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अवग्रह
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१ भेद व लक्षण
विषयविषयित भवति। तदानबाले प्रथम
प्रमाण सं,
नामअवगाह
विशेषता
.
.
केवल स३
लौकान्तिक हाथ सं,३वकेबिना सर्व
लान्तव कापिष्ठ शुक्र-महाशुक्र शतार-सहस्रार । प्रमाण न के अनुसार
१/२ हाथ कम आनत-प्ररणत आरण-अच्युत अधोग्रेवेयक मध्य प्रैवेयक
उपरिम |वेयक केवल सं १ नव अदिश ३" | प्रमाण न.के अनुसार
१/२ हाथ कम ३ व ८के बिना सर्व पंच अनुत्तर ।१ "
* अवगाहना प्रकरण में प्रयुक्त मानोका अर्थ दे गणित 11९/६ अवग्रह-इभिनय ज्ञानको उत्पत्तिके क्रममें सर्व प्रथम इन्द्रिय और पदार्थ का सन्निकर्ष होते ही जो एक झलक मात्र सी प्रतीत होती है, उसे अत्रग्रह कहते है। तत्पश्चात उपयोगकी स्थिरताके कारण ईहा व अवायके द्वारा उसका निश्चय होता है। ज्ञानके ये तीनो अग बडे वेगसे बीत जाने के कारण पाय प्रताति गोमर नहीं होते।
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१. भेद व लक्षण
१ अवग्रह सामान्यका लक्षण । २ अवग्रहके भेद ।
१ विशद व अविशद-२ अर्थ व व्यंजन । ३ विशद व अविशद अवग्रहके लक्षण ।
४ अर्थ व व्यजन अवग्रहके लक्षण । २. अवग्रह निर्देश
* अवग्रह ईहा आदिका उत्पत्ति क्रम-दे० मतिज्ञान ३ १ अवग्रह ओर सशयमे अन्तर । २ अवग्रह अप्रमाण नही । ३ अर्थावग्रह व व्यजनावग्रहमे अन्तर । ४ अर्थावग्रह व व्यंजनावग्रहका स्वामित्व ।
अप्राप्यकारी तीन इन्द्रियोमे अवग्रह सिद्धि ।
प्राप्यकारी व अप्राप्यकारी इद्रियाँ।-दे० इन्द्रिय २ * अवग्रह और दर्शनमे अन्तर ।-दे० दर्शन २/8 * अवग्रह व ईहामे अन्तर ।-दे० अवग्रह २११/२ ६ अवग्रह व अवाय मे अन्तर।
स सि १/११/१११ विषयविषयिसं निपातसमनन्तरमाद्य' ग्रहणमवग्रह विषयविषयिस निपाते सति दर्शन भवति । तदनन्तरमर्थ ग्रहणमयग्रह । == विषय और विषयोके सम्बन्धके बाद होनेवाले प्रथम ग्रहणको अवग्रह कहते है । विषय और विषयोका सन्निपात होनेपर दर्शन होता है। उसके पश्चात जो पदार्थ का ग्रहण होता है वह अवग्रह कहलाता है। (रावा १/१५/१/६०/२), (ध १/१,११५/३५४/२), (ध ६/१,६-१, १४/१६/५), (ध.६/४,१,४५/१४४/५), क पा १११-१५/६३०२/३३२/३); (ज प १३/५७); (गो जी/मू ३०८/६६३) । ध १३/५,२,३७५२४२/२ अवगृह्यते अनेन घटाद्यर्था इत्यवग्रह' ।-जिसके
द्वारा घटादि पदार्थ जाने जाते है वह अवग्रह है। ध १३/५.५,२३/२१६/१३ विषयविषयिसपातसमनन्तरमाद्य ग्रहणमवग्रह। रसादयोऽर्था विषय , षडपीन्द्रियाणि विषयिण, ज्ञानोत्पत्त पूर्वाबस्था विषयविषयिसपात ज्ञानोत्पादनकारणपरिणामविशेषस तत्युत्पत्युपलथित अन्तर्मुहूर्त काल दर्शनव्यपदेशभाक् । तदनन्तर माद्य वस्तुग्रहणमवग्रह , यथा चक्षुषा घटोऽय घटाऽयमिति । यत्र घटादिना विना रूपदिशाकारादिविशिष्ट वस्तुमात्र परिच्छिद्यते ज्ञानेन अनध्यवसायरूपेण तत्राप्यवग्रह एव, अनवगृहीतेऽर्थे ईहायनुत्पत्ते । विषय व विषयोका सम्पात होनेके अनन्तर जो प्रथम ग्रहण हाता है, वह अवग्रह है। रम आदिक अर्थ विषय है, छहो इन्द्रियाँ विषयी है, ज्ञानोत्पत्ति की पूर्वावस्था विषय व विषयीका सम्पात है, जो दर्शन नाम से कहा जाता है। यह दर्शन ज्ञानोत्पत्तिके कारणभूत परिणाम विशेषकी सन्ततिकी उत्पत्तिसे उपलक्षित होकर अन्तर्मुहूत कालस्थायी है। इसके बाद जो वस्तुका प्रथम ग्रहण होता है वह अवग्रह है। यथा--चक्षुके द्वारा 'यह घट है, यह बट है' ऐसा ज्ञान होना अवग्रह है। जहाँ घटादिके बिना रूम, दिशा, और आकार आदि निशिष्ट वस्तुमात्र ज्ञानके द्वारा अनध्यवसाय रूपसे जानी जाती है, वहाँ भी अपग्रह हो है, क्योकि, अनवगृहीत अर्थ मे ईहादि ज्ञानोकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। ज प १३४६१ सोदूण देवदेत्ति य मामण्णेण विचाररहिदेण । जस्सुप्पज्जइ
बुद्धी अवगह तस्स णिहिट्ठ॥६१॥ - 'देवता' इस प्रकार सुनकर जिसके विचार रहित सामान्य से बुद्धि उत्पन्न होती है, उसके अवग्रह निर्दिष्ट किया गया है। न्या दी.२/३११/३१ तत्रेन्द्रियार्थ समवधानसमनन्तरसमुत्थसत्तालोचनान्तरभावो सत्तावान्तरजातिविशिष्टवस्तुमाही ज्ञान विशेषोऽवग्रह । गथाऽग्र पुरुष इति । = इन्द्रिय और पदार्थ के सम्बन्ध होने के बाद उत्पन्न हुए सामान्य अवभास (दर्शन), के अनन्तर होने वाले और अवान्तर सत्ताजाति से युक्त वस्तु को ग्रहण करनेवाले ज्ञान विशेषको अवग्रह कहते है, जैसे - 'यह पुरुष है'। २. अवग्रहके भेद
१ विशद अवग्रह व अचिराद अवग्रह ध.६/४,१४५/१४५/३ द्विविधोऽवग्रहो विशदाविशदावग्रहभेदेन । विशदाच ग्रह और अविशदावग्रह के भेद से अवग्रह दो प्रकारका है।
२. अर्थ व व्यजन अवग्रह ध १/१.१.११३/०५४/७ अवग्रहो द्विविधोऽर्थावग्रहो दयजनावग्रहश्चेप्ति ।
= अवग्रह दो प्रकार होता है अविग्रह और व्यजनावग्रह । (ध ६/१६-१.१४/१६/७), (ज प/११/६५) गो जी/जो प्र/३०७/६६०/७ मतिज्ञान विषयो द्विविध व्यंजनं अर्थश्चेति। व्यञ्जनरूपे विषये स्पर्शनरसनघाणश्रोत्र चतुभिरिन्द्रियै अवग्रह एक एवोत्राद्यते नेहादय । ईहादीना ज्ञानानां देशसर्वाभिव्यक्तौ मत्यामेव उत्पत्तिसंभवाद। इति व्यञ्जनावग्रहश्चत्वार एव ।
मति ज्ञानका विषय दा भेद रूप है-व्यंजन व अर्थ । तहाँ व्यंजन जो अव्यक्त शब्दादि तिनि विषय स्पर्शन, रसन, प्राण व श्रोत्र इन्द्रियनिकरि केवल अवग्रह हो है, ईहादिक न हो है, जात
१. भेद व लक्षण
". अवग्रह सामान्यका लक्षण पख. १३/५/सू ३७/२४२ ओग्गहे योदाणे साणे अवलंबणा मेहा॥३७॥
अव ग्रह, अवधान, सान, अवलम्बना और मेधा ये अवग्रह के पर्यायवाची नाम हैं । ( इन शब्दो के अर्थ-दे० वह वह नाम)
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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