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अवधिज्ञान
१. भेद व लक्षण
२ गुणप्रत्यय व भवप्रत्ययकी अपेक्षा प.ख, १३/१.५३/सू.५३/२१० त च अोहिणाण दुविहं भवपच्चइयं गुण पञ्चश्यं चैव ॥५३॥ भवप्रत्यय व गुणप्रत्ययके भेद से अवधिज्ञान
दो प्रकार है । (रा.बा.१/२०/१५/०८/२६) (गो. जी /मु./३७०/७६६) स, सि,१/२०/१२५/३ द्विधोऽवधिभवप्रत्यय क्षयोपशमनिमित्तश्चेति। -अवधिज्ञान दो प्रकार है-भवप्रत्यय और क्षयोपशम निमित्तक ।
३. अवधिज्ञानके अनेक भेदोका निर्देश । ष. ख. १३/५. सूत्र ५६/२६२ त च अणेयविह देसोही परमोही सव्वोही होयमाणयं बड्ढमाणयं अदि अणव ट्ठिद अणुगामी अणणुगामी सपाडियादोअप्पडिवादो एयवस्खेतमणेयवखेत ॥५६॥ - वह (अवधिज्ञान ) अनेक प्रकार है-देशावधि, परमावधि, सर्वावधि, हीयमान, वर्द्धमान, अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, सप्रतिपाती,
अप्रतिणतो, एक क्षेत्रावधि और अनेक शेत्रावधि। रा वा १/२२४८१/२७ अनुगाम्यननुगामिवर्धमानहीयमानावस्थितानवस्थितभेदात षड्विध ॥ ४॥ पुनरपरेऽवधेस्त्रयो भेदा-देशावधि परमावधि सविधिश्चेति । तत्र देशावधिस्त्रेधा जघन्य उत्कृष्ट अजघन्योत्कृष्टश्चेति । तथा परमावधिरपि त्रिधा । सर्वावधिरविकल्पस्वादेक एव। बर्द्धमानो, होयमान अवस्थित अनवस्थित अनुगामी अननुगामी अप्रतिपातो प्रतिपाती इत्येतेऽष्टौ भेदा देशावधेभवन्ति। हीयमानप्रतिपातिभेदवर्जा इतरे षड्भेदा भवन्ति परमावधे । अवस्थितोऽनुगाम्यननुगाम्यप्रतिपाती इत्येते चत्वारो भेदा' सर्वावधे । - अवधिज्ञानके अनुगामी, अननुगामी, बर्द्धमान, होयमान, अवस्थित और अनवस्थित, ये छह भेद है। देशावधि, परमावधि और सर्वावधिके भेदसे भो अवधिज्ञान तीन प्रकारका है। देशावधि और परमावधिके जघन्य, उत्कृष्ट और जघन्योत्कृष्ट ये तीन प्रकार है। सर्वावधि एक ही प्रकारका है। वर्षमान, हीयमान. अवस्थित, अनवस्थित, अनुगामी, अननुगामी, अप्रतिपाती और प्रतिपाती ये आठ भेद देशावधिमें होते है। हीयमान प्रतिपाती, इन दोको छोड़कर शेष छ भेद परमावधिमें होते है। अवस्थित, अनुगामी, अननुगामी और अप्रतिपाती ये चार भेद सर्वावधिमें होते हैं। (प, का./ता वृ/४३/उद्भुत प्रक्षेपक गाथा स. ३-देशावधि आदि तीन भेद ) (प स प्रा /१/१२४-वर्तमान आदि छ भेद), (श्लो, वा ४/१/२२/१०-१७/१६-२१ रा वा. वाले सर्व विकल्प); (ह. पु.१०/१५२-देशावधि आदि तीन भेद ), क पा.१12/623/ १७/१-देशावधि आदि तीन भेद) (ध ६/१६-१,१४/२५/देशावधि आदि तीन भेद) (ध.६/४,१,२/१४/१५-देशावधि आदि तीन तथा देशावधिके जघन्य उत्कृष्टादि तीन भेद) (ध १/४,१.४) ४८/५ सविधिका एक ही विकल्प तथा परमावधिके जघन्य उत्कृष्टादि तीन विकल्प) गो जी | मू ३७२/७६६-वर्द्धमान आदि छ तथा देशावधि आदि तीन भेद ), (ज. प. १३/११-देशावधि आदि तीन भेद ), (पं. स. सं. १/२२२ - वर्द्धमान आदि छः भेद) घ/पु. १३/५,१५4/२६४/५ तच्च तिविह खेत्ताणुमामो भवाणुगामी खेत्तभवाणुगामो चेदि ।-वह (अनुगामी) तीन प्रकारका है-क्षेत्रानुगामी भवानुगामो और क्षेत्रभवानुगामी । (गो.जी./जो.प्र ३७२/७६६/८) ३. सम्यक मिथ्या अवधिके लक्षण
१. सम्यगवधिका लक्षण दे अवधिज्ञान सामान्य
२. मिथ्यावधिका लक्षण पं. सं/प्रा. १/१२० विवरीओहिणाणं खओवसमियं च कम्बीजं च । बेभगो त्ति व बुच्चा समत्तणाणी हि समयम्हि । -जो क्षयोपशम अवधिज्ञान मिथ्याखसे सयुक्त होनेके कारण विपरीत स्वरूप है, और नवीन कर्मका मीज है उसे आगममें कुअवधि या विभंग ज्ञान कहा गया है । (घ• १/१,१,११५/१८१/३५१) (गो.जी/म् ३०५/६५७) (पं.सं./ म.१/२३२) (पं.का./त.प्र.४१/८२) ।
४. गुणप्रत्यय व भवप्रत्ययका लक्षण स सि. १/२१/१२५/६ भवः प्रत्योऽस्य भवप्रत्ययोऽवधिवनारकाणां
वेदितव्य । स. सि १/२२/१२७/३ तो निमित्तमस्येति क्षयोपशमनिमित्तः। -जिस
अवधिज्ञानके होने में भव निमित्त है, वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान है। बह देव और नारकियोंके जानना चाहिए। इन दोनों अथति सर्वघाती स्पर्ध कोके उदयाभावी क्षय और उन्हीं के सदवस्थारूप उपशमके निमित्तसे जो होता है वह क्षयोपशम निमित्तक अवधिज्ञान है। (रा, वा, १/२१/२/७४/११ व ८१/३) ध १३/५१५,५३/२६०/५ भव उत्पत्ति. प्रादुर्भाव स प्रत्यय' कारण यस्य
अवधिज्ञानस्य तद् भवप्रत्ययम् । ध. १३/५४५५३/२६१/१० अणुवतमहाव्रतीनि सम्यवश्वाधिष्ठानानि गुणः कारणं यस्यावधिज्ञानस्य तद्गुणप्रत्ययकम्। -भव , उत्पत्ति और प्रादुर्भाव ये पर्याय नाम है। जिस अवधिज्ञानका निमित्त भव (नरक व देव भव ) है वह भवप्रत्यय अवधिज्ञान है।-सम्यक्त्वसे अधिष्ठित अणुव्रत और महाबत गुण जिस अवधिज्ञानके कारण है वह गुणप्रत्यय अवधिज्ञान है । (गो. जी./जी. प्र. ३७०/७१७/४ )
५. देशावधि आदि भेदोंके लक्षण ध १३/५,५,५६/३२३/३ परमा ओही मज्याया जस्स णाणस्स तं परमोहिणाण। कि परमं। असंखेज्जलोगसेत्तसंजमवियप्पा ।......देस सम्मत, संजमस्स अवयवभावादो, तमोही मज्जाया जस्स णाणस्सतं देसोहिणाण । सब केवलणाण, तस्स विसओ जो जो अस्थो सो विसव्वं उबयारादो। सव्वमोही मज्जाया जस्स णाणस्स तं समो. हिणाणं ।-परम अर्थात असंख्यात लोकमात्र संयमभेद ही जिस ज्ञानकी अवधि अर्थात मर्यादा है वह "परमावधि ज्ञान" कहा जाता है। देशका अर्थ सम्यक्त्व है, क्योकि वह संयम का अवयव है। वह जिस ज्ञानकी अवघि अर्थात मर्यादा है वह "देशावधिज्ञान" है ।...... सर्वका अर्थ केवलज्ञान है, उसका विषय जो जो अर्थ होता है, वह भी उपचार से सर्व कहलाता है। सर्व अवधि अर्थात् मर्यादा जिस ज्ञानकी होती है वह "सर्वावधिज्ञान" है। ध.१/४,१,३/४१४६ परमो ज्येष्ठः, परमश्चासौ अवधिश्च परमावधि। ध.६/४.१,४/४७/६ सर्व विश्वं कृत्स्नमवधिर्मर्यादा यस्य स योध' सर्वावधिः । एत्य सबसहो सयलदव्ववाचओ ण घेत्तव्यो, परदो अविजमाणदव्वस्स ओहित्ताणुववत्तीदो। कित सबसहो सठवेगदेसम्हि रूबयदे बट्टमाणो घेत्तव्यो । तेण सब्बरूवयद ओही जिस्से त्ति संबंधो कायव्यो । अयवा सरति गच्छति आकुठचनविसर्पणादीनीति पुदगलद्रव्यं सव्वं, तमोही जिस्से सा सब्बोही। ध.६/४.१.५४५२/६ अन्तश्च अवधिश्च अन्तावधी, न विद्यते तो यस्य स अनन्तावधि ।- परम शब्दका अर्थ ज्येष्ठ है। परम ऐसा जो अवधि वह परमावधि है।-विश्व और कृत्स्न ये 'सर्व' शब्दके समानार्थक शब्द हैं। सर्व है मर्यादा जिस ज्ञानकी, वह सविधि है। यहाँ सर्व शब्द समस्त द्रव्यका वाचक नही ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि जिसके परे अन्य द्रव्य न हो उसके अवधिपना नहीं बनता। किंतु 'सर्व' शब्द सर्वके एकदेशरूप रूपी द्रव्यमें वर्तमान ग्रहण करना चाहिए । अथवा जो आकुंचन और विसर्पणादिको को प्राप्त हो वह पुदगल द्रव्य सर्व है, वही जिसकी मर्यादा है वह "सर्वावधि" है। ...अन्त और अवधि जिसके नही है वह "अनन्तावधि" है । (विशेष दे० अवधिज्ञान ६) ६. वर्द्धमान होयमान आदि मेदों के लक्षण
१. वर्द्धमान आदि छ: भेदो के लक्षण स.सि.१/२२/१२७/६ कश्चिदधिर्भास्करप्रकाशवद्गच्छन्तमनुगच्छति। कश्चिन्नानुगच्छति तत्रैवानिपतति उन्मुखप्रश्नादेषिपुरुषवचनबत। अपरोऽवधि अरणिनिर्मथनोत्पन्नशुष्कपर्णोपचीयमानेन्धननिचय
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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