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अपवाद
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४. उत्सर्ग व अपवाद मागका समन्वय
जीभ और कानोमें सामर्थ्य प्राप्त होती है । कर्ण में तेल डालनेसे श्रवण शक्ति बढ़ती है ॥६॥ ५. क्षपकके लिए शीतोपचार आदि में आ /मू /११६६ बसली हि अपवणतावणेहि आले वसीदकिरियाहि । अभगणपरिमद्दण आदी हि तिगिछदे खवय ॥१४६६॥ -- वस्ति कर्म (अनीमा करना), अग्निसे सैकना, शरीर में उष्णता उत्पन्न करना, औषधिका लेप करना, शोतपना उत्पन्न करना, सर्व अग मर्द न करना, इत्यादिके द्वारा क्षपकको वेदनाका उपशमन करना चाहिए। मू आ /टो/३७५ प्रतिरूपकाल क्रिया -उष्णकाले शीत क्रया, शीतकाले उष्णक्रिया, वर्षाकाले तद्योग्य क्रया। = उणकाल में शीतक्रिया और शीतकाल में उष्णक्रिया वर्षाकाल में तद्योग्य क्रिया करना प्रतिरूपकाल क्रिया है (जिसके करनेका मूल गाथामें निर्देश किया है)। त वृ./8/४७/३१६/१२ केचिदसमर्था महर्षय शीतकालादौ कम्बलशब्दबाच्यं कौशेयादिक गृहन्ति । • केचिच्छरीरे उत्पन्नदोषाग्लज्जित्वाव तथा कुर्वन्तीति । व्याख्यानमाराधनाभगवतीप्रोक्ताभिप्रायेणापवादरूपं ज्ञातव्यम् । -कोई-कोई असमर्थ महर्षि शोत अदि कालमे कम्बल शब्दका वाच्य कुश घास या परानी आदिक ग्रहण कर लेते है । कोई शरीरमें उत्पन्न हुए दोष वश लज्जा के कारण ऐसा करते है। यह व्याख्यान भगवती आराधन मे कहे हुए अभिप्रायसे अपवाद रूप है। (भ आ/वि/४२१/६११/१८)। बो,पा./टो /१७/८५ तस्य आचार्यस्य-वात्सल्य भोजन पान पादमर्दन शुदतैलादिनाङ्गा पञ्जन तत्प्रक्षालन चेत्यादिकं कर्म सर्व तीर्थकरनाम कर्मोपार्जनहेतुभूत वैयावृत्त्य कुरुत यूयम् । - उन आचार्य (उपाध्याय व साधु) परमेष्ठी की वात्सल्य, भाजन, पान, पादमर्दन, शुद्धतेल आदिके द्वारा अगमर्दन, शरीर प्रक्षालन आदिक द्वारा वैयावृत्ति करना, ये सब कर्म तीर्थंकर नाम कर्मोपार्जनके हेतुभूत है।
६.क्षपकके मृत शरीरके अंगोपांगों का छेदन भ आ/मू /१९७६-१९७७ गीदत्था कदकज्जा महाबलपरकमा महासत्ता। बंधति य छिदंति य करचरण गुठ्ठयपदेसे ॥१९७६ ॥ जदि वा एस ण कीरेज्ज विधी तो तत्थ देवदा कोई । आदाय त कलेवरमुट्ठिज्ज रमिज्ज बाधेज्ज ॥१६७७॥ महात् पराक्रम ओर धैर्य युक्त मुनि क्षपक के हाथ और पॉव तथा अगूठा इनका कुछ भाग बान्धते है अथवा छेदते है ॥११७६॥ यदि यह विधि न की जायेगी तो उस मृतशरीरमे कीडा करनेका स्वभाववाला कोई भूत अथवा पिशाच प्रवेश करेगा, जिसके उपकरण वह शरीर उठना, बैठना, भागना आदि भीषण क्रियायें करेगा ॥१६७७॥
७. परोपकारार्थ विद्या व शस्त्रादिका प्रदान म.पू/६५/१८ कामधेन्वभिधा विद्यामोप्सितार्थप्रदायिनीम्। तस्यै विश्राणयाचक्रे समन्त्रं परशुं च स ॥१८॥ = उन्होने (मुनिराजने रेणुकाको, उसके सम्यक्त्व व व्रत ग्रहणसे सन्तुष्ट होकर) मनवांछित पदार्थ देनेवाली कामधेनु नामकी विद्या और मन्त्र सहित एक फरसा भी उसके लिए पदान किया ॥१८॥
८. कदाचित् रात्रिको भी बोलते है। प.पु/१८/३८ स्मरेषुहतचित्तोऽसो तामुद्दिश्य बजनिशि। मुनिनावधियुक्तेन मैवमित्यभ्यभाषत ।३८॥ -(दरिद्रोकी बस्ती में किसी सुन्दरीको देखकर काम बाणोसे उसका (यक्षदत्तका) हृदय हरा गया। सो वह रात्रिके समय उसके उद्देश्यसे जा रहा था, कि अवधिज्ञानसे युक्त
सुनिराजने 'मा अर्थात नहीं' इस प्रकार (शब्द) उच्चारण किया। ४. उत्सर्ग व अपवाद मार्गका समन्वय
१. वास्तवमें उत्सर्ग ही मार्ग है, अपवाद नहीं घ.सा./त.प्र./२२४ ततोऽवधार्यते उत्सर्ग एव वस्तुधर्मो न पुनरपवाद। इदमत्र तात्पर्य वस्तुधर्मत्वात्परमनन्थ्यमेवावलम्व्यम्। -इससे
निश्चय होता है कि उत्सर्ग ही वस्तुधर्म है अपवाद नही। तात्पर्य यह है कि वस्तु धर्म होने से परम निर्ग्रन्थत्व ही अबलम्बन योग्य है।
२. कारणवश ही अपवादका ग्रहण निर्दिष्ट है, सर्वतः नहीं भ आ /वि /४२११६१२/१३ तस्माद्वस्त्रं पात्र चार्थाधिकारमषेक्ष्य सूत्रेषु
बहुषु यदुक्त तत्कारणमपेक्ष्य निर्दिष्टमिति ग्राह्यम् । - इसलिए अर्थाधिकार की अपेक्षासे बहुत-से सूत्रोमे जो बस्त्र और पात्रका ग्रहण कहा
गया है, वह कारणको अपेक्षासे निर्दिष्ट है, ऐसा समझना चाहिए। म.पु/७४/३१४ चतुर्थ ज्ञाननेत्रस्य निसर्गबल शालिन । तस्याद्यमेव चारित्रं द्वितीय तु प्रमादिनाम् ॥३१४१ - मन पर्ययज्ञानरूपी मैत्रको धारण करनेवाले और स्वाभाबक बलसे सुशोभित उन भगवान्के पहिला सामायिक चारित्र ही था, क्योकि दूसरा छेदोपस्थापना चारित्र प्रमादी जीवोके ही होता है । (गो के जी.प्र /५४७/७१४/५) । प्रसा/त प्र '२२२ अय तु विशिष्ट काल क्षेत्रवशारकश्चिदप्रतिषिद्ध इत्यपवाद । यदा हि श्रमण' सर्वोपधिप्रतिषेधमास्थाय परमुपेक्षासयम प्रतिपत्तुकामोऽपि विशिष्टकालक्षेत्रवशादवस नशक्तिर्न प्रतिपक्षमते तदापकृष्य संयम प्रतिपद्यमानस्तबहर इसाधनमात्रमुपधिमातिष्ठते । = विशिष्ट काल, क्षेत्रके वश कोई उपधि अनिषिद्ध है। ऐसा अपवाद है। जब श्रमण सर्व उपधि के निषेधका आश्रय लेकर परमोपेक्षा सयमको प्राप्त करनेका इच्छुक होनेपर भी विशिष्ट काल, क्षेत्रके वश हीन शक्तिवाला होनेसे उसे प्राप्त करने में असमर्थ होता है, तब उसमे अपकर्षण करके (अनुत्कृष्ट) सयम प्राप्त करता हुआ उसकी बाह्य साधनमात्र उपधिका आश्रय लेता है। ३ अपवाद मार्गमें भी योग्य ही उपधि आदिके ग्रहणकी
आज्ञा है अयोग्यको नहीं प्र.सा /मू /२२३ अप्पष्टिकुट उवधि अपत्याणिज्ज असंजयजगे हि । मुच्छादिजणणरहिद गेहदु समणो 'जदि बि अप्प ॥२२३॥ भले ही अल्प हो तथापि जो अनिन्दित हो, असं यत जनोसे अप्रार्थनीय हो और मूर्खादि उत्पन्न करनेवाली न हो. ऐसी ही उपधिको श्रमण ग्रहण करो। भ आ/वि /१६२/३७५/१६ उपविनाम पिच्छान्तर कमण्डत्वन्तरं वा तदानी संयमसिद्धौ न करण मिति सयमसाधनं न भवति । अथवा ज्ञानापकरण अवशिष्टापधिरुच्यते । == एक ही पिच्छिका और एक ही कमण्डल रखता है, क्योकि उससे ही मका सयम साधन होता है। दूसरा कमण्डल व दूसरो पिच्छिका उसको सयम साधनमे कारण नहीं है। अवशिष्ट ज्ञानोपकरण (शाख) भी उस (सल्लेखनाके) समय परिग्रह माना गया है। प्रसा/त प्र/२२२ की उत्थानिका "कस्यचित्कदाचित्कथ चित्कश्चिदप
धिरप्रतिषिद्धोऽध्यस्तीत्यपवादमुपदिशति। -किसीके कहीं कभी किसी प्रकार कोई उपधि अनिषिद्ध भो है, ऐसा अपवाद कहते है। प्रसा./ता वृ /२२३ गृह्णातु श्रमणो यमप्यसप तथापि पूर्वोक्ताचितलक्षणमेव ग्राह्य न च तद्विपरातमधिक वेत्यभिप्राय । -श्रमण जो कुछ भी अल्पमात्र उपधि ग्रहण करता है वह पूर्वोक्त उचित लक्षणवाली ही ग्रहण करता है, उससे विपरीत या अधिक नहीं, ऐसा अभिप्राय है।
४. अपावदका अर्थ स्वच्छन्द वृत्ति नहीं है म आ /६३१ जो ज? जहा लवधं गेण्हदि आहारमुवधियादीय। समणगुणमुक्कजागी ससारपबढओ होदि ॥६३१॥ जो साधु जिस शुद्धअशुद्ध देश में जैसा कैसा शुद्ध-अशुद्ध मिला आहार व उपकरण प्रहण करता है. वह श्रमण गुणसे रहित योगी संसारको बढानेवाला ही होता है। प.प्र./मू /२/६१ जे जिण लिगु धरेवि मुणि इट्ठ परिग्गह लेति। यहि करविणु ते जि जिय सा पुणु छिद्दि गिलंति ॥११॥ -जो मुनि दिन
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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