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मत्पबहुल
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३. प्रकीर्णक प्ररूपणाएँ
दुगुना
दूना
विषय अल्पबहत्व विशेष
विषय
अरु"बहुत्व । विशेष अन्यतम ईहा
विशेषाधिक
६ नोकपाय ब ध काल की अपेक्षाधृतज्ञान
(क पा ३/३,२२/६३८६-३८७/पृ २१३) - श्वासोच्छ्वास
विशेषाधिक
उच्चारणाचार्य की अपेक्षा चारों गतियोंमें अन्य आचार्यों सशरीर केवली का केवल ज्ञान
सोपसर्ग उपरोक्त का दर्शन
ऊपर तुल्य
की अपेक्षा मनुष्य व तियेंच में
केवली शुक्ल लेश्या सा.
पुरुष वेद
__स्ताक (संदृष्टि) एकत्व वितक अविचार ध्यान
विशेषाधिक अपेक्षा स्त्री वेद
। स गुणा पृथक्त्व वितर्क विचार ध्यान
दुगुना
हास्य रति अवरोहक सू सम्पराय
विशेषाधिक
अरति शोक आरोहक ,
ना सक वेद
} विशेषाधिक ४२ ,
अन्य आचार्यों की अपेक्षा शेष नरक व देव मे क्षपक मान कषय सस
पुरुष वेद
सा | स्तोक (सदृष्टि) क्रोध . .
विशेषाधिक स्त्री वेद
सं. गुणा
। माया ,
हास्य रति
विशेषाधिक ११ .. लोभ ,
नपुमक वेद
सं गुणा २२ ॥ क्षुद्र भव
अरति शोक
विशेषाधिक २३ ॥ कृष्टि करण
७ मिथ्याव काल विशेष की अपेक्षासंक्रामक
(ध १०/४,२,४,६२/२८४) अपवर्तना
देवगति में जन्म धारनेवाले के
स्तोक उपशान्त कषाय
मनुष्य गति में उत्पत्ति योग्य
स गुणा क्षीण मोह
विशेषाधिक
तिर्यच संज्ञी पचेन्द्रियमें उत्पत्ति योग्य उपशमक
दुगना
तियंच अमंज्ञी ५ चेन्द्रियमें उत्पत्ति क्षपक
विशेषाधिक
योग्य ४. उपशमन व क्षपण काल की अपेक्षा
चतुरिन्द्रियमें उत्पत्ति योग्य
त्रोन्द्रियमे उत्पत्ति योग्य (कपा ४/३,२२/६६१६-६२६/३२६-३२८)
द्वीन्द्रियमें उत्पत्ति योग्य चारित्र मोह :
एकेन्द्रिय बा में उत्पत्ति योग्य क्षपक अनिवृत्ति करण
स्तोक
एकेन्द्रिय मू मे उत्पत्ति योग्य अपूव .
सं गुणा उपशामक अनिवृत्ति करण
८. जीवोके योग स्थानोकी अपेक्षा अल्पबहुत्व प्ररूपणाएं ., अपूर्व करण
लक्षण-उपाद याग-जा उत्पन्न होनेके प्रथम समय में एक समय मात्र दर्शन मोह :
के लिए हो। क्षपक अनिवृत्ति करण
एकान्तानुवृद्धि योग - जो उत्पन्न होने के द्वितीय समयसे लेकर ... अपूर्व ..
शरीर पर्याप्तिसे अपर्याप्त रहनेके अन्तिम समय तक निवृत्त्यअनन्तानुबन्ध विसयोजक का
पर्याप्तकोमे रहता है । लब्ध्यपर्याप्तको के आयु बन्धके योग्य अनिवृत्ति करण
काल में अपने जीवितके त्रिभागमें परिणाम योग होता है । उपरोक्त अपूर्व करण
उससे नीचे एकान्तानुवृद्धि योग होता है। इसका जघन्य उपशामक अनिवृत्ति करण
व उत्कृष्ट काल एक समय है।
परिणाम योग- पर्याप्त होनेके प्रथम समयसे लेकर आगे जीवन, अपूर्व
पर्यन्त सब जगह परिणाम योग ही होता है। निवृत्यपर्याप्तके ५ कषाय काल की अपेक्षा
परिणामयोग नहीं होता। (गो. जी./जी. प्र./२६६/६४०)
(ध १०/४२,१७३/४२८-४२१), (दे. अल्पबहुत्व/३/११/७/३) नरक गति:
नोट-गुण कार सर्वत्र पत्य/असं.जानना (ध १०/पृ.४२०) लोभ
सा० स्तोक अन्तर्म. माया सं. गुणा
स्वामी
| अल्पबहुत्व मान कोध
१ योग सामान्यके यव मध्य कालको अपेक्षादेवगति :
(ष खं.१०/४,२,४/सु २०६-२१२/५०३-५०४) क्रोध स्तोक अन्तर्मु २०६६ मध्य स्थान ८ समय योग्य
सर्वत स्तोक मान
स.गुणा २०७ दोनो पार्श्वभागों में
परस्पर तुल्य माया
७ समय योग्य
असं. गुणे लोभ
१२०८६ समय योग्य
योग
११
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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