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अभिनिवेश
कोईदिए दिसुदादत्था नियमिदा अहिमुह-नियमि जो मोदी सोनोधो अहिगिनोध एव जाहिनियो धियणा । • अभिमुख और नियमित अर्थके अत्रबोधको अभिनिबोध कहते हैं। स्थूल वर्तमान और अनन्तरित अर्थात व्यवधान रहित अर्थोंको अभिमुख कहते हैं। रिडियमें रूप नियमित है. श्रोत्रेन्द्रिय सम्म मान्द्रियगन्ध, जिये द्रियमें रस, स्पर्शनेन्द्रियमें स्पर्श और
इन्द्रिय अर्थात् मनमें दृष्ट, श्रुत और अनुभूत पदार्थ नियमित हैं। इस प्रकार अभिमुख और नियमित पदार्थोंमें जो मोम होता है, वह अभिनिबोध है। अभिनिबोध हो आभिनिबोधिक ज्ञान कहलाता है । ( और भी दे. मतिज्ञान १/१/२) ।
* स्मृति आदि ज्ञानोंकी कचित् एकार्थताकी सिद्धिदे मतिज्ञान ३। अभिनिवेशी/१७ में उधृत ममेदमित्यभिनिवेश । दास्पदनात्मीयेषु स्वमुखेषु कर्मजनितेषु आत्मोयाभिनिवेशो ममकारो मया यथा देह । 'यह मेरा है' इस भावको अभिनिवेश कहते है 'शाश्वत रूप से अनात्मीय तथा कर्मजनित स्वशरीर आदि द्रव्यो में आत्मीयपनेका भाव अभिनिवेश कहलाता है - जैसे 'यह शरीर मेरा है' ऐसा कहना ।
सस्तो / टी / १२/२६ अहमस्य सर्वस्य स्त्र्यादिविषयस्य स्वामीति क्रिया अह क्रिया । ताभि प्रसक्त' संलग्न प्रवृत्तो वा मिथ्या असत्यो, अध्यवसायो, अभिनिवेश । सैव दोषो । मैं इन सर्व स्त्री आदि विषयोंका स्वामी हूँ, ऐसी क्रियाको अहं क्रिया कहते है । इनसे प्रसक्त या सलग्न प्रवृत्ति मिथ्या है, असत्य है, अध्यवसाय है, अभिनिवेश है। वह ही महान् दोष है । अभिन्न — एक ग्रह । - दे.
ग्रह ।
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अभिन्नकारकी व्यवस्था क दे. १ । अभिन्नपूर्वी अभि दश पूर्वी व अभिन्न चतुर्दश पूर्वी दे.
केली ।
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अभिमन्यु पापु // श्लो नं०- शुभद्रा रामोसे अर्जुनका पुत्र
था । १६/१०१|| कृष्ण जरासन्ध युद्ध में अनेकोको मारा । १६/१७८ ॥ अन्तमें कौरवो के मध्य घिर जानेपर सन्यास मरण कर देवत्व प्राप्त किया । २० / २६-३६ ॥ अभिमान-ससि./४/२१/२३२ मानषायादुत्पन्नोऽहं कारोऽभि
मानः । =मान कषायके उदयसे उत्पन्न अहंकारको अभिमान कहते हैं । ( रा वा /४/२१/४/२३६) ।
अभियोग (देव) - रा. वा. /४/४/६/२१३/१० यथेह दासा वाहनादि - व्यापारं कुर्वन्ति तथा तः योग्या वाहनादिभावेनोपकुर्वन्ति । - जिस प्रकार यहाँ दास जन वाहनादि व्यापार करते है, उसी प्रकार वहाँ (देवो में) अभियोग्य नामा देव वाहनादि रूपसे उपकार करते है (.स २/४/१४२) (३/६८) (म.पु. २२/२३) त्रिभाषा / २२४) |
रावा /४/१३/६/२२०/१० कर्म हि पिते ततस्तेषा पतिपरिणति कर्ममा विचित्रता सेकता है। इसलिए गतिपरिणतिमुखेन ही उनके कर्मका फल जानना चाहिए।
* देवके परिवारोमे इन देवोंका निर्देशादि
-- दे. भवनवासी आदि भेद २. इन देवका गमनागमन अच्युत स्वर्ग पर्यन्त ही है आ./१९३३माभिजगा देवीओ चावि रणोति और अभियोग्य जातिके देवर-अत स्वर्ग
कद
है।
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अभीज्ञानपयोग
अभियोगी भावना – (भ.आ./ /.५) मताभियोगको दुगदीयम्मं पउ जदे जो हु । इडिटरससादहेदु अभिओग भावणं कुणइ ॥१८२॥ = मन्त्र प्रयोग करना, कौतुककारक अकाल वृष्टि आदि करना तथा वृद्धि, रस व सात गौरवयुक्त अन्य इसी प्रकारके कार्य करना मुनिके लिए अभियोगी भावना कहलाती है । अभिलापन न वि /वृ/१/१३५ /२ अभिलपनमभिधेयप्रतिपादन म् अभिलाप । - अभिलपन अर्थात अभिधेयका प्रतिपादन करना अभिलाप है ।
अभिलाषा मध / ००५-७०० न्यायादक्षार्थ कोशाया हा नान्यत्र जाति ॥२०५॥ नैव हेतुरतिव्याप्तेरारादाक्षीणमोहिषु । वयस्यनिरतापतेर्भवेन्मुक्तेरसम्भव 1000] न्यायानुसार इन्द्रियों के विषयोकी अभिलाषा के सिवाय कभी भी ( अन्य कोई इच्छा ) अभिलाषा नहीं कहलाती ॥७०५ ॥ इच्छाके बिना क्रियाके न मानने से सोमकपाथ और उसके समीप के (११ १२.१३) गुणस्थानों में अनिच्छापूर्वक क्रियाके पाये जानेके कारण उक्त लक्षण (क्रिया करना मात्र अभिलाषा है) में अतिव्याप्ति नामका दोष आता है। क्योकि यदि उक्त गुणस्थानो में क्रियाके सद्भावसे इच्छाका सद्भाव माना जायेगा तो बन्धके नियका प्रसंग आनेसे मुक्तिका होना भी असम्भव हो जायेगा ||७०७ ॥ तात्पर्य है इन्द्रिय भोगोकी इच्छा ही अभिलाषा है । मन, वचन, कायकी क्रिया परसे उस इच्छा का सद्भाव या असद्भाव सिद्ध नहीं होता।
* अभिलाषा या इच्छाका निषेध, राम अभिव्यक्ति दे. व्यक्ति ।
अभिषव- स सि / ७/३५ / ३७१ द्रवो वृष्यो वाभिषव । द्रव, वृष्य और अभियन इनका एक अर्थ है (रा.बा./७/२५/५/६६८) दे ।
अभिहत
पूजा
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अभिषेक - वसति विषयक एक दोष-दे वसति । अभीक्ष्णज्ञानोपयोग - स. सि / ६ / २४ / ३३८ जीवादिपदार्थ स्वतत्त्व
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विषये सम्यग्ज्ञाने नित्यं युक्तता अभीक्ष्णज्ञानोपयोग | = जीवादि पदार्थरूप स्वस्वविषयक सम्यग्ज्ञानमें निरन्तर लगे रहना अभीक्ष्णज्ञानोपयोग है (सा.भटो / ७७/२२१/६१
राना / ६ / २४/४/५२१ मध्यादिविज्ञान जीवादिपदार्थ स्वतश्वविषय प्रत्यक्ष परोक्षलक्षणम् अज्ञाननिवृत्त्यव्यवहितफल हिताहितानुभयप्राप्तिपरिहार पेक्षाव्यवहितफल यत्, तस्य भावनायां नित्ययुक्तता ज्ञानोपयोग | =जीवादि पदार्थोंको प्रत्यक्ष और परोक्षरूपसे जाननेवाले मति आदि पाँच ज्ञान है। अज्ञाननिवृत्ति इनका साक्षात् फल है तथा हितप्राप्ति अहितपरिहार और उपेक्षा व्यवहित या परम्परा फल है । इस ज्ञानकी भारनामे सदा तत्पर रहना अभीज्ञानोपयोग है। (1/21/3)
घ. ८/३,४१/११/४ अभिक्वणमभिक्खण णाम बहुबारमिदि भणिद होदि । जोगति भावसुखदे I तित्थयरणामकम्म बज्झइ । अभीक्ष्णका अर्थ बहुत बार है । ज्ञानोपयोगसे भावश्रुत अथवा द्रव्यश्रुतकी अपेक्षा है। उन (द्रव्य व भावश्रुत) में बारबार उद्यत रहनेसे तीर्थंकर नाम कर्म बन्धता है ।
२. अभीक्ष्णज्ञानोपयोगकी १५ भावनाओके साथ व्याप्ति सनिदादीहि विणा एदिस्से अवन्तीदो
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दर्शन विशुद्धता अदिक (अन्य १५ भावनाओ के बिना यह अभी ज्ञानोपयुता मन नहीं की।
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* एक अभीक्ष्णज्ञानोपयोगसे ही तोर्थकरत्वका बन्ध सम्भव है --~~~दे, भावना/२ ।
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