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লনন্দিন
३. अदपि गापर्ययकी प्रत्यक्षता परोक्षता
एक हजार वर्षोंके पश्चात पृथक्-पृथक् एक-एक कलको तथा पाँच सौ वर्षों पश्चात एक-एक उपकसकी होता है ।१५१६॥ प्रत्येक कतकीके प्रति एक-एक दुषमाकालबर्ती साधुको अवधिज्ञान प्राप्त होता है और उसके समयमें चातुर्वर्ण्य संघ भी अल्प हो जाते हैं ॥१५॥
९. मिथ्यावृष्टि का अवधिज्ञान विभंग कहलाता है पं.सं./प्रा १/१२० वेभंगो त्ति व बुच्चई सम्मत्तणाणोहि समयहि ।
-उसे (मिथ्यात्व सयुक्त अवधिज्ञानको) आगममें विभंगझान कहा गया है। (ध. १/१,१,११५४१८१/३५१) (गो.जी./मू.३०५/६५७) (पं.सं.सं. १/२३२)। घ. १३/१९.५३/२६०/८ ण च मिच्छाइट्ठीसु ओहिणाणं णस्थि त्ति वोत्तं जुतं, मिव्रतमहचरिदओहिणाणस्सेव विहगणाणवबएसादो। - मिथ्याष्टियोंके अवधिज्ञान नहीं होता, ऐसा कहना मुक्त नहीं है, क्योंकि, मिथ्यात्व सहचरित अवधिज्ञानको ही विभंगज्ञान सज्ञा है। ३. अवधि व मनःपर्ययकी कथंचित् प्रत्यक्षता परोक्षता
१. अवषि-मनःपर्य कर्मप्रकृतियोंको प्रत्यक्ष जानते हैं ध.१/१.१.१४५६।३ कर्मणामसंख्यातगुणश्रेणिनिर्जरा केषां प्रत्यक्षेति चेन्न,
अबधिमन पर्ययज्ञानिना सूत्रमधोयानानां तत्प्रत्यक्षतायाः समुपलम्भात् ।-प्रश्न-कर्मोकी असंख्यात गुण श्रेणी रूपसे निर्जरा होती है, यह किनके प्रत्यक्ष है । उत्तर-ऐसी शंका ठीक नहीं है, क्योंकि सूत्रका अध्ययन करनेवालोंकी असंख्यात गुणित श्रेणीरूपसे प्रति समय कर्मनिर्जरा होत है, यह भात अवधिज्ञानी और मन'पर्यय शानियोंको प्रत्यक्षरूपसे उपलब्ध होती है।
२. दोनों कर्मबद्ध जीवको प्रत्यक्ष मानते हैं स सि ८/२६/४०६/३ एवं व्याख्यातो सप्रपञ्च बन्धपदार्थ.। अवधिमन.पर्ययकेवलज्ञानप्रत्यक्षप्रमाणगम्यस्तदुपविष्टागमानुमैयः -- इस प्रकार (१४८ प्रकृतियों के निरूपण द्वारा) बन्ध-पदार्थ का विस्तारके साथ व्याख्यान किया। यह अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान रूप प्रत्यक्ष प्रमाणगम्य है और इन ज्ञानवाले जीवों द्वारा उपदिष्ट
आगमसे अनुमेय है। ध. १३/५,५,६३/३३३/४ दिष्टसुदाणुभूदट्ठविसयणाणविसे सिदजीवो सदी
णाम । तं पि पच्चक्रवं पेच्छ दि । अमुत्तो जोबो कधं मणपज्जवणाणण मुत्तदुपरिच्छेदियोहिणाणादो हेट्ठिमण परिच्छिज्जदे। णमुत्तट्टकम्मेहि अणादिबंधनबद्धस्स जीवस्स अमुत्तत्ताणुववत्तोदो । स्मृतिरमूर्ताचेत्-न जीवादोपुधभूदसदीए अणुवलंभा। अणागयत्यविसयमदिणाणेण विसेसिदजीवो मदी णाम । तं पि पच्चक्रवं जाणदि। बट्टमाणस्थ विसयमदिणाणण विसेमिदजीवो चिंता णाम तंपि पच्चक्रवं वैच्छदि । - दृष्ट श्रुत और अनुभूत अर्थको विषय करनेवाले ज्ञानसे विशेषित जीवका नाम स्मृति है, इसे भी वह (मन'पर्पयज्ञानी) प्रत्यक्षसे देखता है। प्रश्न-यत जीव अमूर्त है अत: वह मूर्त अर्थको जाननेवाले अत्रधिज्ञानसे नीचेके मन पर्ययज्ञानके द्वारा कैसे जाना जाता है। उत्तर-नही, क्योंकि, ससारी जीव मूर्त आठ कर्मों के द्वारा अनादिकालीन बन्धनसे बद्ध है इसलिए वह अमूर्त नहीं हो सकता । प्रश्न-स्मृति तो अमूर्त है ! उत्तर--नहीं, क्योंकि, स्मृति जीबसे पृथक् नहीं उपलब्ध होती है। अनागत अर्थका विषय करनेवाले मतिज्ञानसे विशेषित जीवको मति संज्ञा है. इसे भी वह प्रत्यक्ष जानता है। वर्तमान अर्थको विषय करने वाले मतिज्ञानसे विशेषित जीवकी चिन्ता संज्ञा है-इसे भी वह प्रत्यक्ष देखता है। ३. अवधि मनःपर्ययकी कथंचित परोक्षता ../पू.७०१ छद्मस्थायामावरणेन्द्रियसहायसापक्षम् । यावज्ज्ञानचतुष्टयमर्थात सर्व परोक्षमिव वाच्यम् ॥७०१-छद्मस्थ अवस्थामें बावरण
और इन्द्रियों को सहायताको अपेक्षा रखनेवाले। है सब परमार्थ रीतिसे परोक्षवद कहने चाहिए। मो.मा.प्र.३५९४ सो यहु (अवधि शाम) भी शरीरादिक पनि बाधीन है।...अवधि दर्शन है सो मत्तिज्ञान वा अवधिज्ञानवव पराधीन जानना।
४. अवधि मनःपर्ययकी प्रत्यक्षता परोक्षताका समन्वय पं.ध/पू.७०२-७०५ अवधिमम पर्य यवद्द्वैत प्रत्यक्ष मेक देशत्वात् । केवलमिदमुपचारादथ च विवक्षावशान्न चाम्बाद।७०२॥ तत्रोपचारहेतुर्यथा भतिज्ञानमक्षजं नियमाद । अथ तत्पूर्व श्रतमपि न तथावधि-चित्तपर्यये ज्ञानम् ॥७०३॥ यस्मादवग्रहहावायानतिधारणापरायत्तम् । आद्य ज्ञानं वयमिह यथा नैव चान्तिम द्वैतम् ॥७०४॥ दूरस्थानानिह समवक्ष मिव वेत्तिहेलया यस्मात् । केवलमेव मनसादवधिमन पर्ययद्वयं ज्ञानम् ॥७०५॥ -अवधि और मन पर्यय ये दोनों ज्ञान एकदेशपनेसे प्रत्यक्ष है, यह क्थन केवल उपचारसे अथवा विवक्षा वश समझना चाहिए, किन्तु अन्वर्थ से नहीं ॥७०२। उपचारका कारण यह है कि जैसे नियमसे मतिज्ञान इन्द्रियोंसे उत्पन्न होता है और श्रुतज्ञान भी मतिपूर्वक होता है, वैसे अवधिमन.पर्यय ज्ञान इन्द्रियादिक्से उत्पन्न नहीं होते हैं ।७०३॥ क्योंकि जैसे यहाँ पर आदिके दोनों ज्ञान अवग्रह ईहा अवाय और धारणाको उल्लघन नहीं करनेसे पराधीन है। वैसे अन्तके दोनों ज्ञान नहीं हैं ।७०४॥ क्योंकि यहाँपर अवधि और मनपर्यय ये दोनों ज्ञान केवल मनसे ही दूरवर्ती पदार्थीको लीलामात्रसे प्रत्यक्षकी तरह जानते हैं ॥७०५॥
५. अवधि व मतिज्ञान की प्रत्यक्षतामें अन्तर ध.६/१,६१,१४/२६/२ मतिमुदणाणाणि परोक्वाणि, ओहिणाणे पुण पच्चक्रवं; तेण तेहितो तस्स भेदुवलंभा। मदिणाणं वि पञ्चक्वं दिस्सदोदि चे ण, मदिणाणेण पञ्चवं वत्थुस्स अणुवलं भा। जो पच्चरखमुवलन्भइ, सो बरथुस्स एगदेसो ति वस्थू ण होदि । जो घि वस्थू, सो वि ण पञ्चवखेण उपलब्भदि, तस्स पञ्चवरखापञ्चक्रवपरोक्वमइणाणविसयत्तादो। तदो मदिणाण पञ्चवखेण ण बत्त्यु परिच्छेदयं । अदि एवं, तो ओहिणाणस्स वि पञ्चक्रव-परोक्वत्तं पसजदे, तिकालगोयराण तपज्जाएहि उबचियं वत्थू, ओहिणाणस्स पच्चक्खेण तारिसवत्थुपरिच्छेदणसत्तीए अभावादो इति चे ण, ओहिणाणम्मि पच्चवखेण बट्टमाणासेसपज्जायविसिट्ठवत्थुपरिच्छित्तीए उवल भा, तीदाणागदअसंखेजपज्जायविसिटुवत्थुदंसणादो च । एवं पि तदो वत्युपरिच्छेदो णथि त्ति ओहिणास्स पच्चवरख-परोक्रवत्तं पसजदे । ण, उभयणयसमूहवत्थुम्मि-ववहारजोगम्मि ओहिणाणस्स पच्चक्रवत्तु बलं भा। ण चाणं तवंजणपज्जाए णमेप्पदि त्ति ओहिणाणं वत्थुस्स एगसपरिच्छेदय,वबहारणयवंजणपज्जाएहि एत्य वत्थुस्तम्भुव गमादो। मदिणाणरस मि एसो कमो.तस्स वट्टमाणासपज्जायविसिट्ट-वत्थु परिच्छेयणसत्तीए अभावादो।-निर्देश- मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष है, किन्तु अवधिज्ञान तो प्रत्यक्षज्ञान है, इसलिए उक्त दोनों ज्ञानोंसे अवधिज्ञानके भेद पाया जाता है। प्रश्न-मतिज्ञान भी तो प्रत्यक्ष दिखलाई देता है। उत्तर-नहीं क्योंकि मतिज्ञानसे बस्तुका प्रत्यक्ष उपलम्भ नहीं होता है। मतिज्ञानसे जो प्रत्यक्ष जाना जाता है वह वस्तुका एकदेश है: और वस्तुका एकदेश सम्पूर्ण वस्तुरूप नहीं हो सकता है। जो भी वस्तु है वह मतिज्ञानके द्वारा प्रत्यक्षरूपसे नहीं जानी जाती है, क्योंकि. वह प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्षरूप परोक्ष मतिज्ञानका विषय है। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि मतिज्ञान प्रत्यक्षरूपसे वस्तुका जाननेवाला नहीं है। (जितने अशको स्पष्ट जाना वह प्रत्यक्ष है शेष अंश अप्रत्यक्ष है। और इन्द्रियावलम्बी होनेसे परोक्ष है इसलिए यहाँ मतिज्ञानको 'प्रत्यक्षाप्रत्यक्ष' परोक्ष कहा गया है) प्रश्न- यदि ऐसा है तो अवधिज्ञानके भी प्रत्यक्षपरोक्षात्मकता प्राप्त होती है, क्योंकि, वस्तु त्रिकालगोचर अनन्त पर्यायोंसे उपचित है, किन्तु
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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