Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 211
________________ अवधिज्ञान ८. अवधिज्ञानकी विषय सीमा पर्याय विभंगज्ञानका कारण है. इसलिए अपर्याप्तकाल में विभंग ज्ञान नहीं होता है, यह बात सिद्ध हो जाती है। ध.१३/k.kk३/२६१/३ विहंगणाणस्सेब अपज्जत्तकाले ओहिणाणस्स पडिसेहो किष्ण कीरये। ण उप्पत्ति पडि तस्स वि तत्थ विहंगणाणस्सेव पडि सेहदं सगादो ।...| च तस्य ओहिणाणस्स'चंताभावो, तिरिक्वमणुस्सेसु सम्मत्तगुणेणुप्पण्णस्स तस्थावट्ठाणुवलंभा दो। ण विहंगणाणस्स एस कमो, तकारणाणु कंपादोणं तत्थाभावेण तदवट्ठाणाभावादो। -प्रश्न-विभंगज्ञानके समान अपर्याप्तकालमें अवधिज्ञानकानिषेध क्यों नहीं करते। उत्तर-नहीं क्योंकि, उत्पत्तिकी अपेक्षा उसका भी वहाँ विभंगज्ञानके समान ही निषेध देखा जाता ।...पर इसका यह अर्थ नहीं कि देवों और नारकियोंके अपर्याप्त अवस्थामें अवधिज्ञानका अत्यन्त अभाव है, क्योंकि तिर्यचों और मनुष्यों में सम्यक्त्व गुण के निमित्तसे उत्पन्न हुआ अवधिज्ञान देवों और नारकियों के अपर्याप्त अवस्था में भी पाया जाता है प्रश्न-विभंगज्ञानमें भो यह क्रम लागू हो जायेगा। उत्तर-यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अवधिज्ञानके कारणभूत अनुकम्पा आदिका अभाव होनेसे अपर्याप्तावस्थामें वहाँ उसका अबस्थान नहीं रहता। ८. अवधिज्ञानकी विषय सीमा १. द्रव्यको अपेक्षा रूपोको ही जानता है त.सू./१/२७ रूपिध्ववधेः ॥२७॥ -अवधिज्ञान की प्रवृत्ति रूपी पदार्थों में होती है। स. सि./१/२०/१३४/१० रूपिष्वेवावधेविषय निबन्धनो नारूपिष्विति नियमः क्रियते ।- 'रूपी' पदार्थों में ही अवधिज्ञानका विषय सम्बन्ध है अरूपी पदार्थों में नहीं, यह नियम किया गया है। (ध.१३१५,५, २१/२११/२) ध.६/४,१,३/१४/६ एसो त्रयदसदो मज्झदीवओ त्ति हेट्ठोवरिमोहीणाणेसु सव्वस्थ जोजेयधो ? एदेण दव्व परूवणा कदा। - यह रूपगत शब्द चं कि मध्य दीपक है, अतएव इसे अधस्तन . और उपरिम अवधिज्ञानों में ( अर्थात देशावधि, परमावधि व सविधि तीनोंमें ) जोड़ लेना चाहिए। इस व्यारम्यान द्वारा द्रव्य प्ररूपणा की गयी। नोट :---यहाँ रूपीका अर्थ पुद्गल ही न समझना बलिक कम शरोरसे बद्ध जोव द्रव्य व उसके संयोगी भाव भी समझना (दे, आगे। अवधिज्ञान/८/६) २. द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा अनन्तको नहीं जानता भ./४,१.२/२७/८ ण च ओहिणाणमुक्कास पि अणं तसंखावगमक्वं आगमे तहावदेसाभावादो। दबढियाण तपज्जाए पञ्चक्वेण अपरिच्छि दंतो ओही कधं पच्चक्वेण दव्वं परिछिदेज्ज । ण, तस्स, पज्जायावयवगयापंतसंखं मोत्तूग असंखेज्जपज्जायावयव विसिट्ठदव्वपरिच्छेदयत्तादो। - उत्कृष्ट भी अवधिज्ञान अनन्त संख्याके जाननेमें समर्थ नहीं है. क्यों कि, आगममें वैसे उपदेशका अभाव है। प्रश्न-द्रव्यमें स्थित अनन्त पर्यायाको प्रत्यक्षसे न जानता हुआ अवधिज्ञान प्रत्यक्षद्रव्यको कैसे जानेगा। उत्तर-नहीं. क्योंकि. अबधिज्ञान पर्यायोंके अवयवों में रहनेवाली अनन्त संरण्याको छोड़कर असंख्यात पर्यायावयवोंसे विशिष्ट द्रव्यका ग्राहक है। ३. क्षेत्रप्ररूपणाका स्पष्टीकरण ध. १/४,१,२/२३/१ जहणोहिणाणी एगोलिए चेच जागदि तेण ॥ सुत्तविरोहो त्ति के विभगति । णेदं पि घडदे. चविय दिपणाणादो वि तस्स जहण्णत्तप्पसंगादो । कुदो। चक्विदियणाणेण संखेजसूचिअंगुल विस्थारुस्सेहायामखेतम्भतरद्विदवत्युपरिच्छेददं सणादो, एदस्स जहणोहिखेत्तायामस्स असंखे जजोयणत्तवलं भादो च 1..ण च सो कुलसेल-मेरुमहीयर-भत्रणबिमाण दुपुढवी-देव-विज्जाहर-सरड-सरिस बावोणि विपेच्छइ, एदे सिमेगागासे अबढाणाभावादो। ण च तेसिमवयव पि जाणादि, अविण्णादे अवयविम्हि एदस्स एसो अवयवो त्ति णादुमसत्तीदो। जदि अकमेण सव्वं घणलोग जाणदि तो सिद्धो जो परतो, णिप्पडिवक्रवत्तादो । सहमणिगोदोगाहणाए धणपदरागारेण ठइदाए आगासविस्थाराणेगोलि चेव जाणदि ति के वि भणं ति । णेदं पिघडदे, जद्द मुहमणिगोदजहण्ण गाहणा तहे हे जहण्णोहि खेत्तमिदि भणं तेण गाहासुत्तेण सह विरोहादो। ण चाणेगोलीपरिच्छेदो छदुमत्थाणं विरुद्धो, चविखदियणाणेगोलिठियपोग्गल करवंदपरिच्छेदुबलं भादो-दृष्टि १. जघन्य अवधिज्ञानो एक श्रेणी को ही जानता है, अतएव सुत्र विरोध नहीं होगा, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं परन्तु यह भी घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा माननेपर चक्षु इन्द्रियजन्य ज्ञानकी अपेक्षा भी उसके जघन्यताका प्रसंग आवेगा। कारण कि चक्ष इन्द्रियजन्य ज्ञानसे संख्यात सुच्यं गुल विस्तार, उत्सेध और आयामरूप क्षेत्रके भीतर स्थित बस्तुका ग्रहण देखा जाता है। तथा बसा माननेपर इस जघन्य अवधिज्ञान के क्षेत्रका आयाम असंख्यात योजन प्रमाण प्राप्त होगा। इसके अतिरिक्त वह कुलाचल, मेरुपर्वत, भवनविमान, पाठ पृथिवियों, देव, विद्याधर, गिरगिट और सरीसृपादिकों को भी नहीं जान सकेगा, क्योंकि इनका एक आकाश (श्रेणी) में अवस्थान नहीं है। और वह उनके अवयवको भी नहीं जानेगा, क्योंकि, अवयवीके अज्ञात होनेपर 'यह इसका अवयव है' इस प्रकार जाननेको शक्ति नहीं हो सकती। यदि वह युगपद सब घनलोकको जानता है, तो हमारा पक्ष सिद्ध है. क्योंकि वह प्रतिपक्ष से राहत है। दृष्टि २. सूक्ष्म निगोद जीवको अवगाहनाको घनप्रतराकारसे स्थापित करनेपर एक आकाश विस्ताररूप अनेक श्रेणीको ही जानता है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। परन्तु यह भी घटित नहीं होता, क्योंकि ऐसा होनेपर जितनी सूक्ष्म निगोदकी जघन्य अवगाहना है उतना ही जघन्य अवधिका क्षेत्र है, ऐसा कहनेवाले गाथासूत्रके साथ विरोध होगा। और छद्मस्थों के अनेक श्रेणियों का ग्रहण विरुद्ध नहीं है, क्योंकि चक्षु इन्द्रियजन्यज्ञानसे अनेक श्रेणियों में स्थित पुदगलस्कन्धोंका ग्रहण पाया जाता है। ध.१३/५.६.५६/३०२-३०२/६ ण च एगोली जहण्योगाहणा होदि, समुदाए वकपरिसमत्तिमस्सिदूण तत्थतणसव्वागासपदेसाणं गहणादो।... एवं जहष्णोगाहणवखेत्तं एगागासपदेसोलीए रचेण तदंते हिद जहष्णदव्वं जाणदि त्ति किण्ण घेप्पदे। ण, जहण्णोगाहणादो असं खेञ्जगुणजहण्णोहिखेत्तप्पसंगादो। जं जहण्णोहिणाणेण अवरुद्धखेतं त' जहण्णोहिखेत्तं णाम ।... जत्तिया जहण्णोगाहणा तत्तियं चेब जहण्णो हिखेत्तमिदि मुत्तेण सह विरोहादो।...ण च ओहिणाणी एगागासगुचीए जाणदि त्ति बोत्तुं जुत्तं, जहण्णमदिणाणादो वि तस्स जहण्णत्तप्पसंगादो जहण्णव्य अवगमोबायाभावादो च। तम्हा अहण्णोहिणाणेण अबरुद्धखेत्तं सव्वमुचिणि दूण घणपदरागारेण दृइदे मुहमणिगोदअपज्जत्तयस्स जहण्णोगाहणप्पमाण होदि त्ति घेतब्बं । जहण्णोहिणिबंधणस्स खेत्तस्स को विवरवं भो को उस्सेहो को या आयामो त्ति भणिदे णरिय एस्थ उबवेसो, किंतु ओहिणिमयखेत्तस्स पदरघणागारेण टुइदस्स पमाणमुस्सेहधणं गुलस्स असंखेज्जदिभागो ति उबएसो ।-एक आकाश पंक्ति जघन्य अवगाहना होती है, यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, समुदाय रूपमें वाक्यकी परिसमाप्ति इश है । इसलिए सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीव की अवगाहनामें स्थित सम आकाश प्रदेशों का ग्रहण किया है।...प्रश्न--- इस जघन्य अवधिज्ञानके क्षेत्रको एक आकाशप्रदेशपंक्तिरूपसे स्थापित करके उसके भीतर स्थित जघन्य द्रव्यको जानता है, ऐसा यहाँ क्यों नहीं ग्रहण करते ? उत्तर-नहीं. क्योंकि ऐसा ग्रहण करनेपर जघन्य अवगाहनासे असंख्यातगुणे जघन्य अवधिज्ञान के क्षेत्रका प्रसंग प्राप्त होता है। जो जघन्य अवधिज्ञानसे अबरुद्ध क्षेत्र है वह जघन्य अवधिज्ञानका क्षेत्र कहलाता है। किन्तु यहाँ पर वह जघन्य अवगाहनासे असंख्यात जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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