________________
१२५
अभाव
अबत-पं.ध./3/84 मोहकर्मावृतो बद्ध' स्यादबद्धस्तदत्ययाव। --मोहकर्मसे युक्त ज्ञानको बद्ध तथा मोह कर्म के अभावसे ज्ञानको
अबद्ध कहते है। अबुद्धि-दे बुद्धि । अब्बहल-ति प./२/१६ अब्बहुलो वि भाग सलिलसरूवस्सवो होदि ॥१६॥ अबहुल भाग (अधोलोकमें प्रथम पृथिवी) जलस्वरूपके आश्रयसे है।
* लोकमे इसका अवस्थान-दे. रत्नप्रभा। अब्भोब्भव-१. आहारका एक दोष-दे आहार/11/४ । २. वसति
का एक दोष-दे. वसति। अब्रह्म-त सू./७/१६ मैथुनमब्रह्म । = मैथुन करना अब्रह्म है।
(त सा/४/७७)। अब्रह्मनिषेध आदि-दे. ब्रह्मचर्य/३,४। अभक्ष्य-दे भक्ष्याभक्ष्य । अभयंकर-एक ग्रह-दे ग्रह । अभय-१ भगवान वीरके तीर्थ में हुए अनुत्तरोपपादकोमें-से एक-दे। अनुत्तरोपपादक । २ श्रुतावतारके अनुसार आप एक आचार्य थे जिनका
अपर नाम यशोभद्र व भद्र था-दे 'यशोभद्र'। अभयकुमार-(म पु./७४/श्लो. स.) पूर्व भव सं ३ में ब्राह्मणका पुत्र तथा महामिथ्यात्वी था। एक श्रावकके उपदेशसे मूढताओका त्याग करके फिर पूर्व के दूसरे भवमें सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ। वर्तमान
भवमें राजा श्रेणिककी ब्राह्मणी रानीसे पुत्र उत्पन्न हुआ ॥४२६॥ अभयचन्द्र-१. ( सि वि /प्र/४३ प महेन्द्रकुमार ) आप ई. श १३ के आचार्य है। आपने लघीयस्त्रय' पर स्याद्वादभूषण नामकी तात्पर्यवृत्ति लिखी है। २. बालचन्द तथा श्रुतमुनि (ई १६११) के गुरु, गोमट्टसारकी मन्द प्रबोधिनी टीकाके रचयिता । समय ई श. १४ का पूर्वार्ध । ए एन उपाध्येके अनुसार ई १९७६ में मृत्यु । प. कैलाश
चन्दको मान्य नही । ४६६/ (जै/६/४७०); (ती/३/३१६) अभयदत्ति-दे दान । अभयदान दे दान। अभयदेव-१ वाद महार्णव तथा सन्मतितर्क टीकाके रचयिता श्वेताम्बराचार्य । समय-श. १० (सि. वि/प्र ४०/५ महेन्द्र)। २ नवागवृत्तिके रचयिता श्वेताम्बराचार्य । समय-ई. १०३१ १०७८ । (जै/१/३६६) अभयनंदि-नन्दिसंघ देशीयगण (दे. इति/७/५) के अनुसार आप इन्द्रनन्दि और नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ( ई. श १०-११) के समवयस्क दीक्षागुरु और वीर नन्दिके शिक्षागुरु थे। आपको क्योकि सिद्धान्तचक्रवर्तीकी उपाधि प्राप्त थी इसलिए इन तीनों शिष्योंको भी वह सहज मिल गई। इन तीनोमें आचार्य वीरनन्दि पहिले आ. मेघचन्द्र के शिष्य थे, पीछे विशेष ज्ञान प्राप्तिके अर्थ आपकी शरणमें चले गये थे। कृतिये-१. बिना संदृष्टिकी गोमट्टसार टीका; २ कर्मप्रकृति रहस्य, ३. तत्त्वार्थ सूत्रको तात्पर्य वृत्ति टीका, ४ श्रेयो विधा:
पूजाकल्प, ६ प. कैलाशचन्दजी के अनुसार सम्भवतः जैनेन्द्र व्याकरणको महावृत्ति टोका भी। समय-व्याकरण महावृत्तिके अनुसार वि श ११ का प्रथम चरण आता है। देशीयगणकी गुविल में वह ई. ६३०-६५० दर्शाया गया है । (जै..१/३८७); (ती/२/४१४); (इतिहास ४)। जैन साहित्य इतिहास /२७०/ नाथूरामजी प्रेमी)।
अभयसेन-पुन्नाट संघकी गुर्वावली के अनुसार आप अा. सिद्धसेनके भारत_पत्राट संघकी गर्वानी: शिष्य तथा आ. भीमसेनके गुरु थे । दे, इतिहास ७/८ । अभव्य--दे भव्य। अभाव-यह वैशेषिकों द्वारा मान्य एक पदार्थ है । जैन न्याय शास्त्र. __ में भी इसे स्वीकार किया है, परन्तु वैशेषिकोवत सर्वथा निषेधकारी ___ रूपसे नहीं, बल्कि एक कथ चित् रूपसे । १. भेद व लक्षण
१. अभाव सामान्यका लक्षण न्या सू /भा/२-२/१०/११०यत्र भूत्वा किचिन्न भवति तत्र तस्याभाव उपपद्यते । म जहाँ पहिले होकर फिर पीछे न हो वहाँ उसका अभाव कहा जाता है। जैसे किसी स्थानमें पहिले घट रक्खा था और फिर वहाँसे वह हटा लिया गया तो वहाँके घडेका अभाव हो गया। श्ली.वा. ४/न्या. ४५६/५५१/२० सद्भावे दोषप्रसक्त' सिद्धिविरहान्नास्तित्वापादनमभाव । - सद्भावमें दोषका प्रसंग आ जानेपर, सिद्धिन होनेके कारण जिसकी नास्ति या अप्रतिपत्ति है उसका अभावमान
लिया जाता है। प्रसा/ता वृ/१०० भावान्तरस्वभावरूपी भवत्यभाव इति वचनाव।
भावान्तर स्वभाव रूप ही अभाव होता है, न कि सर्वथा अभाव रूप जैसे कि मिथ्यात्व पर्यायके भंगका सम्यक्त्वपर्याय रूपसे प्रतिभास होता है। न्याय भाषामें प्रयोग-जिस धर्मी में जो धर्म नही रहता उस धर्मी में उस
धर्मका अभाव है। २. अभावके भेद न्या.सू /२-२/१२ प्रागुपपत्तेरभावोपपत्तश्च । -अभाव दो प्रकारकाएक जो उत्पत्ति होनेके पहिले (प्रागभाव); और दूसरा जब कोई वस्तु नष्ट हो जाती है (प्रध्व साभाव)। जैन सिद्धान्त प्रवेशिका/१८१ अभाव चार है- प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव व अत्यन्ताभाव ।
३. अभावके भेद ध. ७/२.६,४/४७६/२४ विशेषार्थ-अभाव दो प्रकारका होता है--पर्युदास
और प्रसज्या ४. प्रागभाव 4.द/१/१/१ क्रियागुणव्यपदेशाभावात् प्रागसत । =क्रिया व गुणके व्यपदेशका अभाव हानेके कारण प्रागसत् होता है। अर्थात् कार्य अपनी उत्पत्तिसे पहिले नहीं होता। आप्त मी /प.जयचन्द/१० प्रागभाव कहिए कार्य के पहिले न होना। जैन सिद्धान्तप्रवेशिका/१८२ वर्तमान पर्यायका पूर्व पर्यायमें जो अभाव
है उसे प्रागभाव कहते है। क.पा ११,१३-१४/६२०५/गा.१०४/२५० विशेषार्थ-कार्य के स्वरूपलाभ करनेके पहिले उसका जो अभाव रहता है वह प्रागभाव है।
५. प्रध्वंसाभाव वै.द /8-१/२ सदसत् ॥२॥ = कार्य की उत्पत्तिके नाश होनेके पश्चातके
अभावका नाम प्रध्वंसाभाव है। आप्त. मी./१ जयचन्द/१० प्रध्वंस कहिए कार्य का विघटननामा धर्म। फोन सिद्धान्त प्रवेशिका/१८३ अगामी पर्यायमें वर्तमान पर्यायके
अभावको प्रध्वंसाभाव कहिए। क.पा/१/१,१३-१४/६२०५/गा १०४/२५० भाषार्थ-कार्यका स्वरूपलाभके पश्चात जो अभाव होता है वह प्रध्व साभाव है।
६. अन्योन्याभाव वै.द./E-१/४ सच्चासत ॥४॥ जहा घड़ेकी उपस्थितिमें उसका वर्णन
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org