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अनविज्ञान
परुविदो तेण तथ अंतोमुहुतो होदि । एत्थ पुण ओहिणाण विसेसेण अहिया, रोग एक्कम्हि ओहिणाणविसेसे एगसमयमस्मि निदिय समए बड्ढीए हाणीए वा णाणतरमुवगयस्स एगसमओ लब्भदे । एवं दोतिणि समए आदि| काढूण जाव समऊणावलिया प्ति तात्र एवं चैव परणा कायवा । कुदो दो तिणिआदिसमए अच्छिदूण वि ओहिणाणस्स वड्ढिहाणीहि णानंतरगमणं संभरदि । वह (एक समय ) किसी भी अवधिज्ञानका अवस्थानकाल होता है, क्योंकि, उत्पन्न होनेके दूसरे समय में ही विन हुए अवधिज्ञानका एक समय काल उपलब्ध होता है। प्रश्न- जीवस्थान आदि (काल प्ररूपणा) में अवधिज्ञानका जघन्यकाल अन्तर्मुहुर्त कहा है। उसके साथ यह सूत्र कैसे विरोधको प्राप्त नहीं होता 'उत्तर- यह कोई दोष नहीं है, क्योकि, अवधिज्ञान सामान्य और अवधिज्ञान विशेषका अवलम्बन लिया गया है । यत जोवस्थानमें सामान्य अवधिज्ञानका काल कहा गया है, अत वहाँ अन्तर्मुहुर्त मात्र काल होता है किन्तु यहाँ पर अवधिज्ञान विशेषका अधिकार है. इसलिए एक अवधिज्ञानविशेषका एक समय काल तक रहकर दूसरे समय में वृद्धि या हानिके द्वारा ज्ञानान्तरको प्राप्त हो जानेपर एक समय काल उपलब्ध होता है। इसी प्रकार दो या तीन आदि समयसे लेकर एक समय कम आवली काल तक इसी प्रकार कथन करना चाहिए, क्योंकि, दो या तोन आदि समय तक रहकर भी अवधिज्ञानकी वृद्धि और हानिके द्वारा ज्ञानान्तर रूप से प्राप्ति सम्भव है ।
३ अवधि, मति व भुतज्ञानमें अन्तर
ध. ६/९.६ - १,१४/२६ / १ मदिसुदणाणेहिंतो एदस्स साबहियतेण भेदाभाना पुपवर्ण निरत्यम यिदि च ण एस दोसो मदिदणाणाणि पाहणं व तेण सहितो तस्स भेमलभा मदिणाण पि पञ्चक्ख निस्सदीदि चे ण, मदिणाणेण पश्ञ्चक्खं वत्थुस्स अणुलभा । = प्रश्न - अवधि अर्थात् मर्यादा सहित होनेकी अपेक्षा अनविज्ञानका मतिज्ञान और ज्ञान इन दोनोंसे कोई भेद नहीं है, इसलिए इसका पृथक् निरूपण करना निरर्थक है ? उत्तर- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, मतिज्ञान और सहान परोक्षज्ञान है। किन्तु अवधिज्ञान तो प्रत्यक्षज्ञान है । इसलिए उक्त दोनों ज्ञानोंसे अवधिज्ञानके भेद पाया जाता है। प्रश्न- मतिज्ञान भी तो प्रत्यक्ष दिखलाई देता है उत्तर-नहीं, क्योंकि, मतिज्ञानसे वस्तुका प्रत्यक्ष उपलम्भ नहीं होता । (विशेष दे, आगे अवधिज्ञान ३)
४. अवधि व मन:पर्यय ज्ञानमें अन्तर
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त. सु. १/२२ विवामिविषयेभ्योऽवधियन पर्यययो विशुद्धि क्षेत्र स्वामी और विषयकी अपेक्षा अवधिज्ञान और मन पर्ययज्ञानमें भेद है । (त सा. १/२६/२६)
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रामा ६/१०/११ / ५१६ / ३ मन पर्ययज्ञानं स्वविषये अवधिज्ञानमस् न स्वमुखेन वर्तते तर्हि परकीयमन प्रणालिकया। ततो । कथं । यथा मनोऽतीतानागतानर्थाश्चिन्तयति न तु पश्यति । तथा मन.. पर्ययज्ञान्यपि भूतभविष्यन्तौ वेत्ति न पश्यति । वर्तमानमपि मनोविषयविशेषाकारेव प्रतिपद्यते मन पर्मज्ञान अवधिज्ञानकी तरह स्वमुखसे विषयोंको नहीं जानता, किन्तु परकीय मन प्रणाली से जानता है । अत मन जैसे अतीत और अनागत अर्थोंका विचार चिन्तन तो करता है. देखता नहीं है, उसी तरह मन पर्ययहानी भी भूत और भविष्यको जानता है, देखता नहीं वह वर्त मान भी मनको विषयविशेषाकारमे जानता है ।
घ. ६/१.६-१.९४ / २६/१ बाहमणवाणा को निउ— मणपज्जनणार्थ बिजिमचर्य, ओहिमा पूरा भवश्चय गुणचयं मवि ओहिणाम पुण ओहि दंसणपुत्र । एसो तेसि विसेसो । प्रश्न- अवधिज्ञान और मन. - पर्यज्ञान इन दोनो का भेद है उत्तर-नम पर्ययज्ञान विशिष्ट
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२. अवधिज्ञान निर्देश
संयमके निमित्तसे उत्पन्न होता है, किन्तु अवधिज्ञान भषके निमित्तसे और गुण अर्थात् क्षयोपशमके निमित्तसे उत्पन्न होता है । मन:पर्ययज्ञान तो मतिपूर्वक ही होता है कि अवधज्ञान अि दर्शनपूर्वक होता है यह उन दोनोंमें भेद है।
५. अवधि ज्ञानसे मनःपथ विशुद्ध क्यों
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१/२४/१/०६/१६म्मतम् अवधिज्ञानान्मन पर्योऽनिशुद्धरः । कुछ उपद्रव्यविषयत्वादयः सर्वानभिगो मन:पर्ययमिति न कि कारण नात्या [कॉ] [] महूनि शास्त्राणि व्याचष्ट एकदेशेन न साकश्येन गतमर्थ शक्नोति हूं, अपररत्येकं शाख साकम्येन व्यायामस्त स्यार्थास्तान् सर्वान् शक्नोति वक्तुम अयं पूर्वस्माद्विशुद्धतर विज्ञानो अर्थात तथा अधिज्ञानविषयानन्तभागमनतर यतस्तमनन्तभागं रूपादिभिर्बहुभि पर्यायैः प्ररूपयति । प्रश्न- अवधिज्ञानकी अपेक्षा मन:पर्ययज्ञान अविशुद्धतर है, क्योंकि उसका द्रव्य विषय अल्प है। जैसे कि कहा भी है कि सर्वावधिके पीव्यका अनन्त भाग मनपर्ययका विषय है। उत्तर-नहीं, क्योंकि यह उस अपने विषयभूत द्रव्यको बहुत पर्यायोंको जानता है। जेसे कोई महुत-से शाखाको एक देशरूपसे जानता है परन्तु साम्यरूपसे उसको कहने में समर्थ नहीं है और दूसरा कोई केवल एक ही शास्त्रको जानता है परन्तु साकल्यरूपसे जितना कुछ भी उसके द्वारा प्रतिपादित अर्थ है उस सर्वको महमें समर्थ है। तुम यह पहलेकी अपेक्षा विद्युतर विज्ञान समझा जाता है। इसी प्रकार ज्ञानविषयका अनन्त भाग भी मन पर्ययज्ञान वितर हे क्योंकि उस अनन्तमे भाग को बहुत अधिक पर्यायको प्ररूपित करता है
६. मोक्षमार्ग अवधि व मन:पर्यय का कोई मूल्य नहीं रा.वा. २/१/२/२/५२] केवलस्य पूर्वोपदेशाद केवलज्ञानकी उत्पत्ति पूर्ववर्ती पूर्ण द्वादशांग श्रज्ञानरूप कारणसे होती हुई मानी है (भाषाकार केवलज्ञानमें अयुपयोगी ज्ञान है. अवधि मन पर्याय नही है।)
पं.पू. ९१ अपि चात्मस सिद्धार्थ नियतं हेतु मतिज्ञाने प्रात्य
बिना स्वान्मोक्षो न स्याते मति २०१६-रमाकी सिद्धिके लिए मतिश्रुतज्ञान निश्चित कारण हैं क्योंकि अन्तके दो ( अवधि में मनापर्यय)] ज्ञानोंके बिना मोक्ष हो सकता है. किन्तु मति भूतानके बिना मोक्ष नहीं हो सकता रहस्यपूर्ण चिट्ठी "इस अनुभव मतिज्ञान व ज्ञान ही है, अन्य कोई ज्ञान नहीं ।" ७. पंचम कालमें अवधि व मनःपर्यय सम्भव नहीं म.पू. ४९/०६ परिवेयोपरतस्य यतमानो निशामनाथ गोस् तपोभृत्सु समन पर्योऽवधि ॥७६॥ - ( भरतके स्वप्नोंका फल बठाते हुए भगवाद कहते है। परिमण्डलसे घिरे हुए चन्द्रमाको देखने से यह जान पड़ता है कि पंचमास मुनियोंमें अवधिज्ञान व मन:पर्ययज्ञान नहीं होगा ।
८. पंचम कालमें भी कदाचित् अवधिज्ञान सम्भव है वि.प. ४/१५१०-१५१० दा पिठामं समा कालो म अठरा पि गत महिना उप्पल एनकम्मि ४१६१२४] व्ही पहि एक दुस्समसारस ओहिया पि संधायचा योगा का ११०० आचारधरो पद २७५ वर्ष व्यतीत होनेपर बक्की नरपतिको पट बाँधा गया का ११५१०६ वह काफी मुनियोंके आहारमें से भी अग्रपिंडको शुल्क (के रूपमें) माँमले लगा ॥ १५१९ ॥ तब श्रमण अग्रपिंडको देकर और 'यह अन्तरायोंका काल है' ऐसा समझकर [निराहार] चले जाते हैं। उस समय उनमेंसे किसी एकको अवधिज्ञान उत्पन्न हो जाता है | १५१२ | इस प्रकार
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