________________
अपवाद
१२३
अपादान कारक
लिंगको धारण कर फिर भी इच्छित परिग्रहका ग्रहण करते हैं. हे
जीव । वे ही वमन करके फिर उस बमनको पीछे निगलते है। प्र.सा/ता.व./२५० योऽसौ स्वशरीरपोषणार्थ शिष्यादिमोहेन वा सावध नेच्छति तस्येदं (अपवादमार्ग) व्याख्यानं शोभते। यदि पुनरन्यत्र सावद्यमिच्छति वैयावृत्त्यादिस्वकीयावस्थायोग्ये धर्मकार्ये नेच्छति
सदा तस्य सम्यक्त्वमेव नास्तीति। प्रसा/ता वृ /२५२ अत्रेदं तात्पर्यम् स्वभावनाविघातकरोगादिप्रस्तावे वैयावृत्त्यं करोति शेषकाले स्वकीयानुष्ठानं करोतीति । -जो स्व शरीरका पोषण करने के लिए अथवा शिष्य आदिके मोहके कारण सावद्यकी इच्छा नहीं करता है. उसको ही यह अपवाद मार्गका व्याख्यान शोभा देता है। यदि अन्यत्र तो सावद्यकी इच्छा करे और वैयावृत्ति आदि स्वकीय अवस्थाके योग्य धर्मकार्यमें इच्छा न करे, तब तो उसके सम्यक्त्व ही नही है ।२५०॥ यहाँ ऐसा तात्पर्य है कि स्वभाव विघातक रोगादि आ जानेपर तो बैयावृत्ति करता है, परन्तु शेष काल में स्वकीय अनुष्ठान (ध्यान आदि) ही करता है ॥२५२॥
५. अपवादका ग्रहण भी त्यागके अर्थ होता है प्र.सा./त प्र./२२२ अयं तु ..आहारनिहारादिग्रहण विसर्जनविषयच्छेदप्रतिषेधार्थ सुपादीयमान' सर्वथा शुद्धोपयोगाविनाभूतत्वाच्छेदप्रतिषेध एक स्यात् । -यह आहारनीहारादिका ग्रहण-विसर्जन सम्बन्धी बात छेदके निषेधार्थ ग्रहण करने में आयी है, क्योकि सर्वत्र शुद्धोपयोग सहित है। इसलिए वह छेद के निषेध रूप ही है।
६ अपवाद उत्सर्गका साधक होना चाहिए स्या में/१२/१३८/६ अन्यार्थ मुत्सृष्टम् .. अन्यस्मै कार्याय प्रयुक्तम्-उत्सर्गवाक्यम्. अन्यार्थ प्रयुक्तेन वाक्येन नापोद्यते-नापवादगोचरीक्रियते। यमेवार्थमाश्रित्य शास्त्रेषूत्सर्ग प्रवर्तते, तमेवाश्रित्यापवादोऽपि प्रवर्तते, तयोनिम्नोन्ननादिव्यवहारवत परस्परसापेक्षत्वेनैकार्थ साधनविषयत्वात् । सोऽपि च संयमपरिपालनार्थ मेव। -सामान्य (उत्सर्ग) और अपवाद दोनों वाक्य शास्त्रोके एक ही अर्थ को लेकर प्रयुक्त होते है। जैसे ऊँच-नीच आदिका व्यवहार सापेक्ष होनेसे एक हो अर्थका साधक है. वैसे ही सामान्य और अपवाद दोनो परस्पर सापेक्ष होनेसे एक ही प्रयोजनको सिद्ध करते है।-(उदाहरणार्थ नव कोटि शुद्ध की मजाये परिस्थितिका साधु जो पंचकोटि भी शुद्ध आहारका ग्रहण कर लेता है। जैसे सामान्य विधि संयमकी रक्षाके लिए है. तैसे ही वह अपवाद भी संयमकी रक्षा के लिए ही है। ७. उत्सर्ग व अपवादमें परस्पर सापेक्षता ही श्रेय है प्रसा./म/२३० बालो वा बुड ढो वा ममभिदो वा पुणो गिलाणो वा। चरियं चरउ सजोग्ग मूलच्छेदं जधा ण हवदि ॥२३०॥ बाल, वृद्ध, श्रान्त अथवा ग्लान श्रमण, मूलका छेद जिस प्रकारसे न होय उस प्रकार अपने योग्य आचरण आचरो। प्र.सा./त प्र/२३० बालवृद्धश्रान्तग्लानेनापि संयमस्य शुद्धात्मतत्त्व
साधनरवेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात्तथा संयतस्य स्वस्य योग्यातिकर्कशमेवाचरणमाचरणीयमित्युत्सर्ग । शरीरस्य छेदो न यथा स्यात्तथा.. स्वस्य योग्य मृद्वेवाचरणमाचरणीय मित्यपवाद । संयमस्य - छेदोन यथा स्यात्तथा संयतस्य स्वस्य योग्यमतिकर्कशमाचरणमाचरता शरीरस्य...छेदो यथा न स्यात्तथा स्वस्य योग्य मृतप्याचरणमाचरणीयमित्ययमपवादसापेक्ष उत्सर्गः। शरीरस्य छेदो न यथा स्यात्तथा स्वस्य योग्यं मृद्वाचरणमाचरता संयमस्य छेदो न यथा स्यात्तथा सयतस्य स्वस्य योग्यमतिकर्कशमप्याचरणमाचरणीयमित्युत्सर्गसापेक्षोऽपवाद । अतः सर्वथोत्सर्गापवादमैत्र्या सौस्थितस्यमाचरणस्य विधेयम् । बाल, वृद्ध, श्रान्त अथवा ग्लान श्रमणको भी संयमका, कि जो शुद्धात्म तत्त्वका साधन होनेसे मूलभूत है, उसका छेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार संयतका ऐसा अपने योग्य अतिकर्कश आचरण ही आचरना उत्सर्ग है।.. संयमके साधनभूत
शरीरका छेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार अपने योग्य मृद आचरण ही आचरना अपवाद है। संयमका वेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार अपने योग्य अतिकर्कश आचरण आचरते हुए भी शरीरका छेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार अपने योग्य मृद् आचरणका आचरना अपवादसापेक्ष उत्सर्ग है। शरीरका छेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार अपने योग्य मृदु आचरणको आचारते हुए भी संयमका छेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार अपने योग्य अतिकर्कश आचरणको भी आचरना उत्सर्गसापेष्ट अपवाद है। इससे सर्वथा उत्सर्ग अपवादकी मैत्री के द्वारा आचरणको स्थिर करना चाहिए। ८. निरपेक्ष उत्सर्ग या अपवाद श्रेय नहीं प्र.सा / त.प्र.,२३१ अथ देशकालज्ञस्यापि...मृद्वाचरणप्रवृत्तत्वादरूपी लेपी भवत्येव तद्वरमुत्सर्ग । मृद्वाचरण प्रवृत्तत्वादरूप एव लेपो भवति तद्वरमपवाद' । अल्पलेपभयेनाप्रवर्तमानस्यातिकर्कशाचरणीभूयाक्रमेण शरीर पातयित्वा मुरलोकं प्राप्योद्वान्तसमस्तसंयमामृतभारस्य तपसोऽनवकाशतयाऽशक्यप्रतिकारा महान लेपो भवति । तन्न श्रेयानपवाद निरपेक्ष उत्सर्ग. । देशकालज्ञस्यापि आहारविहारयोररूपलेपत्व विगणय्य यथेष्ट प्रवत्तं मानस्य मृद्वाचरणीभूय सयम विराध्या सयतजनसमानीभूतस्य तदात्वे तपसोऽनवकाशतयाशक्यप्रतिकारो महान लेपो भवति, तत्र श्रेयानुत्सर्गनिरपेक्षोऽपवाद' । अत...परस्परसापेक्षोत्सर्गापवादविज भितवृत्तिः स्याद्वादः । -देशकालज्ञको भी मृदु आचरण में प्रवृत्त हानेसे अल्प लेप होता ही है, इसलिए उत्सर्ग अच्छा है। और मृदु आचरण में प्रवृत्त होनेसे अल्प (मात्र) ही लेप होता है, इसलिए अपवाद अच्छा है। अस्पलेपके भयसे उसमें प्रवृत्ति न करे तो अतिकर्कश आचरण रूप होकर अक्रमसे ही शरीरपात करके देवलोक प्राप्त करता है। तहाँ जिसने समस्त सयमामृतका समूह बमन कर डाला है, उसे तपका अवकाश न रहनेसे, जिसका प्रतिकार अशक्य है, ऐसा महान् लेप होता है। इसलिए अपवाद निरपेक्ष उत्सर्ग श्रेयस्कर नहीं। देशकालज्ञको भी, आहार-विहार आदिसे होनेवाले अम्पलेपको न गिनकर यदि वह उसमें यथेष्ट प्रवृत्ति करे तो, मृदु आचरणरूप होकर सयमविरोधी असंयतजनके समान हए उसको उस समय तपका अवकाश न रहनेसे, जिसका प्रतिकार अशक्य है ऐसा महान लेप होता है। इसलिए उत्सर्ग निरपेक्ष अपवाद श्रेयस्कर नहीं है। इसलिए परस्पर सापेक्ष उत्सर्ग और अपवादसे जिसकी वृत्ति प्रगट होती है ऐसा स्याद्वाद सदा अनुगम्य है। अपशब्द हाडन-आ.शुभचन्द्र (ई०१५१६-१४६) द्वारा रचित
न्याय विषयक एक ग्रन्थ । अपसरण-दे, अपकर्षण/३ । अपसिद्धान्त-न्या. सु /मू १२/२३ सिद्धान्तमभ्युपेश्यानियमात कथाप्रसङ्गोऽसिद्धान्त। (श्लो. वा.४/न्या.२६८/४२२/११) -किसी अर्थ के सिद्धान्तको मानकर नियम-विरुद्ध 'कथाप्रसंग' करना 'अपसिद्धान्त' नामक निग्रहस्थान होता है। अर्थात स्वीकृत आगमके
विरुद्ध अर्थका साधन करने लग जाना अपसिद्धान्त है। पंध/पू./५६८ जैसे शरीरको जीव बताना अपसिद्धान्त रूप विरुद्ध
वचन है। अपहृत-संयम-दे. संयम/१। अपाच्य-पश्चिम दिशा। अपात्र-१. दान योग्य अपात्र-दे. पात्र । २. ज्ञान योग्य अपात्र
-दे. श्रोता। अपादान कारक-प्रसा/त.प्र./१६ शुद्धानन्तशक्तिज्ञान विपरिणम
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org