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अपवाद
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भी संयमका जो कि शुद्धात्मतत्त्वका साधन होनेसे मूलभूत है, उसका छेद जेसे न हो उस प्रकार सयतको अपने योग्य अतिकर्कश आचरण ही आचरना, इस प्रकार उत्सर्ग है।
प्र. सा./ता वृ / २३० / ३१५/५ शुद्धात्मनः सकाशादन्यद्वाह्याभ्यन्तरपरिग्रहरूप सर्व स्याज्यमिरर 'निश्चयनय सर्वपरिस्यान परमोपेक्षासयमा वीतरागचारित्र शुद्धोपयोग इति यावदेकार्थ । शुद्धात्मा के सिवाय अन्य जो कुछ भी बाह्य अवभ्यन्तर परिग्रह रूप है, उस सर्व का त्याग ही उत्सर्ग है। निश्चयनय कहो या सर्व परित्याग कहो या परमोपेक्षा संयम कहो, या वीतरागचारित्र कहो या शुद्धोपयोग कहो, ये सम एकार्थवाची है।
२. अपवादमार्ग निर्देश
१. मोक्षमार्ग में क्षेत्र कालादिका विचार आवश्यक है
अन ध./५/६५/५५८ द्रव्य क्षेत्रं बल भावं काल वीय समीक्ष्य च । स्वा स्थाय या सर्व विशुद्धाशन सूची ॥३॥विचारपूर्वक आपरण करनेवाले साधुओंको आरोग्य और आत्मस्वरूप में अवस्थान रखनेके लिए द्रव्य क्षेत्र, काल, भाव, बल और वीर्य इन छ' बातो का अच्छी तरह पर्यालोचन करके सर्वाशन, विद्वाशन और शुद्धाशन के द्वारा आहारमें प्रवृत्ति करना चाहिए। (अन ध. /७/१६-१७) । २. अपनी शक्तिका विचार आवश्यक है।
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घ १३/५.४,२८/५/१२ पित्तप्यको उपवास अक्खयेहि बज्राहारग उवासादो अहियपरिस्समेहि" । जो पित्तके प्रकोपवश उपवास करनेमें असमर्थ है जिन्हे आधे आहारकी अपेक्षा उपवास करने अधिक थकान होती है उन्हे यह अनोदर्य तप करना चाहिए। अन २/५/२६-१०- पलेवाला. २/१ । म.सा./ता.वृ./२३० (असमर्थ पुरुषको अपवादमार्गका आश्रय लेना चाहिए दे. पहले सं. १/२) ।
३. आत्मोपयोग में विघ्न न पड़े ऐसा ही त्याग योग्य है। प्र. स./त.प्र./ २१५ तथाविधशरोरवृत्य विरोधेन शुद्धात्मद्रव्यनीरङ्ग निस्तरानुसारेण प्रवर्तमाने क्षपणे तथाविध शरीरकी वृत्तिके साथ विरोधरहित शुद्धात्म ध्यमें नोरंग और निस्तरंग विधान्तिकी रचनानुसार प्रवर्तमान अनदान में-
४. आत्मोपयोग में विघ्न पड़ता जाने तो अपवादमार्गका आश्रय करे
स्पा में / १२/१३८ पर उद्धृत 'सम्बर संजम संजमाओ बप्पाणमेव रविखज्जा । मुञ्चह अहवायाओ पुणो विसोही नयाविरई । मुनिको सर्व प्रकार से अपने सयमकी रक्षा करनी चाहिए। यदि सयमका पालन करने में अपना मरण होता हो तो सयमको छोडकर अपनी आत्माकी रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि इस तरह मुनि दोषों से रहित होता है। वह फिरसे शुद्ध हो सकता है, और उसके व्रत भगका दोष नहीं लगता ।
३. परिस्थितिवश साधुवृत्तिमे कुछ अपवाद
१९ कोटिको अपेक्षा ५ कोटि शुद्ध आहारका ग्रहण स्वा.मं. ११/१२८/६ यथा जेनानां सयमपरिपालनार्थ ममकोटिविशुद्धा हारग्रहणमुत्सर्ग। तथाविधद्रव्य क्षेत्र कालभावापत्सु च निपतितस्य मत्यन्तराभावे पञ्चकादियतया अनेषणीयमिवादः सोऽपि च संयमपरिपालनार्थमेव जैन मुनियों के वास्ते सामान्यरूपसे संयमकी रक्षा के लिए नम कोटिसे विशुद्ध आहार ग्रहण करने की विधि बतायी गयी है । परन्तु यदि किसी कारणसे कोई द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावजन्य आपदाओंसे ग्रस्त हो जाये और उसे कोई मार्ग 'सूफ न पड़े, तो ऐसी दशा में वह पाँच कोटिसे शुद्ध आहारका ग्रहण कर
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३ परिस्थितिवश साधुवृत्तिमे कुछ अपवाद
सकता है। यह अपवाद नियम है । परन्तु जैसे सामान्य विधि सयमको रक्षा के लिए है, वैसे ही अपवाद विधि भी रामकी राके लिए है।
२. उपदेशार्थ शास्त्र तथा वैयावृत्यर्थ औषध संग्रह भाग १००/२१३ किचित्कारणमुदिश्य ग्रहण परेषामापदेशम् आचार्या दिवैयावृत्त्यादिकं वा परिभुक्तं व्यवहृतम् । उवधि परिग्रहमौषधं अतिरिकज्ञानोपानि या अपुपधि ईषत्प रिग्रहम् ..बसतिरुच्यते । वर्जयित्वा आचरति । शास्त्र पढना, दूसरोको खोपदेश देना, आचार्योंकी वैयावृत्य करना इत्यादि कारणोंके उद्देश्यसे जो परिग्रह संगृहीत किया था, अथवा औषध व राद्वयतिरिष्ठ ज्ञानोपकरण और सयमोपकरण संग्रहीत किया था. उसका (इस सल्लेखनाके अन्तिम अवसरपर ) व्यागकर विहार करे । तथा परपरिग्रह अर्थात् सतिका भी त्याग करे।
३. क्षपकके लिए आहार आदि मांगकर लाना
भ आ/मू./१६२-६३८ पचारिजात अगिताए पाखोग्गं । छ दियमवगददोसं अमाइणो लद्धिसंपण्णा ॥ ६६२॥ चन्तारि जणा पाणयमुत्रकप्पंति अडिलाए पाओग्गं । छ दियमवगददोसं अमाइण । लद्धि संपणा॥६६॥ चचारि जना रक्त दवियमुपयं यं तेहि। अगिलाए अप्पमत्ता खवयस्स समाधिमिच्छति ॥ ६६४ ॥ काइयमादी सव्वं चत्तारि पदिट्ठवति खवयस्स । पडिलेहंति य उवधोकाले सेज्जुवधिसारं ॥ ६६५ ॥ ख़वगस्स घरदुबार सारवख तिजणा चत्तारि । चारि समोरवा रति णाए ॥६६६चार साम्र तो पक के लिए उद्गमादिदोषरहित आहार के पदार्थ (श्रावक के घर से माँगकर ) - लाते है। चार साधु पीनेके पदार्थ लाते है। कितने दिन तक लाना पड़ेगा, इतना विचार भी नही करते है । माया भाव रहित वे सुनि वात, पित्त, कफ सम्बन्धी दोषोको शान्त करनेवाले ही पदार्थ साते है। भिक्षा से सम्पन्न बर्बाद जिन्हें भिक्षा वासानी से मिल जाती है, ऐसे मुनि ही इस काम के लिए नियुक्त किये जाते हैं ॥६६२-६६३॥ उपर्युक्त मुनियों द्वारा लाये गये आहार पानकी चार मुनि प्रमाद छोडकर रक्षा करते है, ताकि उन पदार्थों में त्रस जीवोंका प्रवेश न होने पावे । क्योकि जिस प्रकार भी क्षपकका मन रत्नत्रयमें स्थिर हो वैसा ही वे प्रयत्न करते है ॥ ६६४॥ चार मुनि क्षपकका मलमूत्र निकालने का कार्य करते है तथा सूर्यके उदयकाल और अस्तकासके समय में वे वसतिका, उपकरण और सस्तर इनको शुद्ध करते हैं, स्वच्छ करते है ॥६६॥ चार परिचारक मुनि क्षपकको वसतिकाके दरवाजेका प्रयत्न से रक्षण करते है, अर्थात् असंयत और शिक्षकों को वे अन्दर आनेको मना करते है और चार मुनि समोसरणके द्वारका प्रयत्नसे रक्षण करते है, धर्मोपदेश देनेके मडपके द्वारपर चार सुनि रक्षण के लिए बैठते है ॥६६६० (भ.आ./मू./१९६३) । भ.आ./घू./१६७८/१७४२ नवस्यपदावणं उपसगहिदं सुतस्य उम करणं सामारिय च दुविहं पडिहारियमपडिहार मा ८३ = क्षपककी शुश्रूषा करनेके लिए जिन उपकरणोका सग्रह किया जाता था उनका वर्णन इस गाथामें किया गया है ! कुछ उपकरण गृहस्थोंसे लाये जाते थे जैसे औषध, जलपात्र, थाली वगैरह। कुछ उपकरण त्यागने योग्य रहते है. और कुछ उपकरण त्यागने योग्य नहीं होते । जोत्याज्य नहीं हैं वे गृहस्थोंको वापिस दिये जाते हैं। कुछ कपड़ा वगैरह उपकरण त्याज्य रहता है।
दे. लेखना / २ /१२ (गिनी मरण धारक क्षपक अपने सस्तरके लिए स्वयं गाँव से तृण माँगकर लाता है ।)
४. क्षपकको कुरले व तेलमदन आदि भ.आ./ /६८८ लक्सावादीहि य बहुसो गनुख्या दु चेतव्या जिभाकण्णाण मल होहि दि तुंडं च से विसदं ॥ ६८८॥ - तेल और कायले के को बहुत मार करने करने चाहिये। फुरसे करने से
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