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अवधिज्ञान
९ अवधिज्ञान विषयक प्ररूपणाएँ
सर्वत्र असुरकुमारके कालका असंख्या भाग
(विशेष देखो सामान्य नियम) सामान्य नियमके अनुसार स्व स्व योग्य द्रव्यभाव
ध १३/५,५,५६/३१०/४ एसो गाहत्यो देसोहीए जोजेयव्वा, ण परमोहीए। ३. भवनत्रिक देवोंमें देशावधिका विषय परमोहीर पुण द-ब-खेत्त-काल-भावाणमकमेण वुड्ढी होदि त्ति
(ध. १३/५,५१५६/सू. १०-११/३१४) (म ब. १/गा.६-१०/२२) ध.१/४.१, वत्तव्वा ।-काल चारों ही (द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव) वृद्धियोंके।
२/८/२५) (ति.प ३/१७७-१८१) (रा.वा, १/२१/७/८०/५) (ज.प.११/ लिए होता है । क्षेत्रको वृद्धि होने पर कालको वृद्धि हाती भी है और
१४०-१४१) (गो.जी /मू.४२६-४२६/८५०) । नहीं भी होती। तथा द्रव्य और पर्यायकी वृद्धि होनेपर क्षेत्र और कालको वृद्धि होती भी है और नही भी होती ॥८॥ (रा वा १/२२/४/
__ उत्कृष्ट क्षेत्र नाम |ज क्षेत्र
काल ८३/२१) (गो जी.जी.प्र. ४१२/८३६/११) । नोट- इस गाथाके अर्थ की
__ ऊपर | तिर्यक् नीचे देशावधिज्ञानमें योजना करनी चाहिए, परमावधिमें नहीं।. परमा- असुरकुमार २५ यो ऋजुधिमान असं. कोडा- स्वकीय असं वर्ष वधिज्ञानमें तो द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी युगपत् वृद्धि
का शिखर कोडी योजन अवस्थान होती है।
नागकुमारा- मेरुशिखर | असं.सहस्र | स्वकीय दि
योजन | अवस्थान ९. अवधिज्ञान विषयक प्ररूपणाएँ
८ प्रकार
स्वभवन- अस.को को. अस सहस्र | १. द्रव्य व भाव सम्बन्धी सामान्य नियम
व्यन्तर । शिखर । योजन | योजन १ पल्य आयु
१ लाख योजन (ति.प ६/६६) ध. १३/५,५,५६/गा. सूत्र ३/३०१ ओगाहणा जहण्णा णियमा दु मुहमणि
वाले व्यन्तर गोदजीवस्स । जहही तद्द ही जहणिया खेत्तदोओहो ।३।-सूक्ष्म १००० वर्षा-५ कोष सर्वत्र ५० कोश (ति प. 4/80) निगोदलब्ध्यपर्याप्तक जीवकी जितनी जघन्य अवगाहना होती है
युष्कव्यंतर उतना अवधिज्ञानका जघन्य क्षेत्र है।
ज्योतिषी २५xसं. स्वविमान असं को को असं.सहस्र रा वा १/२१/७/८०/२२ कालद्रव्यभावेषु कोऽवधिरिति। अत्रोच्यते
योजन | शिखर | योजन | योजन । यस्य याववक्षत्रावधिस्तस्य तावदाकाशप्रदेशपरिच्छिन्ने काल-द्रव्ये भवत.। तावत्सु समयेष्वतीतेष्वनागतेषु च ज्ञानं वर्तते, तावत्सख्यात
४. कल्पवासी देवोमें देशावधिका विषय भेदेषु अनन्तप्रदेशेषु पुद्गलस्कन्धेषु जीबेषु च सकर्मेषु । भावत स्व- (म ब १/गा सू/१११३/२२) (ध. १३/५५५५६/गा सू १२-१४/३१६विषयपुद्गलस्कन्धाना रूपादिविकल्पेषु जोवपरिणामेषु चौयिकौप- ३२२) (ध /गा १०-१२/२५) (ति प.८/६८५-६६०) (रा वा १/२१॥ शमिकक्षायोपशमिकेषु वर्तते। = प्रश्न-काल द्रव्य व भावो में क्या ७/८०/१३) (ह पु.६/११३-११७) (त्रि सा. ५२७) (गो जी /मू. ४३०अवधि होती है । उत्तर-जिस अवधिज्ञानका जितना क्षेत्र है उतने ४३६/८५२-८५६)। आकाश प्रदेशप्रमाण काल और द्रव्य होते है। अर्थात उतने समय
उत्कृष्ट क्षेत्र
उत्कृष्ट प्रमाण अतीत और अनागतका ज्ञान होता है और उतने भेदवाले
जघन्य क्षेत्र
| तिर्यक् नीचे । काल अनन्तप्रदेशी पुद्गलस्कन्धोके रूपादिगुणो में और (उत्तने ही कर्म स्कन्ध युक्त) जीवके औदयिक औपशमिक व क्षायिक भावोमे
नाम स्वर्ग
कथित स्थान अवधिज्ञानकी प्रवृत्ति होती है। नोट-- (सर्व ही प्ररूपणाओ में यह
कथित प्रमाण के अन्त तक अनागत सामान्य नियम द्रव्य व भाव व काल के सम्बन्धमें विशेषता जाननेके लिए लागू करते रहना)।
सौधर्म ईशान ज्योतिषदेव- . राजू रत्न प्रभा अस को.
का उत्कृष्ट २. नरक गतिमें देशावधिका विषय
सनत्कुमार
| ४ राजू
शर्कराप्रभा | पस्या (म. ब. १/गा, १४/२३) (ति. प २/१७२); (रा.वा. १/२१/७/८०/२७)
माहेन्द्र
असं ब्रह्म ब्रह्मोत्तर शर्करा प्र.
५. राजू बालुका (ह,पु.४/३४०-३४१) (ध.१३/५,५,५६/३२५-३२६) (गो.जी.मू.४२४/८४८)
लान्तव कापिष्ठ | बालुका राजू (त्रि.सा. २०२)
पकप्रभा | जघन्य उत्कृष्ट क्षेत्र
शुक्र महाशुक्र
८ राजू काल द्रव्यभाव शतार सहस्रार | क्षेत्र | ऊपर तिर्यक नीचे
आमत प्राणत कप्रभा
धूम्रप्रभा रत्नप्रभा
आरण अच्युत
| १० राजू शर्कराप्रभा
नव ग्रे वेयक धूम्रप्रभा
११ राजू तमप्रभा बालुकाप्रभा
नवअनुदिश | महातम प्र. कुछ अधिक | वातवलय 'कप्रभा
(ह पु ६११६) | १३ राजू रहित
लोकनाडी धूसप्रभा
पंच अनुत्तर | वातवलय
वातवलय तम.प्रभा
रहित कुछ कम सहित महातम.प्रभा ।
लोक नाडी १४ राजू | लोकनाडी
जस नालीमे कथितस्थान- अतीत व
द्रव्य व भाव
वर्ष
रत्नप्रभा
किाच
राजू
नाम
सर्वत्र अपने-अपने विमानके शिखर तक
सामान्य नियमके अनुसार स्व स्व योग्य
सर्वत्र अपने बिलके शिखर तक
सर्वत्र अस कोडाकोणी योजन
स्व स्व अन्तर्मुहूर्त (विशेष दे सामान्य नियम)
सामान्म नियमके अनुसार
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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