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२. अवग्रह निर्देश
अवग्रह
ईहादिक तो एक देश वा सर्वदेश व्यक्त भए ही हो है। तातै च्यार इन्द्रियनिक रिव्यजनाव ग्रहके च्यार भेद है।
३. विशद व अविशद अवग्रहके लक्षण ध.१/४१,४५/१४५/३ तत्र विशदो निर्णयरूप अनियमेनेहावायधारणा। प्रत्ययोत्पत्तितिबन्धन । अविशदावग्रहो नाम अगृहोतभाषावयोरूपादिविशेष' गृहोतव्यवहारनिबन्धनपुरुषमात्रसत्त्वादिविशेष अनियमेनेहाद्युत्पत्तिहेतुः।-विश द अवाह निर्णयरूप होता हुआ अनियमसे ईहा अवाय और धारणा ज्ञानकी उत्पत्तिका कारण है। • भाषा, आयु व रूपादि विशेषोको ग्रहण न कर के व्यवहारके कारणभूत पुरुषमात्रके सत्त्वादि विशेषको ग्रहण करनेवाला तथा अनियमसे जो ईहा आदिकी उत्पत्तिमें कारण है वह अविशदावग्रह है। ४. व्यंजनावग्रह व अर्थावग्रहका लक्षण स सि १/६८/११७/६ व्यक्तग्रहणात् प्राग्व्यञ्जनावग्रह' व्यक्तग्रहणमर्थावग्रहः।-व्यक्त ग्रहण से पहिले पहिले व्यजनावग्रह होता है और व्यक्त ग्रहणका नाम अर्थावग्रह है। (रा. वा १/१८/२/१७/५) ध.१/१.१,११५/ पृ०/१० अप्राप्तार्थ ग्रहणमविग्रह' ३५४/७. प्राप्तार्थ ग्रहणं व्यजनावग्रह । ३५५-१। योग्यदेशाव स्थितेरेव प्राप्तेरभिधानात् । ३५७-२ । - अप्राप्त अर्थ के ग्रहण करनेको अर्थाव ग्रह कहते है। (और) प्राप्त अर्थ के ग्रहण करने को व्यंजनावग्रह कहते है । इन्द्रियोके ग्रहण करने के योग्य देशमें पदार्थों की अवस्थितिको प्राप्ति कहते है। (ध.६/१-६-१.१४/१६/७ ) (ध.६/४ १,४५/१५६/८) ज.प १३/६६-६७ दुरेण य ज गहण दियणोइदिएहिं अस्थिक्क । अस्थावग्गहणाणं णायब्वं तं समासेण ।६६। फासित्ता जं गहण रसफरसणसद्दगंधविसएहि । वंजणव ग्गहणाणं णिट्टि त वियाणाहि।६७।दूरसे ही जो चक्षुरादि इन्द्रियो तथा मनके द्वारा विषयोंका ग्रहण होता है उसे सक्षेपसे अर्थावग्रहज्ञान जानना चाहिए। ६६ । कर जो रस, स्पर्श, शब्द और गन्ध विषयका ग्रहण होता है, उसे व्यंजनावग्रह निर्दिष्ट किया गया है । ६७। गो.जो /जी.प्र ३/३०७/६६०/८ इन्द्रियै . प्राप्तार्थ विशेषग्रहण व्यंजनावग्रह । तैरप्राप्तार्थविशेषग्रहण अर्था ग्रह इत्यर्थः । व्यंजन अव्यक्तंशब्दादिजात इति तत्त्वार्थ विवरणेषु प्रोक्त कथमनेन व्याख्यानेन सह सगतिमिति चेदुच्यते विगत-अञ्जन-अभिव्यक्तिर्यस्य तव्यञ्जन । व्यज्यते प्रक्ष्यते प्राप्यते इति व्यजन अब्जु गतिव्यक्तिम्रक्षणेष्विति व्यक्तियक्षणार्थ योग्रहणात् शब्दाद्यर्थ श्रोत्रादोन्द्रियेण प्राप्ताऽपियावन्नाभिव्यक्तस्तावद् व्यञ्जनमित्युच्यते ..पुनरभिव्यक्तौ सत्या स एवार्थो भवति ।
जो विषय इन्द्रियनिकरि प्राप्त होइ स्पर्शित होइ सो व्यंजन कहिए । जो प्राप्त न होइ सो अर्थ कहिए। प्रश्न--तत्त्वार्थ सूत्रकी टीका विषै तो अर्थ ऐसा कोया है. जो व्यजन नाम अव्यक्त शब्दादिकका है। इहाँ प्राप्त अर्थको व्यंजन कह्या सो कैसे है । उत्तरव्यजन शब्दके दोऊ अर्थ हो है। 'विगत अञ्जन व्यजनं' दूरभयाहै अंजन कहिए व्यक्तभाव जाकै सो व्यंजन कहिए। सो तत्त्वार्थ सूत्रकी टीका विषै तो इस अर्थका मुख्य ग्रहण किया है। अर 'व्यज्यते प्रक्ष्यते प्राप्यते इति व्यंजनं ' जो प्राप्त होइ ताको व्यजन कहिए सो इहाँ यह अर्थ मुख्य ग्रहण कीया है। जातै 'अजु' धातु गति, व्यक्ति, म्रक्षण अर्थ विषे प्रवत है। तातै व्यक्ति अथका अर म्रक्षण अर्थका ग्रहण करनेत करणादिक इन्द्रियनिकरि शब्दादिक अर्थ प्राप्त हवै भी यावत् व्यक्त न होइ, तावत् व्यजनावग्रह है व्यक्त भए अर्थावग्रह हो है। (विशेष देखो आगे अर्थ व व्यंजनावग्रहमे अन्तर)। २. अवग्रह निर्देश
१. अवग्रह और संशयमें अन्तर रा. वा. १/१४/७-१०/६०/२१ अवग्रहे ईहाद्यपेयत्वात् सशयानतिवृत्ते । उच्यते-लक्षणभेदादन्यत्वमग्निजलवता, ... • कोऽसौ लक्षणभेद. ।
उच्यते।८। स्थाणुपुरुषाद्यनेकार्थालम्बनसनिधानादनेकार्थात्मक' साय, एकपुरुषाद्यान्यतमात्मकोऽवग्रहः। स्थाणुपुरुषानेकधर्मानिश्चितात्मक स शय', यतो न स्थाणुधर्मान पुरुषधर्माश्च निश्चिनोति, अवग्रहस्तु पुरुषाद्यन्यतमकधम निश्चयात्मक । स्थाणुपुरुषानेकधर्मापदासात्मक सशयः यतो न प्रति नियतावस्थाणुपुरुषधर्मात् पदस्यति संशय, अवग्रह पुन' पर्युदासात्मकः, स ह्यन्याच ध्र वादीन् पर्यायान् पर्युदस्य 'पुरुष ' इत्येकपर्यायालम्बन' ।। स्यादेतत्-सशयतुल्यऽवग्रह कुत । अपर्युदासा । तन्न, कि कारणम् । निर्णयविरोधात् सशयस्य । सशयो हि निर्णयविरोधी न रबवग्रह निर्णयदर्शनात् ।१०।-प्रश्न-अत्रग्रहमें ईहाकी अपेक्षा होनेसे करीबकरीम संशयरूपता ही है। उत्तर-अवग्रह और संशयके लक्षण जल
और अग्निकी तरह अत्यन्त भिन्न है, अत दोनो जुदे जुदे है। इनके लक्षणों में क्या भेद है, वही बताते है-संशय स्थाणु पुरुष आदि अनेक पदार्थों में दोलित रहता है, अनिश्चयात्मक होता है और स्थाणु पुरुषादि-से किसीका निराकरण नहीं करता जब कि अबग्रह एक ही अर्थको विषय करता है. निश्चयात्मक है और स्व विषयमें भिन्न पदार्थोंका निराकरण करता है। सारांश यह सशय निर्णयका विरोधी होता है, अवग्रह नहीं। (ध १/४,१,४५/१४५/१) (न्याय,
दी २/६११/३१)। ध, १३/५,६,२३,२१७/८ सशयप्रत्यय' क्वान्त पतितः । ईहायाम । कुतः।
ईहाहेतुत्वात। तदपि कुतः । कारणे कार्योपचारात । वस्तुत. पुनरवग्रह एव । का ईहा नाम । संशयादूर्ध्वमवायादधस्तात् मध्यावस्थायां वर्तमान बिमर्शात्मक. प्रत्यय हेत्ववष्टम्भवलेन समुत्पद्यमान' हेति भण्यते ।-प्रश्न-सशय प्रत्ययक अन्तर्भाव किस ज्ञान में होता है। उत्तर -ईहामें, क्योकि वह इहाका कारण है। प्रश्न-यह भी क्यों। उत्तर--क्योकि कारणमें कार्यका उपचार किया जाता है। वस्तुत. वह संशय प्रत्यय अवग्रह ही है। प्रश्न-ईहाका क्या स्वरूप है। उत्तर-संशयके बाद और अवाय पहले बीचकी अवस्थामें विद्यमान तथा हेतुके अवलम्बनसे उत्पन्न हुए विमर्शरूप प्रत्ययको ईहा कहते है।
२ अवग्रह अप्रमाण नहीं रा, वा १/१५/६/६०/१३ यथा चक्षुषि न निर्णय. सत्येव तस्मिन् 'किमयं स्थाणुपुराहोस्विव पुरुष' इति सशयदर्शनात तथा अवग्रहेऽपि सति न निर्णय ईहादर्शनात. ईहाया च न निर्णय , यतो निर्णयार्थमीहा न त्वी हैव निर्णय । यश्च निर्णयो न भवति स स शयजातीय इत्यप्रामाण्यमनयोरिति ॥ ६ ॥ स्यादेतत न अवग्रह-संशयः । कुतः । अवग्रहवचनात् । यत उक्त पुरुष 'पुरुषोऽयम्' इत्यवग्रह., तस्य भाषावयोरूपादीविशेषाकाक्षणमीहा' इति । -प्रश्नजैसे 'चक्षु होते हुए सशय होता है अत उसे निर्णय नहीं कह सकते उसी तरह अवग्रहके होते हुए ईहा देखी जाती है । ईहा निर्णय रूप नहीं है, क्योकि निर्णयके लिए ईहा है न कि स्वयं निर्णय रूप, और जो स्वय निर्णय रूप नही है वह स्वय की ही कोटि में होता है, अत अवग्रह और ईहाको प्रमाण नहीं कह मक्ते । उत्तर-अवग्रह सशय नही हे. क्योकि 'अवग्रह' अर्थात निश्चय ऐसा कहा गया है । जो कि उक्त पुरुषमें 'यह पुरुष है' ऐसा ग्रहण तो अवग्रह है और उसकी भाषा, आयु व रूपादि विशेषोंको
जानने की इच्छाका नाम ईहा है। (विशेष दे अवग्रह २/१) ध ६/४१,४५/१४५/२ न प्रमाणमवग्रह , तस्य स शयविपर्ययानध्यवसाये
वन्तर्भावादिति। न अवग्रहस्य द्वैविध्यात 1...विशदाविशदावग्रहभेदेन । तत्र विशदो निर्णयरूपः ।.. तत्राविशदावग्रहो नाम अगृहीतभाषाक्योरूपादिविशेष' गृहीतव्यवहारनिबन्धनपुरुषमात्रसत्त्वादि विशेष। अप्रामाण्यमविशदाव ग्रह अनध्यवसायरूपत्वादिति चेन्न अध्यव सितकतिपयविशेषत्वात। न विपर्ययरूपत्वादप्रमाणमा तत्र वैपरीत्यानुपलम्भात। न विपर्ययज्ञानोत्पादकत्वादप्रमाणम्, तस्मातदुत्पत्तेनियमाभावात् । न संशयहेतुत्वादप्रमाणम्, कारणानुगुणकार्यनियमानुपलम्भाव, सशयादप्रमाणात्प्रमाणीभूतनिर्णयप्रत्ययोत्पत्तितो
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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