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अभ्युदय
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અમૂહ अभ्यदय-२ क श्रा./पू /१३५ पूजार्थाज्ञैश्वर्यंबलपरिजनकामभोग- अमिततेज-म पु./६२/श्लो.नं.-अर्ककीर्तिका पुत्र था ॥१५२॥ भूयिष्ठ । अतिशयितभुवनमद्भुतमभ्युदय फलति सद्धर्म. ॥१३५॥ अशनिघोष द्वारा बहन सुतारा चुराये जानेपर महाज्वाला विद्या - सल्लेखनादिसे उपार्जन किया हुआ समीचीन धर्मप्रतिष्ठा धन सिद्ध कर अशनिघोषको हराया ॥२६८-८०॥ अनेको विद्याएँ सिद्ध की आज्ञा और ऐश्वर्यसे तथा सेना नौकर-चाकर और काम भोगोकी और भोगोके निदान सहित दीक्षा ले तेरहवें स्वर्ग में देव हुआ बहुलतासे लोकातिशयी अद्भुत अभ्युदयको फलता है । (लौकिक सुख) ॥३८७-४११॥ यह शान्तिनाथ भगवान्का पूर्व का नवमां भव है। ध.१/१.१.१/५६॥ तत्राभ्युदयसुख नाम सातादिप्रशस्तकम-तीवानभागो अमितसेन-पुन्नाटसंघकी गुर्वावलीके अनुसार आप आचार्य जयदयजनितेन्द्रप्रतीन्द्र-सामानिकत्रायस्त्रिशदादिदेव-चक्रवर्तिमलदेवना
सेन के शिष्य तथा कीर्तिषेण के गुरु थे। समय-वि. ८००-८५० (ई. रायणार्ध मण्डलीक-मण्डलीक-महामण्डलीक - राजाधिराज-महाराजा
७४३-७६३)-दे. इतिहास/७/८ । धिराज-परमेश्वरादि-दिव्यमानुषसुखम् । -साता वेदनीय प्रशस्त कर्म प्रकृतियोंके तीब अनुभागके उदयसे उत्पन्न हुआ जो-इन्द्र, प्रतीन्द्र,
अमुख मंगल-दे. मगल । सामानिक, त्रायस्त्रिंश आदि देव सम्बन्धी दिव्य सुख; और चक्र- अमूढदृष्टिवर्ती, बलदेव, नारायण, अर्धमण्डलीक, मण्डलीक, महामण्डलीक, राजाधिराज, महाराजाधिराज, परमेश्वर (तीर्थंकर) आदि सम्बन्धी
. अमूढदृष्टिका निश्चय लक्षणमानुष सुखको अभ्युदय सुख कहते है । (ध १/१,१,१/गा.४५/५८) ।
स.सा /मू /२३२-जो हवइ अम्मूढो चेदा सद्दिठि सवभावेषु । सा खलु अभ्युपगमसिद्धान्त-दे सिद्वान्त ।।
अमूढदिठ्ठी सम्मादिठी सुणेयव्यो ॥२३२॥ जो चेतयिता समस्त अभ्र-सौधर्म स्वर्गका २१वॉ पटल व इन्द्रक। -दे. स्वर्ग//३ ।
भावोमें अमूढ है। यथार्थ दृष्टिवाला है, उसको निश्चयसे अमूढष्टि
सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए । (स सा /आ.२३२)। अमम-काल-विषयक एक प्रमाण --दे गणित /१/४।
रा.वा /६/२४/१/५२६/१२ "बहुविधेषु दु यदर्शनवर्मसु तत्त्ववदाभासअममांग-काल विषयक एक प्रमाण - दे गणित 1/१/४ ।
मानेषु युक्तयभावं परीक्षाचक्षुषा व्यवसाय्य विरहितमोहता अमूढ
दृष्टिता-बहुत प्रकारके मिथ्यावादियोके एकान्त दर्शनो में तत्त्व बुद्धि अमरप्रभ-यह वानर वंश का संस्थापक वानरवंशी राजा था।
और युक्तियुक्तता छोडकर परीक्षारूपी चक्षुद्वारा सत्य असत्यका दे इतिहास/१०/१३।
निर्णय करता हुआ मोह रहित होना अमूढदृष्टिता है। अमर्यादित -१ अमर्यादित भोजन-दे. भक्ष्याभक्ष्य/२/४ । २ भक्ष्य
द्र सं वृ /टी/११/१७३/६ निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारमूढष्टिगुणस्य पदार्थों की मर्यादाएँ-दे, भक्ष्याभक्ष्य ११७।।
प्रसादेनान्तस्तत्त्वबहिस्तत्त्वनिश्चये जाते सति समस्तमिथ्यात्वअमलप्रभ-भूतकालीन नवम तीर्थंकर-दे, तीर्थकर ।
रागादिशुभाशुभसंकल्प-विकल्पेष्टात्मबुद्धिमुपादेयबुद्धि हितबुद्धि अमात्य---त्रि.सा /टो./६८३ अमात्य कहिए देशका अधिकारी।
ममत्वाभाव त्यक्त्वा निगुप्तिरूपेण विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावे निजात्मनि
यन्निश्चलावस्थान तदेवामूढदृष्टित्वमिति ।" निश्चयनयसे अमावस्या-ति.प./७/२११-२१२ ससिविबस्स दिणं पडि एक्केक्क
व्यवहार अमूढदृष्टिगुणके प्रसादसे जब अन्तरंग और बहिर ग तत्त्वपहम्मिभागमेक्केक्कं । पच्छादेदि हु राहू पण्णरसकलाओ परि- का निश्चय हो जाता है, तब सम्पूर्ण मिथ्यात्व रागादि शुभाशुभ यत ॥२१॥ इय एक्केक्कलाए आवरिदाए खु राहूबिबेणं । चदेवककला सकल्प विकल्पोमें इष्ट बुद्धिको छोडकर त्रिगुप्तिरूपसे विशुद्ध ज्ञानमग्गे जरिस दिस्सैदि सो य अमवासो ॥२१२॥ -राहु प्रतिदिन दर्शनस्वभावी निजात्मामे निश्चल अवस्थान करता है, वही अमूढ़(चन्द्रमाके ) एक एक पथमें पन्द्रह कला पर्यन्त चन्द्रबिम्बके एक एक दृष्टिगुण है। भागको आच्छादित करता है ॥२११। इस प्रकार राहूबिम्बके द्वारा
२. अमूढदृष्टिका व्यवहार लक्षण एक एक कलाओंके आच्छादित हो जानेपर जिस मार्गमे चन्द्रमा की एक ही कला दिखती है वह अमावस्या दिवस होता है ॥२१२॥
मू. आ/२५६ लोइयवेदियसामाइएमु तह अण्णदेवमूढत्तं । च्चा विशेष दे. ज्योतिषी/२८।
दसणधादी ण य कायव्वं ससत्तीए ॥२५६॥ = मूढताके चारभेद हैअमितगति-१. माथुर संघकी गुर्वावलीके अनुसार (दे. इतिहास लौकिक मूढता, वैदिक मूढता, सामायिक मूढता, अन्यदेवतामूढता
इन चारोको दर्शनघातक जानकर अपनी शक्तिकर नहीं करना ७/११) आप देवसेनके शिष्य तथा नेमिषेण के गुरु थे। कति
चाहिए। (पु.सि उ/p/१४) । योगसार. समय-वि.६८०-१०२० (ई ११३-६६३)। (सुभाषित
र.क.श्रा/१४ कापये पथि दुखानां कापथस्थेऽत्यसम्मति । असपृक्तिरनु रत्नसंदोहकी प्रशस्ति), (पप्र./प्र.१२१ में A.N. Up.) (ती /२/
रकी तिरमूढा दृष्टिरुच्यते ॥१४- कुमार्ग व कुमार्गियोमें मनसे सम्मत २८४ )। २ (सुभाषित रत्न संदोहको प्रशस्ति )-माथुर संघकी
न होना, कायसे सराहना नही करना, वचनसे प्रशंसा नहीं करनी गुर्वावली के अनुसार आप अमितगति प्रथम के शिष्य माधवसेनके शिष्य
सो अमूढदृष्टिनामा अग कहा जाता है। थे। आप मुञ्जराजाके राज्यकाल में हुए थे। कतियॉ-१. पंच सग्रह
द्र सं/टी/४१/१७३/५ दृष्टिभिर्यप्रणीतं-- अज्ञानिजनवित्तचमत्कारो संस्कृत (वि. १०७३), २. जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति, ३. चन्द्रप्रज्ञप्ति, ४ सार्द्ध
त्पादकं दृष्ट्वा श्रुत्वा च योऽसौ मूढभावेन धर्मबुद्ध्या तत्र रुचि भक्ति द्वय द्वोपप्रज्ञप्ति, ५. व्याख्याप्रज्ञप्ति; ६ धर्म परीक्षा, ७ सामायिक
न कुरुते स एव व्यवहारोऽमूढदृष्टिरुच्यते। कुदृष्टियो के द्वारा बनाये पाठ;८ सुभाषित रत्नसंदोह, भगवती आराधनाके संस्कृत श्लोक
हुए, अज्ञानियोके चित्तमें विस्मयको उत्पन्न करनेवाले रसायनादिक १०. अमितगति श्रावकाचार । समय वि १०४०-१०८० (ई. १८३
शास्त्रोको देखकर या सुनकर जो कोई मूढभावसे धर्मबुद्धि करके १०२३) । का अ/प्र.३५/A.N.Up ); (सुभाषित रत्न सन्दोह/प्र.
उनमें प्रीति तथा भक्ति नहीं करता है उसको व्यवहारसे अमूढपं. पन्नालाल ); (यो.सा/अ/प्र २ प. गजाधरलाल), (अ.ग श्रा/प्र.
दृष्टि कहते है। पं. गजाधरलाल), (जै/१/३८०-३८१), (ती./२/३८४); (दे
प.ध /उ /५८६-५६५,५६६,७७५अतत्त्वेतत्त्वश्रद्धान मूढदृष्टि स्वलक्षणात् । इतिहास/७/११)।
नास्ति सा यस्य जीवस्य विख्यात. सोऽस्त्यमूढदृक् ३५८३॥ अदेवे अमितगति श्रावकाचार - आ. अमितगति (ई ६८३-१०२३)
देवबुद्धि स्यादधर्मे धर्मधी रिह। अगुरौ गुरुबुद्धिर्याख्याता देवादिद्वारा संस्कृत छन्दोमें रचित ग्रन्थ है। इसमें १५ परिच्छेद है और मूढता ॥५६॥ कुदेवाराधन कुर्यादै हिकश्रेयसे कुधी । मृषालोकोपचाकुल १३५२ पद्य है। (दे अमितगति)
रत्वादश्रेया लोकमूढता ॥६६॥ देवे गुरौ तथा धर्मे दृष्टिस्तत्त्वार्थ
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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