पूजा-दे, पूजा। अष्ट पाहुड-दे. पाहुड़। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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