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६. अवधिज्ञानके भेदोंसम्बन्धी विचार
अवधिज्ञान
२. क्या भवप्रत्ययमें ज्ञानावरणका क्षयोपशम नहीं है स सि १/२१/१२५/७ भव' प्रत्ययोऽस्य भवप्रत्यय । -यद्यब तत्र
क्षयोपशमनिमित्तत्वं न प्राप्नोति। नैष दोष', तदाश्रयात्तत्सिद्ध । भव प्रतीत्य क्षयोपशम सजायत इति कृत्वा भव प्रधानकारणमित्युपदिश्यते । यथा पतत्रिणो गमनमाकाशे भवनिमित्तम् । न शिक्षागुणविशेष', तथा देवनारकाणां व्रतनियमाद्यभावेऽपि जायत इति भवप्रत्यय ' इत्युच्यते। इतरथा हि भव' साधारण इति कृत्वा सर्वेषामविशेष' स्यात् । इष्यते च तत्रावधे प्रकर्षाप्रकर्षवृत्ति । -जिस अवधिज्ञानके होनेमें भव निमित्त है वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान है । प्रश्न-यदि ऐसा है तो अवधिज्ञानके होने में क्षयोपशमकी निमित्तता नहीं बनती! उत्तर-यह कोई दोष नही है, क्योकि, भव के आश्रयसे क्षयोपशमकी सिद्धि हो जाती है। भवका आलम्बन लेकर क्षयोपशम हो जाता है ऐसा समझकर भव प्रधान कारण है ऐसा उपदेश दिया जाता है। जैसे पक्षियोंका आकाशमें गमन करना भवनिमित्तक होता है, शिक्षा गुणकी अपेक्षासे नहीं होता वैसे ही देव और नारकियोंके व्रत नियमादिकके अभावमें भी अवधिज्ञान होता है, इसलिए उसे भव निमित्तक कहते है। यदि ऐसा न माना जाय तो भव तो सबके साधारण रूप पाया जाता है, अत सबके एक-सा अवधिज्ञान प्राप्त होगा। परन्तु वहाँपर अवधिज्ञान न्यूनाधिक कहा ही जाता है। इससे जाना जाता है कि वहॉपर अवधिज्ञान होता तो क्षयोपशमसे ही है, पर वह क्षयोपशम भवके निमित्तसे प्राप्त होता है, अत उसे 'भवप्रत्यय' कहते है। (रा वा१/२१/३-४/७४/१२) ३. भव प्रत्यय है तो भवके प्रथम समय ही उत्पन्न
क्यों नहीं होता ध.१३/५,५,५२/२६०/६ जदि भवमेत्तमोहिणाणस्स कारणं होज्ज तो देवेसु णेरइएसु वा उप्पणपढमसमए ओहिणाण किण्ण उपज्जदे । ण एस दोसो, ओहिणाणुप्पत्तीए छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदभवग्गहणादो। = प्रश्न-यदि भवमात्र ही अवधिज्ञानका कारण है, तो देवो
और नारकियोमें उत्पन्न होनेके प्रथम समय में ही अवधिज्ञान क्यों नहीं उत्पन्न होता1 उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि छह पर्याप्तियोंसे पर्याप्त भवको ही यहाँ अवधिज्ञानको उत्पत्तिका कारण माना गया है। ४. देव नारको सम्यग्दृष्टियोंके ज्ञानको भवप्रत्यय कहे
कि गुणप्रत्यय घ १३/५,५.५३/२६०/६ देवणेरइयसम्माइट्ठोसु समुप्पण्णोहिणाणं ण भवपच्चइयं, सम्मत्तेण विणा भवादो चेव ओहिणाणस्साविब्भावाणुवल भादो। ण एस दोसो, सम्मतेण विणा वि मिच्छाइट्ठोसु पज्जत्तयदेसु ओहिणाणुप्पत्तिद सणादो। तम्हा तत्थतणमोहिणाण भवपच्च इयं चेव । प्रश्न-देव और नारको सम्यग्दृष्टियों में उत्पन्न हुआ अवधिज्ञान भवप्रत्यय नहीं, क्योंकि, उनके सम्यक्त्वके बिना एकमात्र भवके निमित्तसे ही अवधिज्ञानकी उपलब्धि नहीं होती। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि, सम्यक्त्व के बिना भी पर्याप्त मिथ्याष्टियोके अवधिज्ञानकी उत्पत्ति देखी जाती है, इसलिए वहाँ उत्पन्न होनेवाला अवधिज्ञान भवप्रत्यय ही है। ५. सभी सम्यग्दृष्टि आदिकोको गुणप्रत्यय ज्ञान उत्पन्न ___ क्यों नहीं होता घ १३/५,५४५३/२४२/१ जदि सम्मत्त-अणुव्वदमहव्वदेहित्तो ओहिणाणमुप्पज्जदि तो सब्वेसु असजदसम्माइट्ठिसजदासजद-सजदेसु
आहिणाण किण उपलब्भदे। ण एस दोसो, असखेज्जलोगमेत्त सम्म त-सजमासजमसजमपरिणामेमु ओहिणाणावरणक्व आवसम
णिमित्ताण परिणामाणमइथोवत्तादो। णचते सव्वेसुस भवति,तप्पडिववखपरिणाम बहुत्तेण तदुबलद्धीए थोवत्तादो। प्रश्न-यदि सम्यक्त्व, अणुवत और महावतके निमित्तसे अवधिज्ञान उत्पन्न होता है तो सम असयतसम्यग्दृष्टि, सयतासयत और सयतोंके अवधिज्ञान क्यो नहीं पाया जाता ! उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्यो कि, सम्यक्त्व सयमास यम और सयमरूप परिणाम असख्यात लोक प्रमाण है। उनमे-मे अवधिज्ञानावरणके क्षयोपशमके निमित्तभूत परिणाम अतिशय स्तोक है । वे सबके सम्भव नही है, क्या कि, उनके प्रतिपक्षभूत परिणाम बहुत है, इसलिए उनकी उपलब्धि क्वचिद ही होती है।
६. भव व गुणप्रत्ययमें देशावधि आदि विकल्प प का/मू/४३की प्रक्षेपक गा ३/८६ ओहि तहेब घेप्पदु देस परम च ओहिसब च । तिणि वि गुणेण णियमा भवेण देस तहा णिय ॥ ३ ॥ अवधिज्ञान तीन प्रकारका जानना चाहिए-देशावधि, परमावधि व सर्वाधि। ये तीनो हो नियमसे गुणप्रत्यय है तथा भवप्रत्यय निश्चितरूप से देशावधि ही है । गो जी/मू/३७३/८०१ भवपच्चइगो ओही देसोही होदि परमसम्योही। गुणपञ्चइगो णियमा देसोहो वि य गुणे होदि ॥ ३७३ ॥ - भवप्रत्यय अवधिज्ञान तो देशावधि ही होता है। परमावधि व सविधि गुण. प्रत्यय ही होते है तथा देशावधि गुणप्रत्यय भी होता है।
७. परमावधिमें कथंचित देशावधिपना रा, वा/१/२०/१५/७४/१ सर्व शब्दस्य निरवशेषवाचित्त्वाद् सविधिमपेक्ष्य परमावधेर्देशावधित्वमेवेति वक्ष्याम । = 'सर्व' शब्द क्योकि निरवशेषवाची है इसलिए सर्वाधिकी अपेक्षा परमावधिको भी देशावधिपना कहा जाता है। (रा वा /१/२२/४/८३/१६) घ. देशावधि आदि भेदोंमें वर्द्धमान आदि अथवा प्रति
पाती आदि विकल्प रावा /१/२२/४/८१/२७ देशावधिस्त्रेधा-जघन्य-उत्कृष्ट अजघन्योत्कृष्ट
श्चेति । तथा परमावधिरपि त्रेधा । सवधिविकल्पत्वादेक एव । रा.वा/१/२२/४/८२/१ वर्द्धमानो हीयमान अवस्थित अनव स्थित'
अनुगामी अननुगामी अप्रतिपाती प्रतिपाती इत्येतेऽष्टौ भेदा देशावधर्भवन्ति । होयमानप्रतिपातिभेदवर्जा इतरे षट् भेदा भवन्ति परमाबधे । 'अबस्थितोऽनुगाम्यननुगाम्यप्रतिपाती' इत्येते चत्वारो भेदा' सर्वावधे । रा वा/११२२/४/८३/११ एष त्रिविधोऽपि परमावधि वर्द्धमानो भवति न हीयमान । अप्रतिपातीन प्रतिपाती। अवस्थितो भवति अनवस्थितश्च वृद्धि प्रति न हानिम् । ऐहलौकिकदेशान्तरगमनादनुगामी पारलौकिकदेशान्तरगमनाभावादननुगामी ।- सर्वाव धिरुच्यते.. स एष वर्धमाना न हीयमानो नानवस्थितो न प्रतिपाती, प्राक्सयतभवक्षयात् अवस्थितोऽप्रतिपाती, भवान्तरं प्रत्यननुगामी देशान्तर प्रत्यनुगामी।- देशावधि तीन प्रकार का है-जघन्य,मध्यम,उत्कृष्ट । इसी प्रकार परमावधि भी तीन प्रकारका है। सर्वावधि निर्विकल्प होनेसे एक ही प्रकारका है। देशावधि मे आठ भेद है-वर्धमान, हीयमान, अबस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, अप्रतिपाती और प्रतिपाती। होयमान और प्रतिपातीको छोड़कर शेष छह भेद परमावधि में है। अवस्थित, अनुगामी, अननुगामी और अप्रतिपाती ये चार भेद सर्वावधि मे है। जघन्य आदि तीनो प्रकारका परमावधि वर्धमान ही होता है हीयमान नही। अप्रतिपाती ही होता है प्रतिपाती नही। अवस्थित होता है अथवा वृद्धिके प्रति अनवस्थित भी होता है परन्तु हानिके प्रति नहीं। इस लोकमें देशान्तर गमनके कारण अनुगामी है, परन्तु परलोकरूप देशान्तर गमनका अभाव होने के कारण अननुगामी है। अब सर्वाय धि को कहते है । वह वर्धमान ही होता है हीयमान नही। अनव स्थित व प्रतिपाती भी नही होता। वर्तमानके स यत भक्के क्षय से पहिले तक अवस्थित और
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