________________
अमूर्त
१३३
अरति
दशिनी। ख्याताऽप्यमूढदृष्टिः स्यादन्यथा मूढदृष्टिता ॥७७५-मूढ दृष्टि लक्षणकी अपेक्षासे अतत्त्वोंमें तत्त्वपनेके श्रद्धानको मूढदृष्टि कहते है। वह मूढदृष्टि जिस जीवको नही है सो अमूढदृष्टिवाला प्रगट सम्यग्दृष्टि है ॥५८६॥ इस लोकमें जो कुदेव है, उनमें देवबुद्धि, अधर्ममें धर्मबुद्धि, तथा कुगुरुमें गुरुबुद्धि होती है वह देवादिमूढ़ता कहने में आती है ॥५६॥ इस लोक सम्बन्धी श्रेयके लिए जो मिथ्यादृष्टि जीव मिथ्यादेवों की आराधना करता है, वह मात्र मिथ्यालोकोपचारवत् करानेमें आयी होनेसे अकल्याणकारी लोकमूढता है ॥५६॥ देवमें, गुरुमें और धर्ममें समीचीन श्रद्धा करनेवाली जो दृष्टि है वह अमूढदृष्टि कहलाती है और असमीचीन श्रद्धा करनेवाली जो दृष्टि है वह मुढदृष्टि है ॥७७५॥ ( स. सा/२३६/ पं. जयचन्द ) ( द. पा/पं. जयचन्द/२) ३. कुगुरु आदिके निषेधका कारण अन, ध/२/८५/२११ सम्यकत्वगन्धकलभ' प्रबलप्रतिपक्षकरीटसघट्टम। कुर्वन्नेव निवार्य: स्वपक्ष कल्याणमभिलषता ॥८॥-जिस प्रकार अपने यूथको कुशल चाहनेवाला सेनापति अपने यूथके मदोन्मत हाथीके बच्चेको प्रतिपक्षियोके प्रबल हाथीसे रक्षा करता है, क्योंकि वह बच्चा है। बडा होने पर उस प्रबल हाथोका घात करने योग्य हो जायेगा तब स्वयं उसका घात कर देगा। ऐसे ही पहिली भूमिकामें अन्यदृष्टिके साथ भिडनेसे अपनेको बचाये।
* कुगुरु आदिकी विनयका निषेध-दे. विनय/४ ।
* देवगुरु धर्म मूढ़ता-दे. मूढता। अमूर्त- गणित सम्बन्धी अर्थ (ज. प/प्र. १०५) Abstract २. अमूर्तत्व सामान्य व अमूर्तत्व शक्ति-दे. मूर्त' ३ जीवका अमूर्तत्व निर्देश-दे. जीव/३: ४. द्रव्योंमें मूर्तामूर्त की अपेक्षा विभाजन-दे द्रव्य/३ ५. अमूर्त जीवसे मूर्तकर्म कैसे बन्धेदे.बंध/२, ६. अमूर्त द्रव्योंके साथ मूर्त द्रव्योंका स्पर्श कैसे सम्भव है-दे. स्पर्श/२ अमृतचन्द्र-आप एक प्रसिद्ध आचार्य हुए है। कोई इन्हे काष्ठासंघी कहते है। कृतियाँ-१. समयसार पर आत्मख्याति टीका, २. प्रवचनसारपर तत्त्वदीपिका टीका,३ पचास्तिकाय पर तत्त्वप्रदीपिका टीका, ४. परमाध्यात्म तरंगिनी, ५. पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, ६. तत्त्वार्थसार; ७. लघु तत्व स्फोट । समय-पट्टावलीमें इनका पट्टारोहण काल वि. १६२ दिया गया है। पं.कैलाशचन्दके अनुसार वि. श. १०। अतः
ई.१०५-६५५ । ( जै./२/१७३, १८६, ३३६ ): (ती./२/४०५)। अमतधार-विजयाध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर। दे, विद्याधर । अमृतरसायन-ह. पु./३३ श्लो.-गिरिनगरके मांसभक्षी राजा चित्ररथका रगोइया था ॥१५॥ मुनियोंके उपदेशसे राजाने दीक्षा तथा राजपुत्रने अणुवत धारण कर लिये ॥१५२-१५३॥ इससे कुपित हो इसने मुनियौंको कडवी तुम्बीका आहार दे दिया, जिसके फलसे त सरे नरक गया ॥१५४-१५६॥ यह कृष्णजीका पूर्व पंचम भव है। अमृतस्रावी ऋद्धि-दे. ऋद्धि । अमृताशीति-आचार्य योगेन्दुदेव (ई श. ६) द्वारा रचित उपदेशमूलक विभिन्न छन्दबद्ध अपभ्रश भाषाके ८२ पद्य है। प्रेमीजीके अनुसार ये छन्द इन्हों द्वारा विरचित अध्यात्म सन्दोहके है। (प.प्र/प्र ११६ H L. Jain) अमेचक-म. सा/आ/१६/क. १८ परमार्थेन तु व्यक्तज्ञातृत्वज्योतिषै. ककः । सर्वभावान्तरध्वंसिस्वभावत्वादमेचक • ६१८- शुद्ध निश्चयनयसे देखा जाये तो प्रगट ज्ञायकत्व ज्योतिमात्रसे आत्मा एक स्वरूप है । क्योंकि शुद्ध द्रव्यार्थिक नयसे सर्व अन्य द्रव्यके स्वभाव तथा
अन्यके निमित्तसे होनेवाले विभावों को दूर करनेरूप उसका स्वभाव है। इसलिए वह अमेचक है-शुद्ध एकाकार है। अमोघ-१. नवग्रं वेयक स्वर्ग का द्वितीय पटल-दे. स्वर्ग/१/३ । २. मानुषोत्तर पर्वतत्थ अंककूटका स्वामी भवनवासी सुपर्णकुमार
देव-दे. लोक/११०। ३ रुचक पर्वतस्थ एक कूट-दे. लोक/५/१३ । अमोघवर्ष-. अमोघवर्ष प्रथम-मान्यखेट के राजा अगत्तु (गोविन्द तृ ) के पुत्र थे। पिताके पश्चात राज्यारूढ हुए । बडे पराक्रमी थे। इन्होंने अपने चाचा इन्द्रराजके पुत्र कर्कराजकी सहायतासे श. सं.७५७ में लाट देशके राजा ध्र व राजाको जीतकर उसका देश भी अपने राज्य में मिला लिया था। इनका राज्य समस्त राष्ट्रकूट में फैला हुआ था। आप जिनधर्मवत्सल थे। आचार्य भगवजिनसेनाचार्य ( महापुराणके कर्ता ) के शिष्य थे । इसीलिए पिछली अवस्थामें राज्य छोडकर उन्होंने वैराग्य ले लिया था। इनका बचपनका नाम 'बाछणराय' था तथा उपाधि 'नृपतुंग' थी। 'गोविन्दचतुर्थ भी इन्हे ही कहते है। अकालवर्ष (कृष्ण द्वि.) इनका पुत्र था। इन्होंने एक 'प्रश्नोत्तर माला' नामक ग्रन्थ भी लिखा है। समय-निषितरूपसे आपका समय श सं ७३६-८००; बि.८७३-६३५, ई.८१४-८७८ है। विशेष देखो-इतिहास/३५ (आ. अनुप्र/A. N. Upa.) (ष. ख१/प्र/A.N. Upa.) ष. व१/३६/H. L. Jain). (क. पा १/७३/प. महेन्द्रकुमार ), (ज्ञा/प्र७/प. पन्नालाल बाकलीवाल); (म पु/प्र ४१प. पन्नालाल बाकलीवाल)२ अमोघवर्ष द्वितीयअमोघवर्ष प्र. के पुत्र अकालवर्ष ( कृष्णराज द्वितीय ) का नाम ही अमोघवर्ष द्वि. था-दे. इतिहास/३/५, ३. अमोघवर्ष तृतीयअकाल वर्ष के पुत्र कृष्णराज तृतीयका नाम ही अमोघवर्ष तृतीय था।
दे कृष्णराज तृतीय-इतिहास/३/५ । अयन-१, कालका एक प्रमाण - दे. गणित 1/९/४। २ (ज. प्र/प्र
१०५) solstice | अयश कीर्ति-दे, यश कीर्ति । अयुतसिद्ध-दे. युत। अयोग-दे. योग। अयोग केवली-दे. केवली/१। अयोगव्यवच्छेद-१. अयोगव्यवच्छेदात्मक एवकार-दे एव। २. अयोगव्यवच्छेद नामक एक न्याय विषयक ग्रन्थ, जिसे श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्र सूरि (ई १०८८-१९७३) ने केवल ३२ श्लोकों में रचा था, और इसी कारणसे जिसको द्वात्रिशितिका भी कहते है। मल्लिषेणसूरिने ई १२६२ में इसपर स्याद्वादमजरी नामकी टीका रची। अयोध्या-१. अपर विदेहस्थ गन्धमालिनी क्षेत्रको मुख्य नगरीदे० लोक/५/२, २. अयोध्या, साकेत, सुकौशला और विनीता ये सब एक ही नगरके नाम है (म. पु. मू/१२/६३ )। अरक्षा भय-दे. भय। अरजस्का -विजयाध की दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे, विद्याधर। अरजा-१ अपर विदेहस्थ शंख क्षेत्रकी प्रधान नगरी-दे. लोक/१/२
२. नन्दीश्वर द्वीपको दक्षिण दिशामें स्थित वापी-दे. लोक/५/११ । अरण्य-नि. साता. वृ./५८ मनुष्यसचारशून्यं वनस्पतिजातवल्ली___ गुल्मप्रभृतिभिः परिपूर्ण मरण्यं । = मनुष्यस चारसे शून्य वनस्पति,
बेलों व वृक्षादिसे परिपूर्ण अरण्य कहलाता है। अरति-अरति कषाय द्वेष है-दे. कषाय/४।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org