Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 1
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 206
________________ अदधिज्ञान १९. ४. अवधिज्ञानमे इन्द्रिय द मनके निमित्त अवधिज्ञान के प्रत्यक्ष द्वारा उस प्रकारको वस्तु के जाननेको शक्तिका अभाव है। उत्तर-नहीं, क्योंकि अवधिज्ञानमें प्रत्यक्षरूपसे वर्तमान समस्त पर्याय विशिष्ट वस्तुका ज्ञान पाया जाता है, तथा भूत और भावी असंख्यात पर्याय विशिष्ट वस्तुका ज्ञान देखा जाता है। प्रश्न-इस प्रकार माननेपर भी अवधिज्ञानसे पूर्ण वस्तुका ज्ञान नहीं होता है, इसलिए, अवधिज्ञानके प्रत्यक्षपरोक्षात्मक्ता प्राप्त होती है। उत्तर - नहीं क्योंकि, व्यवहारके योग्य, एवं द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक, इन दोनों नामों के समूहरूप वस्तुमें अवधिज्ञामके प्रत्यक्षता पायी जाती है। प्रश्न-अवधिज्ञान अनन्त व्यंजन पर्यायौंको नहीं ग्रहण करता है. इसलिए वस्तुके एकदेशका जाननेवाला है। उत्तरऐसा भी नहीं जानना चाहिए, क्योंकि, व्यवहार नयके योग्य व्यजनपर्यायों की अपेक्षा यहाँगर वस्तुल्य माना गया है। यदि कहा जाय कि मतिज्ञानका भी यही क्रम मान लेंगे, सो नहीं माना जा सकता, क्योंकि मतिज्ञानके वर्तमान अशेष पर्याय विशिष्ट वस्तुके जाननेकी शक्तिका अभाव है. तथा मतिज्ञान के प्रत्यक्षरूपसे अर्थ ग्रहण करनेके नियमका अभाव है। ध.१३/५.६,२१/२११/३ अवध्याभिनिवोधिज्ञानयोरेकत्वम,ज्ञानत्वं प्रत्यविशेषादिति चेत-न प्रत्यक्षाप्रत्यक्षयोरनिन्द्रियजेन्द्रियजयोरेक्त्वबिरोधात । ईहादिमतिज्ञानस्याप्यनिन्द्रियजत्वमुपलभ्यत इति चेव-न, द्रज्यार्थिक नये अवलम्ब्यमाने ईहाद्यभावतस्तेषामनिन्द्रियजत्वाभावाद नै गगनये अवलम्ब्यमानेऽपि पारम्पर्येणेन्द्रियअत्वोपलम्भाच्च । प्रत्यक्षमाभिनिबोधिकज्ञानम्, तत्र वैशद्योपलभादवधिज्ञानवदिति चेत-न, ईहादिषु मानसेषु च वैशद्याभावात् । न चेदं प्रत्यक्षलक्षणम, पञ्चन्द्रियविषयावग्रहस्थापि विशदस्यावधिज्ञानस्येव प्रत्यक्षतापत्ते । अवग्रहे वस्त्वेकदेशी विशद चेत-न, अवधिज्ञानेऽपि तदविशेषात् । ततः पराणीन्द्रियाणि आलोकादिश्च, परेषामायत्तज्ञान परोक्षम् । तदन्यवप्रत्यक्षमित्यङगीकर्तव्यम् ।-प्रश्न-अबधिज्ञान और आभि निमोधिक (मति) ज्ञान ये दोनों एक हैं, क्योंकि, ज्ञान समान्यकी अपेक्षा इनमें कोई भेद नहीं। उत्तर-नहीं, क्योकि अवधिज्ञान प्रत्यक्ष है और अभिनिबोधिक ज्ञान परोक्ष है,तथा अवधिज्ञान इन्द्रिय जन्य नहीं है और अभिनिबोधिक ज्ञान इन्द्रियजन्य है, इसलिए इन्हें एक मानने में विरोध आता है। प्रश्न-ईहादि मतिज्ञान भी अनिन्द्रियज उपलब्ध होते है । उत्तर-नहीं, क्योंकि द्रव्याथिक नयका अवलम्बन लेनेवर ईहादि स्वतन्त्र ज्ञान नहीं है इसलिए वे अनिन्द्रियज नहीं ठहरते। तथा नैगम नयका अवलम्बन लेनेपर भी वे परम्परासे इन्द्रियजन्य ही उपलब्ध होते है। प्रश्न-आभिनिबोधिक ज्ञान प्रत्यक्ष है, क्योकि उसमें अवधिज्ञानके समान विशदता उपलब्ध होती है । उत्तर-नहीं. क्योंकि, इहादिकों में और मानसिक्ज्ञानोमें विशदताका अभाव है। दूसरे यह विशदता प्रत्यक्ष का लक्षण नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेपर पंचेन्ट्रिय विषयक अवग्रह भी विशद होता है. इसलिए उसे भी अवधिज्ञानकी तरह प्रत्यक्षता प्राप्त हो जायगी। प्रश्न-अवग्रहमें वस्तुका एकदेश विशद होता है। उत्तर -नहीं, क्योंकि, अवधिज्ञान में भी उक्त विशदतासे कोई विशेषता नहीं है, अर्थात इसमें भी वस्तुकी एक्देश विशदता पायी जाती है। इसलिए 'पर' का अर्थ इन्द्रियाँ और आलोक आदि है,और पर अर्थात इनके अधीन जो ज्ञान होता है वह परोक्ष ज्ञान है। तथा इससे अन्य ज्ञान प्रत्यक्ष है, ऐसा यहाँ स्वीकार करना चाहिए । ४. अवधिज्ञानमें इन्द्रियों व मनके निमित्तका सद्भाव व असद्भाव । १. अवधिज्ञान में कथंचित मनका सद्भाव पं.ध/HARE देशप्रत्यक्ष मिहाप्यवधिमन पर्यये च यज्ज्ञानम् । देश नोहन्द्रियमन उत्थात् प्रत्यक्षमितरनिरपेक्षात् ॥६॥ -अवधिमनापर्ययरूप जो ज्ञान है वह देशप्रत्यक्ष है क्योंकि वह केवल अनि न्द्रियरूप मनसे उत्पन्न होनेके कारण देश तथा अन्य बाह्य पदार्थों की अपेक्षा न रखने से प्रत्यक्ष कहलाता है। १. अवधिज्ञानमें मनके निमित्तका अभाव अष्टशती/का./निर्णयसागर मम्बई--"आरमनमैवापेक्ष्येतानि श्रीणि ज्ञानानि उत्पद्यन्ते । न इन्द्रियानिन्द्रियापेक्षा तत्रास्ति । उक्तंचअतएवाक्षानपेक्षाठजनादिसंस्कृतचक्षुषो यथालोकानपेक्षा।"- अबधि, मन पर्यय व केवल ये तीनों ज्ञान औरमाकी अपेक्षा करके ही उत्पन्न होते है। तहाँ इन्द्रिय या अनिन्द्रियकी अपेक्षा नहीं होती। कहा भी है- "जिस प्रकार अंजन आदिसे संस्कृत आँख आलोकादिसे निरपेक्ष ही देखती है, सी प्रकार में तीनों ज्ञान भी इन्द्रियोंसे निरपेक्ष ही जानते हैं। अष्टसहस्री/पृ.५०/निर्णयसागर सम्बई-"म हि सर्वार्थव सकृद सम्बन्धः सम्भवति साक्षात्परम्परया वा। ननु, चावधिमन' पर्वयज्ञानिनोर्देशतो विरतव्यामोहयोः असर्वदर्शन' क्थमक्षानपेक्षा संलक्षणीया। तदावरण क्षयोपशमातिशयवशास्वविषमेपरिस्फुरत्वाव इति नमः।" -इन ज्ञानों में साक्षात या परम्परा रूपसे किसी भी प्रकार इन्द्रियोंका सम्बन्ध सम्भव नहीं है । प्रश्न-अवधि व मन पर्ययज्ञानियोंको जो कि केवल एकदेश रूपसे मोहसे छूटे है तथा असर्वदर्शी है. इन्द्रियोंसे निरपेक्षपना कैसे कहा जा सकता है। उत्तर-क्योंकि अपने आवरण कर्मके क्षयोपशमके कारण ही वे अपने-अपने विषयमें परिस्फुरित होते हैं । इसलिए एसा कहा है। गो.जी//४४६/८६३ "ईदियणोइंदियजोगादि पेविसतु उजमदी होदि । णिरवेक्विय बिउलमदी ओहि वा होदि णियमैण ४४" -ऋजुमति ज्ञान तो स्व व परके इन्द्रिय, मन व योगोंकी सापेक्षतासे उत्पन्न होता है, परन्तु विपुलमति व अवधिज्ञान नियमसे इनकी अपेक्षा रहित है। ५. अवधिज्ञानके उत्पत्ति स्थान व कर १. देशावधि गुणप्रत्ययज्ञान फरण चिह्नोंसे उत्पन्न होता है और शेष सब सर्वांगसे होते हैं ध १३/५.५,५६/२४/२६५ णेरड्य-देव-तित्थयरोहियखेत्तस्सबाहिर एवे। जाणं ति सव्वदो खलु सेसा देसेण जाणंति । सेसा देसेण जाणं तिति एस्थ णियमो ण कायव्बो, परमोहिसव्वो हिणाणगण हराणं सगसव्वावयवेहि सगविसईभदस्यस्स गहणुवलंभादो । तेण सैसा देसेण सम्बदो च जाण ति त्ति घेत्तव्यं । नारकी, देव और तीर्थकर इनवा जो अवधिक्षेत्र है उसके भीतर ये सर्वागसे जानते हैं और शेष जीव शरीरके एकदेशसे जानते हैं ॥२४॥ शेष जीव शरीरके एक देशसे जानते हैं, इस प्रकारका यहाँ नियम नहीं करना चाहिए, क्योंकि परमाव धिज्ञानी और सविधिज्ञानी गणधरादिक अपने शरीरके सब अवयवोंसे अपने विषयभूत अर्थको ग्रहण करते हुए देखे जाते हैं। इसलिए शेष जीक शरीरके एकदेशसे और सर्वांगसे जानते हैं. ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। पं.स./स /१/१५८ तीर्थ कृच्छ्वाभ्रदेवानां सर्वागोस्थोऽवधिर्भवेद । नृतिरश्ा तु शाखाब्जस्वस्तिकाद्यङ्गचिहजम् ॥१५८० -तीर्थकर, नारकी व देवोंको अवधिज्ञान सर्वांगसे उत्त्पन्न होता है। तथा मनुष्यों व तिर्यचोंको शरीरवर्ती शंख कमल व स्वस्तिक आदि करण चिहॉस उत्पन्न होता है । (गो.जी./मू./३७१/७६८) २. करण चिह्नोंके आकार प.ख.१३/५४/सू.५७-५८/२९६ खेत्तदो ताव अणेयसंठाणसंविदा सिरिवच्छ-कलस-सख सोस्थिय-दावत्तादीणि संठाणाणि णादव्याणि भवति ॥५८॥-क्षेत्रकी अपेक्षा शरीरप्रवेश अनेक संस्थान संस्थित होते हैं ॥२७॥ श्रीवत्स, कलश, शंख, साथिया, और नम्दावर्त आदि आकार जानने योग्य है ।५८॥ (आदि शब्द से अन्य संस्थानोका ग्रहण होता है) (रा.वा./१/२२/४/८३/२५) पर जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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