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अनुप्रेक्षा
इसका पिता पुत्र वगैरह रूपसे सम्बन्ध नहीं हुआ ऐसा काल ही नहीं था, अत: सर्व जीव इसके सम्बन्धी है | १७६८॥ यह जगत् बिजलीके समान चंचल है, समुद्र के फेनके समान बलहीन है, व्याधि और मृत्युसे पीडित हुआ है। ज्ञानी पुरुष इसे दु खोसे भरा हुआ देखकर उसमें कैसी प्रोति करते है अर्थात् ज्ञानी इस लोकसे प्रेम नहीं करते । इसके ऊपर माध्यस्थभाव रखते है ।
ससि / ६ / ७ / ४१८ लोकसस्थानादिविधिर्व्याख्यात । समन्तादनन्तस्यालोकाकाशस्य बहुमध्यदेशभाविनो लोक्स्य संस्थानादिविधिख्यात । तत्स्वभावानुचिन्तन लोकानुरक्षा लोकवा आकार व प्रकृति आदिकी विधि वर्णन कर दी गयी है। अर्थात् चारो ओरसे अनन्त अलोकाकाशके बहुमध्य देशमें स्थित लोकके आकारादिक्की विधि कह दी गयी। उसके स्वभावका अनुचिन्तन करना लोकानुप्रेक्षा है (सूखा / ०११-०१४) (रा. वा /६/०८/२०१) (चासा / ११६/४) (पं.वि. / ६ / ५४ ) ( अन ध. ६/७६-७७) (भूधरकृत भावना स ५) । १३ संवरानुप्रेक्षा - १
निश्चय
बा अ / ६५ जीवस्स ण सवरण परमट्टणएण सुद्धभावादो। संवरभावविमुक्क अप्पाण चितये णिच्च ॥ ६५ ॥ शूद्ध निश्चय नयसे जीवके सबर हो नहीं है इसलिए संवरके विकल्पसे रहित आत्माका निरन्तर चिन्तवन करना चाहिए (ससा / १८१/क १२७)
खस / टी / ३५ / १११ अथ सवरानुप्रेक्षा कथ्यने-यथा तदेव जलपात्र छिद्रस्य कम्पने सति जलप्रवेशाभावे निर्विघ्नेन वेलापत्तनं प्राप्नोति । तथा जलपात्र निजशुद्धात्मवित्तिमतेन इन्द्रियायास द्राणी झम्पने पति जलाभावे निर्विघ्नेन केवलज्ञानानन्तगुणरत्नपूर्ण मुक्तिबेला पतन प्राप्नोति एवं संगतगुणानुचिन्तन संवरानुप्रेक्षा ज्ञातव्या । अब संवर अनुप्रेक्षा कहते है। वही समुद्रका जहाज अपने छेदोके बन्द हो जानेमे जलके न घुसनेमे निर्विघ्न वेलापत्तनको प्राप्त हो जाता है । उसी प्रकार जीवरूपी जहाज अपने शुद्ध आत्म ज्ञानके बल से इन्द्रिय आदि आसर्वाछिद्रोके मुँह बन्द हो जानेपर कर्मरूपी जल न घुसनेसे केवलज्ञानादि अनन्त गुण रत्नोसे पूर्ण मुक्तिरूपी वेलापत्तनको निर्विघ्न प्राप्त हो जाता है। ऐसे सबरके गुणोके चिन्तन रूप सवर अनुप्रेक्षा जाननी चाहिए ।
२ व्यवहार मा १४ होगे पविती संवरण कुणदि असहयोगस्म मुह जागस्स गिरा व सभो धम्म सुक्कच होदि जोवस्स । तम्हा संव रहेदू झाणो ति विचितये शिव ॥६४॥ मन, वचन, कायको शुभ प्रवृत्तियो अशुभपयोगका सबर होता है और केवल आरा के ध्यान रूप शुशुभयोग का संवर होता है ॥ ६३॥ इसके पश्चात शुद्धोपयोगसे जावके धर्मध्यान और शुक्लध्यान होते है । इसलिए सवरका कारण ध्यान है, ऐसा निरन्तर विचारते रहना चाहिए ॥ ६४॥
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स.सि / ६ / ७ / ४१७ यथा महार्णवे नावो विवरपिधानेऽसति क्रमात् तजलाभिप्लवे सति तदाश्रयाणा विनाशोऽवश्यभात्री, छिद्रपिधाने च निरुपद्रवमभिलषितदेशान्तरप्रापणं, तथा कर्मागमद्वारसवरणे सति नास्ति देव प्रतिबन्ध इति गुणानुचिन्तनं सवरानुमेया जिस प्रकार महानवमें नाव छिद्रके नहीं रुके रहनेपर क्रमसे झिरे हुए जलसे उसके व्याप्त होनेपर उसके आश्रयपर बैठे हुए मनुष्यों का विनाश अवश्यम्भावी है और छिद्र के रुके रहनेपर निरुपद्रव रूपसे अभिलषित देशान्तरका प्राप्त होना अवश्यम्भावी है। उसी प्रकार कर्मागमद्वारके रुके होनेपर कल्याणका प्रतिबन्ध नहीं होता। इस प्रकार सवरंके गुणोंका चिन्तवन करना सवरानुप्रेक्षा है। (भ आ./मू./१८३६-१८४४) (मु.आ./ ७३८-७४३) (रा. बा. / ६ / ७, ६/६०२ / ३२) ( चा सा / १६६/२) (पं. मि. /६/२) (अन. /६/०२-०३) (धरकृत १२ भावनाएँ) । १४ संसारानुप्रेक्षा-१. निश्चय
अ / १७ कम्मणिमित्तं जोवो हिंडदि ससारघोरकांतारे जीवस्स ण
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अनुप्रेक्षा
ससारो णिश्चयणयकम्मणिम्मुको ॥१७॥ यद्यपि यह जीव कर्मके निमित्तसे संसार रूपी बड़े भारी वनमे भटकता रहता है, परन्तु निश्चय नयसे यह कर्म से रहित है और इसीलिए इसका भ्रमण रूप सारसे कोई सम्बन्ध नहीं है ।
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इ. स. / टो. / ३५ / १०५ एव पूर्वोक्तप्रकारेण द्रव्यक्षेत्रकाल भवभावरूप पञ्चप्रकार सारं भावयतोऽस्य जीवस्य ससारातीतस्यशुद्धात्म विभि विनाशमेषु ससारवृद्धिकारणेषु मिथ्यात्वाविरतिमादाय परिणामो न जायते किन्तु खसारातीतसुखास्वादे रतो त्या स्वशुद्धात्मस वित्तिवशेन ससारविनाशक निज निरञ्जनपरमात्मनि एव भावना करोति । ततश्च यादृशमेव परमात्मन भावयति तादृशमेव लब्ध्वा ससार विलक्षणे मोक्षेऽनन्तकालं तिष्ठतीति । इति ससारानुप्रेक्षा गता । इस प्रकारसे द्रव्य क्षेत्र, काल, भव और भाव रूप पाँच प्रकार के ससारको चिन्तवन करते हुए इस जीवके, ससार रहित निज शुद्धात्म ज्ञानका नाश करनेवाले तथा ससारकी वृद्धिके कारणभूत जो मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कषाय और योग है उनमें परिणाम नहीं जाता, किन्तु वह संसारातीत सुखके अनुभवमें लीन होकर निज शुद्धात्मज्ञानके बल से ससारको नष्ट करनेवाले निज निरजन परमात्मामें भावना करता है। तदनन्तर जिस प्रकारके परमात्माको भाता है उसी प्रकार के परमात्माको प्राप्त होकर ससारसे विलक्षण मोक्षमें अनन्त काल तक रहता है । इस प्रकार ससारानुप्रेक्षा समाप्त हुई ।
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२. व्यवहार
बा अ / २४ पंचविहे ससारे जाइजरामरणरोगभयपउरे । जिणमश्गमपेछ तो जीवी परिभ्रमदि चिरकाल ॥२४॥ - यह जोव जिनमार्ग की ओर ध्यान नहीं देता है, इसलिए जन्म, बुढापा, मरण, रोग और भयसे भरे हुए पाँच प्रकारके ससारमे अनादि कालसे भटक रहा है। ससि / ६ / ७ / ४१५ कर्मविपाक्वशादात्मनो भवान्तरावाप्ति स्सार । स पुरस्तात्पञ्चविधपरिवर्तनरूपेण व्याख्या तस्मिन्नने+योनिल कोटिक संसारे परिभ्रम जीव पिता भूत्वा भ्राता पुत्र पौत्रश्च भवति । माता भूत्वा भगिनी भार्या दुहिता च भवति । स्वामी भूत्वा दासो भवति । दासो भूत्वा स्वाम्यपि भवति नट इव रङ्ग । अथवा कि बहुना, स्वयमात्मन पुत्रो भरतोत्वादि ससारस्यभावचिन्तनमनुप्रेक्षा कर्म विपाय वशसे आत्माको भवान्तर की प्राप्ति होना सो संसार है। उसका पहले पाँच प्रकारके परिवर्तन रूपमे व्याख्यान कर आये है । अनेक योनि और कुल कोटिलाख से व्याप्त उस संसार में परिभ्रमण करता हुआ यह जीव कर्मयन्त्र से प्रेरित होकर पिता होकर भाई, पुत्र और पौत्र होता है। माता होकर भगिनी, भार्या और पुत्री होता है। स्वामी होकर दास होता है तथा दास होकर स्वामी भी होता है। जिस प्रकार र गस्थल मे नट नाना रूप धारण करता है उसी प्रकार यह होता है । अथवा बहुत कहने से क्या प्रयोजन, स्वयं अपना पुत्र होता है । इत्यादि रूप से संसारके स्वभावका चिन्तन करना संसारानुप्रेक्षा है। (भ.आ / मू / १७६८- १७६७ ) ( मू आ / ७०३-७१० ) ( रा वा / १/७,३/६००-६०१) (चासा / १८६/५) पवि /६/४७) (अन ध / ६ / ६२-६५) ।
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रा बा ६/०२/२००/२८ चतुविधारावस्था ससार असंसार नोसंसार तत्रितयव्यपायश्चेति । तत्र संसारश्वतमृषु गतिषु नानायो निविकल्पासु परिभ्रमणम् अनागतिरससार । शिवपदपरमामृतसुखप्रतिष्ठा । नोस सार सयोगकेवलिन चतुर्गतिभ्रमणाभावात् अससारप्राप्त्याभावाच्च ईषत्ससारो नोसंसार इति । अयोगकेवलन तत्रितयव्यपाय | अभव्यत्वसामान्यापेक्षया ससारोऽनाद्यनन्त भव्य विशेषापेक्षया अनादिपर्यवसान । (नोस सारो जघन्येनान्तर्मुहूर्त उत्कृष्टेन देश | पूर्वकोटि साथि समान ससा जघन्येना उत्कृष्टे वागनकाल सच संसारो इयक्षेत्राभावभेदात् पञ्चविधो ॥ (चा सा ) । = आत्माकी चार अवस्थाएँ होती हैससार, अससार, नोसंसार और तीनोसे विलक्षण । अनेक योनि
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