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अवग्रह
अवधिज्ञान
चक्षु और मनसे अनि सृत और अनुक्तके अवग्रहादि (जिनका कि सूत्र में निर्देश किया गया है । कैसे हो सकेगे। यदि चक्षु और मनसे भी पूर्वोक्त अनि मृत और अनुक्तके अवग्रहादि माने जावेगे तो उन्हे भी प्राप्यकारित्वका प्रसग आवेगा 1 उत्तर-नहीं, क्योकि इन्द्रियोके ग्रहण करने के योग्य देशमें पदार्थों की अवस्थितिको ही प्राप्ति कहते है। (जैसा कि) रूपका चक्षुके साथ अभिमुखरूपसे अपने देशमें अवस्थित रहना स्पष्ट है, क्योकि, रूपको ग्रहण करने वाले चक्षु के साथ रूपका प्राप्यकारीपना नही बनता है। इस प्रकार अनि'मृत
और अनुक्त पदार्थोंके अत्रग्रहादिक सिद्ध हो जाते है। ध ६/४१.४५/१५७/३ न श्रोत्रादीन्द्रियचतुष्टये अर्थावग्रह , तत्र प्राप्तस्यैवार्थस्य ग्रहणोपलम्भादिति चेन्न, वनस्पतिष्वप्राप्तार्थ ग्रहणस्योलम्भात । तदपि कुतोऽवगम्यते । दूरस्थनिधिमुद्दिश्य प्रारोहमुक्त्यन्यथानुपपत्ते । ध.६,४.१ ४५/१५६/४ यदि प्राप्तार्थना हिण्येवेन्द्रियाणि नवयोजनान्तरस्थिताग्नि-विषाभ्यांतीवस्पर्श-रसक्षयोपशमाना दाह-मरणे स्याताम्, प्राप्ताथग्रहणात । तावन्मात्राध्वानस्थिताश चिभक्षणतद्गन्धजनितदुखे च तव एवं स्याताम् ।-'पुट्ठ सुणेइ सद्द अप्पुट्ठ' चेय पस्सदे रूवं । गध रस च फाम बद्ध पुट्ठ च जाणादि ॥५८' इत्यस्मात्सूत्राप्राप्तार्थ ग्राहित्वमिन्द्रियाणामवगम्यत इति चेन्न, अर्थावग्रहस्य लक्षणाभावत खरविषाणस्येवाभावसगात् । कथ पुनरस्या गाथाया अर्थो व्या व्यायते। उच्यते रूपमस्पृष्टमेव चचगृणाति। चशब्दान्मनश्च । गन्ध रस स्पर्श च बद्ध स्वकस्वकेन्द्रियेषु नियमितं पुट्ट स्पृष्टं प शब्दादस्पष्ट च शेषेन्द्रियाणि गृह्णन्ति। पुट्ट सुणेइ सद्द इत्यत्रापि बद्ध च-शब्दो योज्यौ, अन्यथा दुव्याख्यानतापत्ते । -प्रश्न- श्रात्रादिक घारइन्द्रियो अर्थावग्रहनही है,क्योकि,उनमें प्राप्त हो पदार्थका ग्रहण पाया जाता है। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योकि, वनस्पतियो में अप्राप्त अर्थका प्रहण पाया जाता है । प्रश्न-वह भी कहाँसे जाना जाता है। उत्तर-क्योकि, दूरस्थ निधि (खाद्य आदि) को लक्ष्य कर प्रारोह ( शाखा) का छोडना अन्यथा बन नही सकता। दूसरे यदि इन्द्रियाँ प्राप्त पदार्थको ग्रहण करनेवाली ही होती तो • नौ योजनके अन्तरमें स्थित अग्नि और विषसे स्पर्श और रसके तीब क्षयोपशमसे युक्त जीवों के क्रमश दाह और मरण होना चाहिए ... और इसी कारण उतने मात्र अध्वान में स्थित अशुचि पदार्थ के भक्षण और उसके गन्धसे उत्पन्न दुख भी होना चाहिए। (ध. १३/५,५, २४/२२०१(ध, १३/५,६,२७/२२६) प्रश्न-'श्रोत्रसे स्पष्ट शब्दको सुनता है। परन्तु चक्षुसे रूपको अस्पष्टही देखता है। शेष इन्द्रियोसे गन्ध रस और स्पर्शको बद्ध व स्पष्ट जानता है ॥५४॥' इस ( गाथा) सूत्रसे इन्द्रियोके प्राप्त पदार्थ का ग्रहण करना जाना जाता है । उत्तरऐसा नही है, क्योकि, वैसा होनेपर अर्थावग्रहके लक्षणका अभाव होनेसे गधेके सौंगके समान उसके अभावका प्रसग आवेगा' प्रश्न तो फिर इस गाथाके अर्थका व्याख्यान कैसे किया जाता है ? उत्तरचक्षु रूपको अस्पृष्ट ही ग्रहण करती है, च शब्दसे मन भी अस्पष्ट ही वस्तुको ग्रहण करता है। शेष इन्द्रियाँ गन्ध रस और स्पर्शको बद्ध व स्पष्ट ग्रहण करती है, च शब्दसे अस्पष्ट भो ग्रहण करती है । 'स्पृष्ठ शब्दको सुनता है' यहाँ भी बद्ध और च शब्दोको जोडना चाहिए, क्योकि ऐसा न करनेसे दूषित व्याख्यानकी आपत्ति आती है।
६. अवग्रह व अवायमें अन्तर ध ६/१,६-१,१४/१८/३ अवग्गहावायाण णिण्ण यत्तंपडिभेदाभावा एयत्तं किण्ण होदि इदि चे होदु तेण एयत्त, कितु अवग्गहो णाम विसय विपइसण्णिवायाण तरभावी पढ़मो बोधविसेसो, अवाओ पुण ईहाण तरकालभावी उप्पण्ण सदेहाभावरूवो. तेण ण दोण्हमेयत्त । - प्रश्न -अवग्रह और अवाय, इन दोनो ज्ञानी के निर्णयत्व के सम्बन्धमें कोई भेद न होनेसे एकता क्यो नहीं है ? उत्तर-निर्णयत्व के सम्बन्ध
में कोई भेद न होनेसे एकता भलेही रही आवे किन्तु विषय और विषयोके सन्निपातके अनन्तर उत्पन्न होनेवाला प्रथम ज्ञान विशेष अवग्रह है, और ईहाके अनन्तर कालमें उत्पन्न होनेवाले सन्देहके अभावरूप अबायज्ञान होता है, इसलिए अवग्रह और अवाय, इन दोनों ज्ञानोमें एकता नहीं है। (ध.६/४.१.४५/१४४/८) अवच्छिन्न-अन्य धर्मों में व्यावृत्तिपूर्वक निज स्वरूपका निश्चय करानेवाले धर्मविशेषकी सयुक्तताको अवच्छिन्न कहते है। जैसेघट 'घटत्व' धर्मसे अवच्छिन्न है, क्योकि, यह धर्म, पटत्व धर्मसे व्यावृत्तिपूर्वक घटके स्वरूपका निश्चय कराता है। इतना विशेष है कि 'स्व' प्रत्यय युक्त सामान्य धर्मको सयुक्तता ही यहाँ इष्ट है, लाल नोले आदि विशेष धर्मोंकी नहीं। अवच्छेदक-अन्य धर्मा की व्यावृत्तिपूर्वक धर्मीके स्वरूपका बोध करानेवाला धर्म विशेष उस धर्मीका अवच्छेदक कहलाता है, जैसे घटका व्यवच्छेदक 'घटत्व' धर्म है। 'स्व' प्रत्यययुक्त सामान्य धर्म ही यहाँ इष्ट है। अवतस-भद्रशाल वनमें स्थित 'रुचक' दिग्गजेन्द्र पर्वतका स्वामी
देव-दे. लोक ५/३ अवतारक-ल.सा/भाषा/३१३/३६७ उपशमश्रेणीत उतरनेवालेका
नाम अवरोहक कहिए अथवा अवतारक कहिए। अवदान-ध १३/५.५,३७/२४२/३ अवदीयते खण्ड्यते परिच्छिद्यते
अन्येभ्य' अर्थ अनेनेति अवदानम् । -जिसके द्वारा 'अवदीयते खण्डयते' अर्थात् अन्य पदार्थोसे अलग करके विवक्षित अर्थ जाना जाता है, वह अवग्रहका अन्य नाम अवदान है। अवद्य-रा. वा ७/६/२/५३७/२/५-गहमवद्यम्' -अवद्य अर्थात
गर्दा निन्द्य। अवधा-(ज.प्र/प्र.१०५) Segment. अवधारणा-वाक्यमें एवकार-द्वारा निश्चित अर्थका द्योतक।
-(विशेष दे. एव) अवधि-घ/४,१,२/१२/६ तथा १३/१ ओहिसदो अप्पाणम्मि वट्टदे, करग वि मज्जाए बट्टदे कत्थ वि णाणे बट्टदे...। अथवा अवाग्धानादवधिरिति व्युत्पत्तज्ञानस्य अवधित्व घटते । -१ अवधि शब्द आत्माके अर्थ मे होता है, २ कहीपर मर्यादाके अर्थ मे भी इस शब्दका प्रयोग होता है... ३ कहीपर ज्ञान अर्थ में भी यह शब्द आता है। ४. अथवा 'अवाग्धानात अवधि' अर्थात जो अधोगत पुइगलको अधिक्तासे ग्रहण करे वह अवधि है, इस व्युत्पत्तिसे ज्ञानकी अवधिपना घरित होता है। अवधिज्ञान-सम्यग्दर्शन या चारित्रकी विशुद्धताके प्रभावसे क्दाचित किन्ही साधकोको एक विशेष प्रकारका ज्ञान उत्पन्न हो जाता है जिसे अवधिज्ञान कहते है। यद्यपि यह मूर्तीक अथवा सयोगी पदार्थों को जान सकता है, परन्तु इन्द्रियो आदिको सहायताके बिना ही जाननेके कारण प्रत्यक्ष है। सकन्न पदार्थों को न जाननेके कारण देश प्रत्यक्ष है। भावोकी वृद्धि हानिके साथ इसमें वृद्धि हानि होनी स्वाभाविक है, अत यह कई प्रकारका हो जाता है । इसके जाननेकी शक्तियॉ जघन्यमे उत्कृष्ट पर्यन्त अनेक प्रकारकी होती है। परिणामोमे संक्लेश उत्पन्न हो जानेपर यह छूट भी जाता है। देवनारकियो में यह अहेतुक होता है, इसलिए भवप्रत्यय कहलाता है, और मनुष्य तिर्यचोमे गुण प्रत्यय । यद्यपि लौकिक दृष्टि से यह चमत्कारिक है, परन्तु मोक्षमार्ग में इसका कोई मूल्य नही। इसकी उत्पत्ति शरीरमें स्थित शख चक्र आदि किन्ही विशेष चिह्नासे बतायी जाती है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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