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अर्हन्त
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अर्हन्त
मू. आ//५०५,५६१ रजहंता अरिहं ति य अरहता तेण उसचदे ॥५०॥ जिदकोहमाणमाया जिदलोहा तेण ते जिणा होंति। ता अरिंच जम्म अरहता तेण बुच्चति ॥५६१४-अरि अर्थात मोह कर्म, रज अर्थात् ज्ञानावरण व दर्शनावरण कर्म और अनन्तराय कम इन चारके हनन करनेवाले है। इसलिए 'अरि' का प्रथमाक्षर 'अ', 'रज' का प्रथमाक्षर 'र' लेकर उसके आगे हननका वाचक 'हन्त शब्द जोड देनेपर अर्हन्त बनता है ॥५०॥ क्रोध,मान, माया, लोभ इन क्षायोंको जीत लेनेके कारण 'जिन' है और कर्म शत्रुओं व संसारके नाशक होने के कारण अहंत कहलाते है ॥५६१० ध. १४१,१,१/४२/8 अरिहननादरिहन्ता। अशेषदु खप्राप्तिनिमित्तत्वा दरिर्मोहः। • रजोहननाद्वा अरिहंता । ज्ञानहगावरणानि रजांसीव... वस्तुविषयबोधानुभवप्रतिबन्धकत्वाद्रजांसि ।.. रहस्याभावाद्वा अरिहन्ता। रहस्यमन्तराय तस्य शेषघातित्रितयविनाशाविनाभाविनो भ्रष्टवोजनिशक्तोकृताघातिकर्मणो हननादरिहन्ता। - 'अरि' अर्थात शत्रुओंका नाश करनेसे अरिहंत यह सज्ञा प्राप्त होती है। समस्त दुखाँको प्राप्तिका निमित्त कारण होनेसे मोहको अरि कहते है। अथवा रज अर्थात आवरण कोका नाश करनेसे 'अरिहन्त' यह संज्ञा प्राप्त होती है। ज्ञानावरण और दर्शनावरण रजकी भाँति वस्तु विषयक बोध और अनुभवके प्रतिवन्धक होनेसे रज कहलाते है।.. अथवा रहस्यके अभावसे भी अरिहत सज्ञा प्राप्त होती है। रहस्य अन्तराय कर्मको कहते है। अन्तराय कर्मका नाश शेष तीन उपरोक्त कर्मों के नाशका अविनाभावो है, और अन्तरायकर्म के नाश होने पर शेष चार अघातिया र्म भी भ्रष्ट बीजके समान निशक्त हो जाते हैं। (म च वृ /२७२), (भ आ/वि/४६/१५३/१२) (म.पु./३३/
१८६), (द्र. स./टी/१०/२१०/8) (चा. पा/टी/१/३१) । ध.८/३,४१/८६/२, "ख विदघादिकम्मा केवलणाणेण दिट्ठसव्वट्ठा अरहता णाम। अधवा, णिविदट्ठकम्माण घाइदघादिकम्माणं च अरहंतेत्ति सण्णा, अरिहणणं पदिदोह भेदाभावादो।"=जिन्होंने धातिया कर्मोंको नष्ट कर केवलज्ञानके द्वारा सम्पूर्ण पदार्थोंको देख लिया है वे अरहन्त है। अथवा आठों कौंको दूर कर देनेवाले और घातिया कर्मों को नष्ट करदेनेवालोंका नाम अरहन्त है। क्योंकि कर्म शत्रुके विनाशके प्रति दोनों में कोई भेद नहीं है। (अर्थात् अहंत व सिद्ध जिन दोनों ही अरहन्त है)।
६. चौतीस अतिशयोंके नाम निर्देश ति. प/४/८६६-६१४/ केवल भाषार्थ-१. जन्मके १० अतिशय १. स्वेदरहितता, २. निर्मल शरीरता, ३. दूधके समान धवल रुधिरः ४, वज्रऋषभनाराच सहनन, ५ समचतुरस्र शरीर स्स्थान, ६ अनुपमरूप, ७ नृपचम्पकके समान उत्तम गन्धको धारण करना, ८ १००८ उत्तम लक्षणोंका धारण, ६. अनन्त बल, १०.हित मित एव मधुर भाषण, ये स्वाभाविक अतिशयके १० भेद है जा तीर्थकरोके जन्म ग्रहणसे ही उत्पन्न हो जाते है । ८६६-८६८ । २ केवलज्ञानके १९ अतिशय - १ अपने पाससे चारो दिशाआमें एक सौ योजन तक सुभिक्षता, २ आकाशगमन, ३ हिसाका अभाव, ४. भोजनका अभाव, ५. उपसर्गका अभाव, ६.सबकी ओर मुख करके स्थित होना, ७. छाया रहितता,८ निनिमेष दृष्टि, ६. विद्याओकी ईशता, १०. सजीव होते हुए भी नख और रोमोका समान रहना, ११ अठारह महा भाषा तथा सात सो क्षुद्रभाषा युक्त दिव्यध्वनि । इस प्रकार धातिया कोके क्षयसे उत्पन्न हुए ये महान आश्चर्यजनक ११ अतिशय तीर्थकरोंके केवल ज्ञानके उत्पन्न हानेपर प्रगट हाते है । ८६६-६०६ ॥ ३. देवकृत १३ अतिशय-१ तीर्थंकरोंके महात्म्यसे सख्यात योजनों तक बन असमयमें ही पत्रफूल और फलोको वृद्धिसे सयुक्त हो जाता है। २ कटक और रेती आदिको दूर करती हुई सुखदायक वायु चलने लगती है, ३, जोव पूर्व वैरको छोड़कर मैत्रीभावसे रहने लगते हैं; ४ उतनी भूमि दर्पणतलके सदृश स्वच्छ और रत्नमय हो जाती है; १. सौधर्म इन्द्रकी आज्ञासे मेषकुमारदेव सुगन्धित जलकी वर्षा करते है,६. देव बिक्रियासे फलोंके भारसे नम्रोभूत शालि और जौ आदि सस्यको रचते हैं, ७. सब जीवोंको नित्य आनन्द उत्पन्न होता है। ८. वायुकुमारदेव विक्रियासे शीतल पवन चलाता है; ६. कूप और तालाब आदिक निर्मल जलसे पूर्ण हो जाते हैं; १०. आकाश धुआँ
और उल्कापातादिसे रहित होकर निर्मल हो जाता है; ९१. सम्पूर्ण जीवोंको रोग आदिकी बाधायें नहीं होती है; १२, यक्षेन्द्रों के मस्तकोंपर स्थित और किरणोंसे उज्ज्वल ऐसे चार दिव्य धर्म चक्रोंको देखकर जनोंको आश्चर्य होता है; १३. तीर्थंकरों के चारों दिशाओंमें (व विदिशाओं में) छप्पन सुवर्ण कमल, एक पादपीठ,
और दिव्य एवं विविध प्रकारके पूजन द्रव्य होते हैं/१०७-११४ । चौतीस अतिशयोंका वर्णन समाप्त हुआ/(ज. प./१२/१३-११४) (द.पा./टी./३५/२८)
७. इतने ही नहीं और भी अनन्तों अतिशय होते हैं स.म./१/८/४ यथा निशीथचूणौँ भगवतां श्रीमदर्हतामष्टोत्तरसहस्रसंख्यामाह्यलक्षणसंख्याया उपलक्षणत्वेनान्तरणलक्षणानां सत्त्वादीनामानन्त्यमुक्तम्। एवमतिशयानामधिकृतपरिगणनायोगेऽप्यपरितत्वमविरुद्धम् । - जिस प्रकार निशीथ चूर्णि' नाम ग्रन्थमें श्री अर्हन्त भगवान्के १००८ बाह्य लक्षणोंको उपलक्षण मानकर सत्त्वादि अन्त रंग लक्षणोंको अनन्त कहा गया है, उसी प्रकार उपलक्षणसे अतिशयोंको परिमित मान करके भी उन्हे अनन्त कहा जा सकता है। इसमें कोई शास्त्र विरोध नहीं है।
८. भगवानके ८ प्रातिहार्य ति.प./४/१५-६२७/भावार्थ-१. अशोक वृक्ष; २. तीन छत्र; ३. रत्न
खचित सिंहासन, ४, भक्ति युक्त गणों द्वारा वेष्टित रहना १. दुन्दुभि नादः ६. पुष्पवृष्टिः ७. प्रभामण्डल; ८. चौसठ चमरयुक्तता (ज. प./१३/१२२-१३०।। * अष्टमंगल द्रव्योंके नाम-वे. चैत्य/१/१९ । * अर्हन्तको जटाओंका सद्भाव व असद्भाव-वे.केशलोच/४ * अर्हन्तोंका पीतराग शरीर-दे चैत्य/१/१२ ।
२. अर्हन्तके भेद सत्तास्वरूप/३८ सात प्रकारके अहंत होते हैं। गाँच, तीन व दो कण्याणकयुक्त (देखो तीर्थकर/१). सातिशय केवली अर्थात गन्धकुटी युक्त केवली, सामान्य केवली अर्थात मूक केवली, उत्सर्ग केवली, और अन्तकृत केवली । और भी दे. केवली/१।
३. भगवान में १८ दोषोंके अभावका निर्देश नि. सा/मू/4 "नहताहभीरुरोसो रागो मोहो चिंताजरारुजामिच्चू ।
स्वेद खेद मदो रह विम्पिणिहाजणुव्वेगो ६-१. क्षुधा, २. तृषा, ३. भय, ४, रोष (क्रोध), . राग, ६. मोह, ७.चिन्ता, ८. जरा. १.रो १०. मृत्यु, ११. स्वेद, १२.खेद, १३, मद, १४.रति, १५. विस्मय, १६. निद्रा, १७. जन्म और १८. उद्वेग (अरति-ये अठारह दोष हैं) (ज. प./१३/८५-८७) द्र, स/टी/१०/२१०)।
४. भगवानुके ४६ गुण चार अनन्त चतुष्टय, ३४ अतिशय और आठ प्रतिहार्य, ये भगवान्के ४६ गुण हैं।
५. भगवान्के अनन्त चतुष्टय (अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त मुख और अनन्त वीर्य-ये चार
अनन्त चतुश्य कहलाते हैं-विशेष दे. चतुष्टय ।
चैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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