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अप्रतिक्रमण १२६
अबंध अप्रतिक्रमण-दे. प्रतिक्रमण ।
प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ है। (रा.वा./८/8// अप्रतिघातऋद्धि-दे. ऋद्धि/३ ।
५७५/१) (ध ६/१-६,१,२३/४,४/४ (ध १३/५,५,६५/३६०/१० (गो.क /
जो प्र/४५/४६/१२) (गो.जी/जी/जी/१३/२८/४) गो जी./जी प्र./ अप्रतिघाती-पक्ष्म पदार्थों का अप्रतिघातोपना।-दे सूक्ष्म/१।
२८३/६०८/१४) अप्रतिचक्रेश्वरी- पद्मप्रभुको शासक यथिणी। -दे तीर्थकर १५/३। * अप्रत्याख्यानावरण प्रकृतिकी बंध उदय सत्त्व प्ररूअप्रतिपक्षी प्रकृतियॉ-३ प्रकृति अन्ध/२ ।
पणाएँ व तत्सम्बन्धी नियम व शंका समाधान अप्रतिपत्ति-लो वा /४/न्या ४५६/५५१/२० अनुपलम्भोऽप्रति
दे वह वह नाम। पत्ति ।-अनुपलब्धिको अपतिपत्ति कहते है। जिसकी अप्रतिपत्ति
* अप्रत्याख्यानावरणका सर्वघातीपना-दे अनुभाग ४ । है उसका अभाव मान लिया जाता है।
* अप्रत्याख्यानावरणमे दशो करणोकी संभावना अप्रतिपाती-१ अप्रतिपातो अधिज्ञान -दे, अबधिज्ञान/६ ।
-दे करण २१ २ अप्रतिपाती मन पर्यय ज्ञान-दे मन पर्ययज्ञान/२।
२. अप्रत्याख्यानावरण कषाय देशव्रतको घातती है अप्रतिबद्ध-स सा /म्/१६ कम्मे णोकम्हि य अहमिदि अहक च
पं.स /प्रा/१/११५ पढमो दसणघाई बिदिओ तह घाइ देसविरइ त्ति । कम्म णोकम्म । जा एसा खलु बुद्धी अपडिबुद्धो हवदि ताव ॥१६॥ प्रथम अनन्तानुबन्धी तो सम्यग्दर्शनका घात करती है, और in जब तक इस आत्माकी ज्ञानाचरणादि द्रव्यकर्म भाव कर्म और द्वितीय अप्रत्याख्यानावरण कषाय देशविरतिकी घातक है । (गो.क/ शरीरादि नामकर्ममें 'यह मै हुँ' और 'मुझमें यह कर्म नोकर्म है' ऐसो मू/४५/४६) (गो जी /मू /२८३/६०८) (८.स /स /१/२०१५) बुद्धि है, तब तक यह आत्मा अप्रतिबुद्ध है।।
३. अप्रत्याख्यानावरण कषायका वासना काल अप्रतिभा-न्या./सू./ /५२/२/१८ उत्तरस्याप्रतिपत्तिप्रतिभा ॥१८॥
गो.क /मू व टी/४६/४७ अन्तर्मुहूत पक्ष' षण्मासा सरव्यास ख्यया-परपक्षका खण्डन करना उत्तर है। सो यदि किसी कारणसे वादी
नन्तभवा । संज्वलनाद्याना वासनाकाल त नियमेन । अप्रत्याख्यानासमयपर उत्तर नही देता तो यह उसका अप्रतिभा नामक निग्रह- वरणाना षण्मासा । - सज्वलनादि कषायोका वासनाकाल नियमसे स्थान है। (श्लो बा४/न्या २४५/४१४/१४)
अन्तर्मुहूर्त, एक पक्ष छ मास तथा संख्यात असंख्यात व अनन्त भव अप्रतियोगी-जिस धर्म में जिस किसी धर्मका अभाव नहीं होता है । अप्रत्याख्यानावरणका छ मास है। है, वह धर्म उस अभावका अप्रतियोगी है। जैसे घट में घटत्व ।
* कषायोकी तीव्रता मन्दतामे अप्रत्याख्यानावरण नही अप्रतिष्ठान-सप्तम नरकका इन्द्रक बिल-दे. नरक/५ ।
बत्कि लेश्या कारण है।
-दे कषाय/३। अप्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित प्रत्येक बनस्पति-दे, बनस्पति । अप्रदेशासंख्यात-दे. असख्यात । अप्रत्यवेक्षित-निक्षेपाधिकरण-दे अधिकरण ।
अप्रदेशी--स.सि /५/१/२६६ यथाणो प्रदेशमात्रत्वाद् द्वितीयादयोऽस्य अप्रत्यवेक्षितोत्सर्ग-दे उत्सर्ग।
प्रदेशा न सन्तीत्यप्रदेशोऽणु तथाकालपरमाणुरप्येक प्रदेशत्वादप्रदेश
इति ।-जिस प्रकार अणु एक प्रदेशरूप होनेके कारण उसके द्वितीयादि अप्रत्याख्यान
प्रदेश नही होते, इसलिए अणुको सप्र देशी कहते है उसी प्रकार काल १. संयमासंयमके अर्थमे
परमाणु भी एक अदेशरूप होने के कारण अप्रदेशी है। ध.६/१,६-१,२३/४३/३ प्रत्याख्यान संयम', न प्रत्यारण्यानमप्रत्याख्या
अप्रमत्तसंयत-दे. संयत । नमिति देशसंयम' = प्रत्यारख्यान सयमको कहते है। जो प्रत्या- अप्रमाजितोत्सर्गदे उत्सर्ग । ख्यान रूप नही है वह अप्रत्य ज्यान है। इस प्रकार 'अपत्यख्यान'
अप्रशस्त-स सि /७/१४/१५२/७ प्राणिपाडावर यत्तदप्रशस्तम् । यह शब्द देशमयमका वाचक है । (ध ६/१६-१,२३/४४/३)
--जिससे प्राणियोको पीड़ा होती है, उसे (ऐसे कार्य को) अप्रशस्त ध १३/५,५,६५/३६०/१० ईषत्प्रत्याख्यानमत्यारण्यानमिति व्युत्पत्ते अणुवतानामप्रत्यारण्यानसज्ञा ='ईषद प्रत्याख्यान अप्रत्यारव्यान है।
कहते है। इस व्युत्पत्तिके अनुसार अणुवतीको अप्रत्याख्यान सज्ञा है । (गो जी./
स सि /8/२८/४४५ अप्रशस्तमपुण्यायवकारणत्वात् । जो पापासबका जी प्र | २८३/६०८/१४)
___ कारण है, वह (ध्यान) अप्रशस्त है। २ विषयाकाक्षाके अर्थमे
अप्रशस्तोपशम-दे उपशम/१ । स.सा/ता वृ/२८३ रागादि विषयाकाङ्क्षारूपमप्रत्याख्यानमपि तथैव
अप्राप्तकाल-न्या सू /मू 11/२/११ अवयव विपर्यासवचनमप्राप्तद्विविध विज्ञेय द्रव्यभावरूपेण । रागादि विषयोको आकाक्षारूप कालम् ॥११॥= प्रतिना आदि अवयवोका जैसा लक्षण कहा गया है. अप्रत्याख्यान भी दो प्रकारका जानना चाहिए-द्रव्य अप्रत्याख्यान उससे विपरीत आगे पीछे कहना। अर्थात जिस अवयवके पहिले या व भाव अप्रत्याख्यान ।
पीछे जिस अवयवके कहनेका समय है, उस प्रकारसे न कहनेको अप्राप्त अप्रत्याख्यान क्रिया-३, क्रिया/१/२ 1
काल नामक निग्रहस्थान कहते है। क्योकि क्रमसे विपरीत अवयवोके
कहने से साध्यकी सिद्धि नहीं होती। (श्लो बा/पु ४/न्या २११/१६१/१) अप्रत्याख्यानावरण
अप्राप्तिसमा-दे प्राप्तिसमा। १. अप्रत्याख्यानावरण कर्मका लक्षण
अप्राप्यकारी-अप्राप्यकारी इन्द्रिय-दे. इन्द्रिय/२। स.सि 10/8/३८६/७ यदुदयाङ्श विरति सयमास यमारण्यामपामपि कतुं न शक्नोति ते देशप्रत्याख्यानमावरणवन्तोऽप्रत्याख्यानाधरणा
अप्रियवाक-दे. वचन । क्रोधमानमायालोभा.।-जिनके उदयसे स यमासयम नामवाले देश- अबंध-१ अमन्धका लक्षण-दे. बध/१। २ अबन्ध प्रकृतियाँ-दे. बिरतिको यह जीव स्वल्प भी करने में समर्थ नही होता है वे देश प्रकृतिबंध/२ ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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