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अपूर्वकरण
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अप्रतिकर्म
दर्शनमोहनीयक्षयमविधाय क्षपक श्रेण्यारोहणानुपत्ते ।। उपशमकस्यौपशमिक क्षायिको वा भाव., दर्शनमोहोपशमक्षयाभ्या विनोपशमश्रेण्यारोहणानुपलम्भात् । प्रश्न-पाँच प्रकारके भावो में-से इस गुणस्थानमे कौन-सा भाव पाया जाता है। उत्तर-(चारित्रकी अपेक्षा) क्षपकके क्षायिक और उपशमके औपशमिक भाव पाया जाता है। सम्यग्दर्शनकी अपेक्षा तो क्षपकके क्षायिक भाव होता है, क्योकि, जिसने दर्शनमोहनीयका क्षय नहीं दिया है, वह क्षपक श्रेणीपर नहीं चढ सकता है। और उपशमके औपशमिक या क्षयिकभाव होता है, क्योकि, जिसने दर्शनमोहनीयका उपशम अथवा क्षय नही किया है, वह उपशमश्रेणी पर नहीं चढ़ सकता है। ३. इस गुणस्थानमें एक भी कर्मका उपशम या क्षय
नहीं होता रा वा /8/१/१४/५६०/११ तत्र कर्मप्रकृतीनां नोपशमो नापि क्षयः।
-तहाँ अपूर्वकरण गुणस्थानमें, कर्म प्रकृतियोका न उपशम है और न क्षय। ध १/१.१,२७/२११/३ अपुख्य करणे ण एक्कं पि कम्ममुवसमदि। किंतु अपुब्धकरणो पडिसमयमणं तगुण-विसोहीए वढढंतो अंतोमुहुत्तेण एक्केक्कंटिदिख डय घादेतो सखेजसहस्साणि ट्ठिदिख डयाणि घादेदि, तत्तियमेत्ताणि ट्ठिदिबधोसरणाणि क्रेदि । - अपूर्व वरण गुणस्थानमें एक भी कर्मका उपशम नही होता है। किन्तु अपूर्वकरण गुणस्थानवाला जीव प्रत्येक समयमे अनन्तगुणी विशुद्धिसे बढ़ता हुआ एक-एक अन्तर्मुहूर्त में एक एक स्थितिखण्डोका घात करता हुआ संख्यात हजार स्थितिखण्डोका घात करता है। उतने ही स्थिति बन्धा
पसरणों को करता है। ध.१/१.१,२७/२१६/६ सो ण एक्क वि कम्म वखवेदि, कितु समयं पडि
अस खेजगुणसरूवेण पदेस णिज्जर करेदि । अतोमुहुत्तेण एक्केवक ठिदिकडय घादेतो अप्पणो कालभतरे सखेज्जसहस्साणि दिदिखडयाणि घादेदि । तत्तियाणि चेव ठ्ठिदिबधोसरणाणि विक्रेदि । तेहितो सखेग्जसहस्सगुणे अणुभागकडयवादे करदि। - वह एक भी कर्गका क्षय नहीं करता है, किंतु प्रत्येक समयमें असंख्यातगुणित रूपसे कर्मप्रदेशोको निर्जरा करता है। एक-एक अन्तर्महत में एक स्थिति काण्डकका बात करता हुआ अपने काल के भीतर संख्यात हजार स्थिति काण्डकोका घात करता है। और उतने ही स्थिति बन्धापसरण करता है । तथा उनसे सख्यात हजारगुणे अनुभागकाण्डकोंका घात करता है। ४. उपशम व क्षय किये बिना भी इसमें वे भाव कैसे
सम्भव हैं रा वा //१/१६/५६०/१२ पूर्वत्रोत्तरत्र च उपशम क्षयं वापेक्ष्य उपशमकः क्षपक इति च घृतघटबदुपचर्यते।आगे होनेवाले उपशम या क्षयकी दृष्टिसे इस गुणस्थानमें भी उपशमक और क्षपक व्यवहार पीके घडेकी
तरह हो जाता है। घ.१/१,११६/१८१/४ अक्षपकानुपशमकाना कथं तद्वयपदेशश्चेन, भाविनि भूतबदुपचारतस्तत्सिद्ध । सत्येवमतिप्रसङ्ग स्यादिति चेन्न, असति प्रतिबन्धरि मरणे नियमेन चारित्रमोहक्षपणोपशमकारिणा तदुन्मुखानामुपचारभाजामुपलम्भात । प्रश्न-आठये गुणस्थानमें न तो कोका क्षय ही होता है, और न उपशम ही फिर इस गुणस्थानवर्ती जीवोंको क्षपक और उपशमक कैसे कहा जा सकता है। उत्तर-नहीं, क्योकि, भावी अर्थमे भूतकालोन अर्थ के समान उपचार कर लेनेसे आठवे गुणस्थानमें क्षपक और उपशमक व्यवहारकी सिद्धि हो जाती है। प्रश्न-इस प्रकार माननेपर तो अतिप्रसग दोष प्राप्त हो जायेगा। उत्तर-नही, क्योकि प्रतिबन्धक मरणके अभावमें नियमसे चारित्रमोहका उपशम करनेवाले तथा चरित्रमोहका क्षय करने वाले, अतएव
उपशमन व क्षपणके सन्मुख हुए और उपचारसे क्षपक या उपशमक सज्ञाको प्राप्त होनेवाले जीवोंके आठवे गुणस्थानमें भी क्षपक या
उपशमक सज्ञा बन जाती है (ध,४१,७,६/२०४४) ध/१,७,६/२०१/२ उवसमसमणसत्तिसमण्णिदअपुव्यकरणस्य तदस्थित्ताविरोहा।- उपशमन शक्तिसे समन्वित अपूर्वकरणसयतके औपशमिक भावके अस्तित्वको मानने में कोई विरोध नहीं है। ध५/१,७,६/२०६/१ अपुवकरणस्स अविणठकम्मस्स क्ध खइयो भावो ।
ण तस्स वि कम्मक्खय णिमित्तपरिणामुवल भादो। उवयारेण वा अपुव्वकरणस्स खइओ भावो। उवयारे आसयिजमाणे अइप्पसंगो किण्ण होदीदि चे ण, पच्चासत्तीदो अपसगपडिसेहादो ।-प्रश्न किसी भी कमके नष्ट नही करनेवाले अपूर्वकरण स यतके क्षायिकभाव कैसे माना जा सकता है। उत्तर - नहीं, क्योकि, उसके भी कर्म क्षयके निमित्तभूत परिणाम पाये जाते है। अथवा उपचारसे अपूर्ववरणसयतके क्षायिकभाव मानना चाहिए। प्रश्न-इस प्रकार सर्वत्र उपचारका आश्रय करनेपर अतिप्रसग दोष क्यो न आयेगा। उत्तरनही, क्योकि प्रत्यासत्ति अर्थात् समीपवर्ती अर्थ के प्रसंगसे अतिप्रसंग दोषका प्रतिबध हो जाता है। ध७/२,१,४६/६३/५ खबगुवसामगअपुव्वकरणपढमसमयप्पर डि थोव
थोवक्खवणुवसामणकज्जणिप्पत्तिदसणादो। पडिसमय कज्जणिप्पत्तीए विणा चरिमसमए चेव णिप्पज्जमाणकज्जाणुवलभादो च । -क्षपक व उपशामक अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लगाकर थोड़े-थोड़े क्षपण व उपशामन रूप कार्यकी निष्पत्ति देखी जाती है। यदि प्रत्येक समय कार्यकी निष्पत्ति न हो तो अन्तिम समयमें भी कार्य पूरा होता नही पाया जा सकता। दे सम्यग्दर्शन/IV/२/१० दर्शनमोहका उपशम करने वाला जीव उपद्रव
आने पर भी उसका उपशम किये बिना नहीं रहता। अपूर्व कृष्टि-दे, कृष्टि। अपूर्वस्पर्धक-दे स्पर्धक।
र्थ-(प मु /१/४-५)-अनिश्चितोऽपूर्वार्थ ॥४॥ दृष्टोऽपि समारोपात्ताहक ॥५॥-जो पदार्थ पूर्व में किसी भी प्रमाण द्वारा निश्चित न हुआ हो उसे अपूर्वार्थ कहते है ॥४॥ तथा यदि किसी प्रमाणसे निर्णीत होनेके पश्चात पुन उसमें सशय, विपर्यय अथवा अनध्यव
साय हो जाये तो उसे भी अपूर्वार्थ समझना ॥५॥ अपेक्षा-दे स्याद्वाद/21 अपोह- ख /१३/५,५,३८/सू३८/२४२ ईहा ऊहा अपोहा मग्गणागवेसणा मीमांसा ॥३८॥ - ईहा, उहा, अपोहा, मार्गणा, गवेषणा, और मीमासा ये ईहाके पर्याय नाम है। ध/१३/५,५,३८/२४२/8 अपोह्यते संशय निबन्धनविकल्प अनया इति
अपोहा। जिसके द्वारा संशयके कारणभूत विकल्पका निराकरण किया जाता है वह अपोह है। अपोहरूपता-एक पदार्थ के अभावसे दूसरे पदार्थ के सद्भावको दर्शाना-जैसे घटका अभाव ही पट है, या द्रव्यका अभाव ही गुण है इत्यादि । (प्र सा /त.प्र/१०८) । अपोही-न वि वृ/२/२५/५० अपोहिनाम् विजातीयविशेषवां
खण्डादीनाम् । -विजातीयविशेषवानके खण्डादि । अपौरुषय-आगमका पौरुषेय व अपौरुषेयपना। -दे. आगम/६ अप्रणीतवाक-दे वचन । अप्रतिकर्म-प्रसा/ता बृ./२०५ परमोपेक्षासंयमबलेन देहप्रतिकाररहितत्वादप्रतिकर्म भवति ।- परमोपेक्षा सयम के बलसे देहके प्रतिकार रहित होनेसे अप्रतिकर्म होता है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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