________________
अभाव
१२८
२ अभावोमे परस्पर अन्तर व फल
किया जाता है कि गौ ऊट नही और ऊट गौ नही। उनमें तादारम्याभाव अर्थात् उसमें उसका अभाव और उसमें उसका अभाव है। उसका नाम अन्योन्याभाव है। आप्त मी/प जयचन्द्र/११ अन्य स्वभाव रूप घस्तुते अपने स्वभावका
भिन्नपना याकू इतरेतराभाव कहिये। जैन सिद्धान्त प्रवेशिका/१८४ पुद्गल की एक बर्तमान पर्यायमें दूसरे
पुद्गलकी वर्तमान पर्यायके अभावको अन्योन्याभाव कहते है। क पा /१/१,१३-१४/६२०५/गा.१०५/२५१ विशेषार्थ-एक द्रव्यकी एक पर्यायका उसकी दूसरी पर्यायमें जो अभाव है उसे अन्यापोह या इतरेतराभाव कहते है। (जैसे घटका पटमें अभाव )।
७. अत्यन्ताभाव वै.द /8-१/५ यच्चान्यदसदतस्तदसत् ॥५॥ उन तीनो प्रकारके अभावोके
अतिरिक्त जो अभाव है वह अत्यन्ताभाव है। आप्त मी /पं जयचन्द/११ अत्यन्ताभाव है सो द्रव्याथिकनयका प्रधान
पनाकरि है । अन्य द्रव्यका अन्यद्रव्यविषे अत्यन्ताभाव है। जैन सिद्धान्त प्रवेशिका/१८५ एक द्रव्यमें दूसरे द्रव्य के अभावको अत्यन्ता
भाव कहते है। क.पा.१/१,१३-१४/६२०४/गा १०५/२५१/भाषार्थ-रूगादिककास्वसमवायी पुद्गलादिकसे भिन्न जीवादिकमें समवेत होना अन्यत्रसमवाय कहलाता है । यदि इसे स्वीकार किया जाता है. अर्थात अत्यन्ताभाव का अभाव माना जाता है तो पदार्थका किसी भी असाधारणरूपमें कथन नहीं किया जा सकता है।
८. पर्युदास अभाव ध,७/२.६,४/४७६/२४ विशेषार्थ-पर्युदासके द्वारा एक बस्तुके अभाव में
दूसरी वस्तुका सद्भाव ग्रहण किया जाता है। रा वा/२/८/१८/१२२/८ प्रत्यक्षादन्योऽप्रत्यक्ष इति पर्युदास । प्रत्यक्षसे अन्य सो अप्रत्यक्ष-ऐसा पर्युदास हुआ। ९ प्रसज्य अभाव रा.वा /२/८/१८/१२२/८ प्रत्यक्षो न भवतीत्यप्रत्यक्ष इति प्रसज्यप्रतिषेधो
जो प्रत्यक्ष न हो सो अप्रत्यक्ष ऐसा प्रसज्य अभाव है। घ.७/२,६,४/४७६/२४ विशेषार्थ-प्रसज्यके द्वारा केवल अभावमात्र समझा
जाता है। क पा.१/१३-१४/६११०/२२७/१ कारकप्रतिषेधव्यापृतात् । = क्रियाके साथ निषेधवाचक 'न' का सम्बन्ध ।
१०. स्वरूपाभाव या अतद्भाव प्रसा./मू /१०६.१०८ पविभत्तपदेसत्त पुधुत्तमिदि सासणं हि वीरस्स ।
अण्णत्तमतभाषी ण तब्भय होदि कधमेग। जं दव्वं तण्ण गणो जो वि गुणो सो ण तच्चमत्थादो ॥१०६॥ एसो हि अतब्भावो णेव अभावो त्ति णि विट्ठो ॥१०८॥ -विभक्त प्रदेशत्व पृथक्त्व है-ऐसा वीरका उपदेश है । अतद्भाव अन्यत्व है। जो उस रूप न हो वह एक कैसे हो सकता है ॥१०६॥ स्वरूपपेशासे जो द्रव्य है वह गुण नहीं है और जो गुण है वह द्रव्य नहीं है। यह अतद्भाव है। सर्वथा अभाव अतद्भाव नहीं। ऐसा निर्दिष्ट किया गया है। प्र.सा/त.प्र./१०६-१०७ अतद्भावा ह्यन्यत्वस्य लक्षण, तत्तु सत्ता द्रव्य
योर्विद्यत एव गुणगुणिनोस्तद्भावस्याभावाद शुक्लोत्तरीयवदेव ॥१०६॥ यथा-एकस्मिन्मुक्ताफलखग्दाम्नि य शुक्लो गुण- स न हारो न सूत्र न मुक्ताफलं, यश्च हार सूत्र मुक्ताफल वा स न शुक्लो गुण इतीतरेतरस्याभावः स तदभावलक्षणोऽतद्भावोऽन्यत्व निबन्धनभूत । तथै कस्मिन् द्रव्ये य: सत्तागुणस्तन्न द्रव्य नान्यो गुणोन पर्यायो यच्च द्रव्यमन्यो गुण पर्यायो वास न सत्तागुण इतीतरेतरस्य यस्तस्याभाव स तदभावलक्षणोऽतद्भावोऽन्यत्व निबन्धनभूत ॥१०७॥ =अतद्भाव अन्यत्वका लक्षण है, वह तो सत्तागुण और द्रव्यके है ही. क्यो कि गुण और गुणीके
तद्भावका अभाव होता है- शुक्लत्व और वस्त्र (या हार ) की भॉति ॥१०६॥ जैले एक मोतियोकी मालामें जो शुक्ल गुण है, वह हार नही है धागा नहीं है, या मोती नहीं है. और जो हार,धागा या मोती है वह शुक्लत्व गुण नहीं है- इस प्रकार एक-दूसरेमे जो उसका अभाव' अर्थात् तद्रूप होनेका अभाव है' सो वह 'तदभाव' लक्षणवाला अतद्भाव' है,जो कि अन्यत्वका कारण है । इसी प्रकार एक द्रव्यमें जो सत्तागुण है वह द्रव्य नहीं है, अन्य गुण नहीं है या पर्याय नहीं है, और जो द्रव्य अन्य गुण या पर्याय है, वह सत्तागुण नहीं है। इस प्रकार एकदूसरेमें जो 'उसका अभाव' अदि तप होनेका अभाव है वह 'तदभाष' लक्षण 'अतद्भाव' है, जो कि अन्यत्वका कारण है। प्र.सा /ता वृ./१०७/१४६/२ परस्परं प्रदेशामेषेऽपि योऽसौ संज्ञादिभेद
स तस्य पूर्वोक्तलक्षणप्तद्भामस्वाभावस्तदभावो भण्यते ।। अतझाव हवाशक्षणप्रयोजनादिमेद ति। - परस्पर प्रदेशोमें अभेद हानेपर भी बो यह सज्ञादिका भेद है वही उस पूर्वोक्त लक्षण रूप तबाबका अभाव या तदभाव कहा जाता है। उसको अतद्भाव भी कहते हैसज्ञा लक्षण प्रयोजन बारिसे भेद होना, ऐसा अर्थ है। ११. अभाववारका लक्षण म. अनु /२५ अभावमात्रं परमार्थवृत्ते, सा सवृति सर्व-विशेष-म्या। तस्या विशेषौ किन मन्धमोक्षी हेत्वात्मनेति त्वदनाथवाक्यम् ॥२६॥ -परमार्थ वृत्तिसे तत्त्व अभावमात्र है, और वह परमार्थ वृत्ति संवृतिरूप है । और मवृति मर्म विशेषोसे शुन्य है। उक्त अविद्यारिमका एवं सकल तात्विक विषयमा सवृति भी जो बन्ध और मोक्ष विशेष है वे हेत्वाभास हैं। "इस प्रकार यह उन (सं वित्ताद्वैतवादी बौद्धों ) का वाक्य है। (जैन दर्शन द्रव्याधिक नयसे अभावको स्वीकार नहीं करता पर पर्यायाथिकनयसे करता है।-दे उत्पाद व्ययधौव्य २/७)। २. अभावोंमे परस्पर अन्तर व फल
१. पर्यदास व प्रसज्यमें अन्तर भ्या.वि वृ/२/१२३/१५३ नयबुद्धिवशादभावौदासीन्येन भावस्य,तदौदासीन्येन चाभावस्य प्राधान्यसमर्पणे पर्युदासप्रसज्ययोविशेषस्य विकरूपनात् । -नय विवक्षाके वशसे भावकी उदासीनतासे भाव का और अभावकी उदासीनतासे अभावका प्राधान्य समर्पण होने पर पर्युदास व प्रसज्य इन दोनोमे विशेषताका विकल्प हो जाता है। अर्थात्-किसी एक वस्तुके अभाव-द्वारा दूसरी वस्तुका सद्भाव दर्शाना तो पर्यंदास है, जैसे प्रकाश का अभाव ही अन्धकार है। और वस्तुका अभाव मात्र दर्शाना प्रसज्य है, जैसे इस भूतलपर घटका अभाव है।
२. प्राक, प्रध्वंस व अन्योन्याभावोंमें अन्तर वै.द /भा./६-१/४/२७२ यह (अन्योन्याभाव) अभाव दो प्रकार के अभावसे पृथक् तीसरे प्रकारका अभाव है। वस्तुकी उत्पत्ति से प्रथम नही और और न उसके नाशके पश्चात उसका नाम अन्योन्याभाव है । यह अभाव हमेशा रहनेवाला है, क्योंकि, घडेका कपडा और कपडेका घडा होना हर प्रकार असम्भव है । वे सर्वदा पृथक्-पृथक् ही रहेगे। इस वास्ते जिस प्रकार पहिली व दूसरी तरहका अभाव । प्रागभाष और प्रध्वं साभाव) अनित्य है, यह अभाव उसके विरुद्ध नित्य है । आप्त मी/पं. जयचन्द (अष्टसहस्री के आधारपर )/११। प्रश्न-प्रागभाव, प्रध्व साभाव, इतरेतराभावमे विशेष कहा है। उत्तर-जो कार्यद्रव्य घटादिक, ताकै पहिलै ( पिड आदिक ) अवस्था थी. सो, सो तो प्रागभाव है (अर्थात घटादिकका पिण्डादिकमें प्रागभाव है) बहरि कार्यद्रव्यके पीछे जो अवस्था होय सो प्रध्व साभाव है (अर्थात घटमें पिण्ड आदिकका अभाव प्रध्व साभाव है ) । बहुरि इतरेतराभाव है. सो ऐसा नहीं है। जो दोय भावरूप वस्तु न्यारे-न्यारे युगपत दीसे
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org