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अवधृत
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अवर्णवाद
अवधुत-अवधृत काल अनशन-दे अनशन । अवनिपाल-जैन हितपो/प नाथू राम-मगधका राजा। अवनीत-गगव शीय राजा था। इनका पुत्र दुविनीत आ. पूज्य पादका शिष्य था। तदनुसार इनका समय वि ५००-५३५ (ई ४४३४७८) आता है । (द.पा/प्र ३८/प्रेमी जो), (समाधितत्र/प्र १० ५.
जुगल किशोर), (म सि प्र१५/५ फूल चन्द)। अवपोड़क-भ,आ /मू. ४७४-४७८ आलोचणागुणदोसे कोई सम्म पि पण विज्जतो। तिब्वे हि गारवादिहि सम्म णालोचए खवए।४७४॥ णि महुर हिदयगम च पल्हादणिज्जमेगते । कोई तु पण्ण विज्जतओ वि णालोचए सम्म ॥४७६॥ तो उम्पीलेदव्या खवयस्सोप्पीलए दोसा से वोमेइ मसमुदरमिक गद सीहो जह सियाल ॥४७७॥ उज्जसी तेजस्सी बच्चस्सी पहिदकित्तियायरिओ। पज्जेइ घद माया तस्सेव हिद विचित ती ॥४७॥ - आलोचना करनेसे गुण और न करनेसे दोष की प्राप्ति होती है, यह बात अच्छी तरहसे समझानेपर भी कोई क्षपक तीव अभिमान या लज्जा आदिके कारण अपने दोष कहने में उद्य क्त नही होता है ॥४७४॥ स्निग्ध, कर्णमधुर व हृदयमें प्रवेश करनेवाला ऐसा भाषण बोलनेपरभो कोई क्षपक अपने दोषोकी आलोचना नहीं करता ॥४७६॥ तब अवपीडक गुणधारक आचार्य क्षपकके दोषो को जबरोसे बाहर निकालते है, जैसे सिह सियालके पेट में भी चला गया मास बमन करवाता है ॥४७७॥ उत्पीलक या अवपीडक गुण धारक आचाय ओजस्वी,बलवान् और तेजस्वी प्रतापवान होते है, तथा सबमुनियोपर अपनारौब जमानेवाले होते है।वेवर्चस्वी अर्थात प्रश्नका उत्तर देनेमें कुशल होते है, उनकी कीर्ति चारो दिशाओं मे रहती है। वे सिह समान अक्षोभ्य रहते है । वे किसीसे नही डरते। अवमान-दे प्रमाण/५ अवमौदर्य
१. अवमोदर्य तपका लक्षणमू आ मू ३५० बत्तोसा किरकब ला पुरिसस्स तु होदि पयदि आहारो। एगकवलादिहि ततो ऊणियगण उमोदरिय ॥३५॥ -पुरुषका स्वाभाविक आहार ३२ ग्रास है उसमें से एक ग्रास आदि कम करके लेना अवमौदर्य तप है। (रा.वा १/१६/३/६१८/२१) (त सा ७/६) (अन ध ७/२२/६७२) (भा पा/टी, ७८/२२२/३)। घ. १३/५,४,२६/५६/१ अद्धाहारणियमो अवमोदरियतवो। जो जस्स पयडिआहारी तत्तो ऊणाहारविसयअभिग्गहो अबमोदरियमिदि भणिदं होदि । -आधे आहारका नियम करना अवमौदर्य तप है। जो जिसका प्राकृतिक आहार है उससे न्यून आहार विषयक अभिग्रह (प्रतिज्ञा) करना अवमौदर्य तप है। भ आ/वि ६/३२/१७योगत्रयेण तृप्तिकारिण्या भुजिक्रियायो दर्पवाहिन्यां निराकृति अवमौदर्यम् । तृप्ति करनेवाला, दर्प उत्पन्न करनेवाला ऐसा जो आहार उसका मन वचन काय रूप तीनों योगोसे त्याग करना अवमौदर्य है। २. अवमौदर्य तपके अतिचार भ.आ /वि ४८७/७०७/५ रसबदाहारमतरेण परिश्रमो मम नापै ति इति वा । षड्जीव निकायबाधाया अन्यतमेन योगेन वृत्ति । प्रचुरनिद्रतया सक्लेश कमनर्थमिदमनुष्ठित मया, स तापकारीद नाचरिष्यामि इति सकरूप अवमौदर्यातिचार । मनसा बहुभोजनादर । परं बहुभोजयामोति चिन्ता। भुक्ष्व यावद्भवतस्तृप्तिरिति वचन, भुक्त मया बहिरयुक्त सम्यककृतमिति वा वचन, हस्तसज्ञया प्रदर्शनं कण्ठदेशमुपस्पृश्य । -रस युक्त आहारके बिना यह मेरा परिश्रम दूर न होगा, ऐसी चिन्ता करना, षट् काय जोवोको मन वचन काममें से किसी भी एक योगसे बाधा देनेमे प्रवृत्त होना । 'मेरे को बहुत निद्रा आती है,
और यह अनमौदर्य नामक तप मैने व्यर्थ धारण किया है, यह स क्लेशदायक है, स ताप उत्पन्न करनेवाला है, ऐसा यह तप तो मै फिर कभी भी न करूगा' ऐसा स कल्प करना-ये अवमौदर्य तपके अतिचार है। अथवा बहुत भोजन करने की मनमें इच्छा रखना, 'दूसरों को बहुत भोजन करनेमे प्रवृत्त करूंगा', ऐसा विचार रखना, 'तुम तृप्ति हाने तक भोजन करो' ऐसा कहना, यदि वह 'मैने बहुत भोजन किया है' ऐसा कहे तो 'तुमने अच्छा किया ऐसा बोलना, अपने गलेको हाथसे स्पर्शकर 'यहाँ तक तुमने भोजन किया है ना?' ऐसा हस्त चिह्नसे अपना अभिप्राय प्रगट करना-ये सब अवमौदर्य तपके अतिचार है।
३. अवमौदर्य तप किसके करने योग्य है ध.१३/५,४,२६/५६/१२ एसो वि तवो केहि दायव्यो। पित्तप्पकोवेण उपवास अक्रवमेहि अद्धाहारेण उववासादो अहियपरिस्समेहि सगतवो. माहप्पेण भठवजीबुवसमणवावदेहि वा सगकुविखकि मिउम्पत्तिणिरोहकरखुएहि वा अदिमत्ताहारभोयणेण वाहिवेयणाणमित्तेण सज्झायभगभीरुएहि वा। प्रश्न-यह तप किन्हे करना चाहिए । उत्तरजो पित्तके प्रकोपवश उपवास करने में असमर्थ है, उन्हे आधे आहारकी अपेक्षा उपवास करनेमे अधिक थकान आती है, जो अपने तपके माहात्म्यसे भव्य जीवोको उपशान्त करने में लगे है, जो अपने उदरमें कृमि की उत्पत्तिका निरोध करना चाहते है, और जो व्याधिजन्य वेदनाके निमित्तभूत अतिमात्रामें भोजन कर लेनेसे स्वाध्यायके भग होनेका भय करते है, उन्हे यह अवमौदर्य तप करना चाहिए।
४. अवमौदर्य तपका प्रयोजन मुआ ३५१ धम्मावासयजोगे णाणादीये उवग्गडं कुणदि । ण य इन्दियपदोसयरी उमोदरितबोवृत्ती १३५१॥-क्षमादि धोंमें, सामायिकादि आवश्यकोमें, वृक्षमूलादि योगों मेंतथा स्वाध्याय आदिमें यह अवमौदर्य तपकी वृत्ति उपकार करती है और इन्द्रियोंको स्वेच्छाचारी नहीं होने देती। स.सि १/१६/४३८/७ सजमप्रजागरदोषप्रशमसंतोषस्वाध्यायादिमुखसि
द्वयर्थमबमौदर्यम् । -सयमको जागृत रखने, दोषों के प्रशम करने, सन्तोष और स्वाध्यायादिको सुखपूर्वक सिद्धिके लिए अवमौदर्य तप किया जाता है। अवयवरावा./१६/६/१० अवयूयन्ते इत्यवयवाः। जो वस्तुके हिस्से कर देते है वे अवयव है। * अनुमानके पाँच अवयव-दे अनुमान * जल्पके चार अवयव-दे, जल्प * परमाणुका सावयव निरवयवपना-दे परमाणु * शरीरके अवयव-दे अगोपाग अवरोहक-दे अवतारक । । अवर्णवाद-स.सि/६/१३/३३१/१३ गुणवत्सु महत्सु असभूतदोषोद्भावनमवर्णवाद । - गुणवाले बडे पुरुषों में जो दोष नही है उनका उनमें उद्भावन करना अवर्ण वाद है यथारा.वा/६/१३/८-१२/५२४/१२ पिण्डाभ्यवहारजीविन' कम्बलदशानिहरणा' अलापात्रपरिग्रहा कालभेदवृत्तज्ञानदर्शना केवलिन इत्यादिवचनं केबलिष्ववर्णवाद । माममत्स्यभक्षणं मधुसुरापान वेदार्दितमैथुनोपमैवा रात्रिभोजन मित्येवमाद्यन वद्यमित्यनुज्ञानं श्रुतेऽवर्णवाद ॥६॥ एते श्रमणा शुद्रा अस्नानमल दिग्धाङ्गा अशुचयो दिगम्बरा निर पत्रपा इवेति दु ख मनुभवन्ति परलोकश्च मुषित इत्यादि वचन सोऽवर्गवाद ॥१०॥ जिनोपदिष्टो दशविकल्पो धर्मो निर्गण तदुपसे विनो ये चे तेऽसुरा भवन्ति इत्येवमाद्यभिधान धर्मावर्ण वादः ॥११॥ सुरा मांस चोपसेवन्ते देवा आहत्यादिषुचासक्तचेतस' इत्या
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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