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अनुभाग
अनुभाग
वावदाण जोव-गुणविणासयत्तविरहादो। जोवस्स मुंहविणासिय दुक्खप्पायय असादावेदणीय घादिववएस किण्ण लहदे। ण तस्स घादिकम्मसहायस्स घादिकम्मे हि विणा सकलकरणे असमस्थस्स सदो तत्थ पउत्ती णस्थि त्ति जाणाधण तब्बबएसाकरणादो।-प्रश्नजोवविपाकी नामम एवं वेदनीय कोंको धातिया कर्म क्यों नही माना । उत्तर-नही माना, क्यो कि, उनका काम अनात्मभूत सुभग दुर्भग आदि जोव की पर्याये उत्पन्न करना है, जिससे उन्हे जोवगुण विनाशक मारने में विरोध उत्पन्न होता है। प्रश्न- जोवके सुखको नष्ट करके दुख उत्पन्न करनेवाले असातावेदनीयको वातिया कर्मनाम क्यो नही दिया। उत्तर-नहीं दिया, क्योकि, वह घातियाकर्मोंका सहायक मात्र है और घातिया कर्मों के बिना अपना कार्य करने में असमर्थ तथा उसमें प्रवृत्ति रहित है। इसी बातको बतलानेके लिए असाता वेदनीयको घातिया कर्म नहीं कहा। ४. वेदनीय भी कथंचित घातिया है गो क / P९/१२ घादिव वेयणीयं मोहस्स बलेण धाददे जीवं। इदि घादीर्ण मज्झे मोहस्सादि म्हि पढिदं तु ॥१९॥ - वेदनीयकर्म घातिया कमवत मोहनीयकर्मका भेद जो रति अति तिनिके उदयकाल करि ही जीवको घाते है। इसी कारण इसको घाती कर्मोंके बीच में मोहनोयसे पहिले गिना गया है। ५. अन्तराय भी कथंचित अघातिया है गो क /मू /१७/११ घादीवि अघादि वा णिस्सेसं घादणे असक्कादो। णामतियणि मित्तादो विग्ध पडिदं अघादि चरिमम्हि ॥१७१ -अन्तरायकर्म घातिया है तथापि अघातिया कर्मवत है। समस्त जीवके गुण घातनेको समर्थ नाहीं है । नाम, गोत्र, वेदनीय इन तीन मनिके निमित्तते ही इसका व्यापार है। इसी कारण अघातियानिके पीछे
अन्त विर्ष अन्तराय कर्म कहा है। ध. १/१.१,१/४४/४ रहस्यमन्तराय', तस्य शेषघातित्रितयविनाशाविनाभाविनो भ्रष्टवोजवन्नि शक्तीकृताधातिकर्मणो हननादरिहन्ता। -रहस्य अन्तरायकर्मको कहते है। अन्तराय कर्मका नाश शेष तीन घातिया कर्मों के नाशका अविनाभावी है और अन्तरायकर्मके नाश होनेपर अघातिया कर्म भ्रष्ट बोजके समान निशक्त हो जाते है। ४. सर्वघाती व देशघाती अनुभाग निर्देश
१. सर्वघाती व देशघाती अनुभाग निर्देश रा.वा /८/२३,७/५८४/२६ धातिकाश्चापि द्विविधा' सर्वघातिका देशघातिकाश्चेति । घातिया प्रकृतियाँ भी दो प्रकार है-सर्वघाती व देशघाती। (ध.७/२,१,१५/६३/६) (गो क /जी प्र/३८६४८/२) ।
२. सर्वघाती व देशघातीके लक्षण क पा. ५/६३/३/११ सबघादि त्ति कि। सगपडिबद्ध जीवगुण सव्वंगिरवसेस घाइउ विणासि सील जस्स अणुभागस्स सो अणुभागो सब्ब घादो। -सर्वघाती इस पदका क्या अर्थ है, अपनेसे प्रतिबद्ध जीवके गुणको पूरी तरह से घातनेका जिस अनुभागका स्वभाव है उस
अनुभागको सर्वघाती कहते है। द्र. सं /टी /३४/६९ सर्वप्रकारेणात्मगुणप्रच्छादिका कर्मशक्तय सर्वघातिस्पर्द्धकानि भण्यन्ते, विवक्षितैकदेशेमारमगुणप्रच्छादिकाः शक्तयो देशघातिस्पर्द्धकानि भण्यन्ते। -सर्वप्रकारसे आत्मगुणप्रच्छादक कोंको शक्तियाँ सर्वघाती स्पर्धक कहे जाते है और विवक्षित, एकदेश रूपसे आत्मगुणप्रच्छादक शक्तियाँ देशघाती स्पर्द्धक कहे जाते हैं। ३. सर्वघाती व वेशघाती प्रकृतियोंका निर्देश प.स.प्रा/४८३-४८४ केवलणाणावरण दसणछक्कं च मोहवारसयं । ता सम्बधाइसण्णा मिस्स मिच्छत्तमेयवीसदिम ॥४८३॥ णाणावरणचउक्क दसतिगमंतराइगे पंच। ता होंति देशपाई सम्मं संजलण
णोकसाया य ४८४॥ -- केवलज्ञानावरण, दर्शनावरणषट्क अर्थाव पाँच निद्रायें व केवलदर्शनावरण, मोहनीयकी बारह अर्थात् अनन्तान मन्धी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान चतुष्क, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन २१ प्रकृतियोकी सर्वघाती संज्ञा है ॥४८॥ ज्ञानावरणके शेष चार, दर्शनावरणकी शेष तीन, अन्तरायकी पाँच. सम्यक्त्वप्रकृति, सज्वलनचतुष्क और नौ नोकषाय-ये .छब्बीस देशघाती प्रकृतियाँ है ॥१८॥ (रा वा /८/२३,७/५८४/३०) (गो क./ मू /३६-४०/४३) (प. स स./४/३१०-३१३)।। गो क /जी.प्र/५४६/७०८/१४ द्वादश कषायाण स्पर्धकानि सर्वधातीन्येव न देशघातीनि । बारह कषाय अर्थात अनन्तानबन्धी, अप्रत्याख्यान और प्रत्यारख्यान चतुष्कके स्पर्धक सर्वघाती ही है, देशघाती नहीं।
४. सर्व व देशघाती प्रकृतियों में चतुःस्थानीय अनुभाग ध.७/२,१,१५४६३/गा१४ सव्वावरणीय पूण उक्कस्सं होदि दारुगसमाणे। हेछा देसावरणं सव्वावरण च उवरिलं ॥१४॥ घातिया कर्मोंकी जो अनुभाग शक्ति लता, दारु, अस्थि और शैल समान कही गयी है, उसमें दारु तुल्यसे ऊपर अस्थि और शैल तुल्य भागोमें तो उत्कृष्ट सर्वावरणीय या सर्वघाती शक्ति पायी जाती है, किन्तु दारु सम भागके निचले अनन्तिम भागमें ( व उससे नीचे सब लता तृष्य भागमें ) देशावरण या देशघाती शक्ति है, तथा ऊपरके अनम्तमा भागोंमें (मध्यम ) सर्वावरण शक्ति है। गो क./मू १८०/२११ सत्ती य लदादारू अट्ठोसेलोवमाहु धादीणं दारु
अणं तिमभागोत्ति देसघादी तदो सव्यं । -घातिया प्रकृतियों में सवा दारु अस्थि व शैल ऐसी चार शक्तियाँ है। उनमें दारुका अनन्तिम भाग (तथा लता) तो देशघाती है और शेष सर्वधाती है। (.से.. टी./३३/६३)। क्ष सा./भाषा टी./४६/५४०/११ तहाँ जघन्य स्पर्धकर्मी लगाय अनन्त स्पर्धक लता भाग रूप है। तिनके ऊपर अनन्त स्पर्धक दारु भाग रूप हैं। तिनिके ऊपर अनन्त स्पर्धक अस्थि भाग रूप है । तिनिके ऊपर उत्कृष्ट स्पध क पर्यन्त अनन्त स्पर्धक शैल भाग रूप है। तहाँ प्रथम स्पर्धक देशघातीका जघन्य-स्पर्धक है तहाँ त लगाय लता भागके सर्व स्पर्धक अर दारु भागके अनन्तवाँ भाग मात्र (निचले) स्पर्धक देशघाती है। तहां अन्त विर्षे देशघाती उत्कृष्ट स्पर्धक भया । बहुरि ताके ऊपरि सर्वघातीका जघन्य स्पर्धक है। तातें लगाय उपरिके सब स्पर्धक सर्वघाती है । तहाँ अन्त स्पर्धक उत्कृष्ट सर्वघाती जानना। ५. कर्म प्रकृतियोमें यथायोग्य चतुःस्थानीय अनुभाग
१. ज्ञानावरणादि सर्व प्रकृतियोंकी सामान्य प्ररूपणा प.स प्रा./४/४८६ आवरणदेसघायंतरायसजलणपुरिससत्तरस । चउबिहभावपरिण या तिभावसेसा सयं तु सत्तहियं । “मतिज्ञानावरणादि चार, चक्षुदर्शनावरणादि तीन, अन्तरायकी पाँच, संज्वलन चतुष्क और पुरुषवेद, ये सत्तरह प्रकृतियाँ लता, दारु, अस्थि और शैल रूप चार प्रकारके भावोसे परिणत है। अर्थात इनका अनुभाग बन्ध एकस्थानोय, द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चेतु स्थानीय होता है। शेष १०७ प्रकृतियाँ दारु, अस्थि और शैलरूप तीन प्रकारके भावोंसे पारणत होती है । उ का एक स्थानीय-( केवल लता रूप) अनुभाग बन्ध नहीं होता ॥४८ क्ष. सा./भाषा टीका/४६५/५४०/१७ केवलके विना ध्यारि ज्ञानावरण, तीन दर्शनावरण, अर सम्यक्त्व मोहनीय, संज्वलन चतुष्क, नोकवाय नव, अन्तराय पाँच इन छब्बोस प्रकृतिनिकी लता समान स्पर्धककी प्रथम वर्गणा सो एक-एक वर्गके अविभाग प्रतिच्छेदकी अपेक्षा समान है। भहुरि मिथ्यात्व मिना केवलज्ञानवरण, केवलदर्शनावरण, निद्रा पाँच, मिश्रमोहनीय, संज्वलन भिना १२ काय इन सर्वधावी २०
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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