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अनेकान्त
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अनेकान्त
सभी अद्वैतवादो तथा सारूप दर्शन सग्रहनयको मानते हैं। चार्वाक लोग व्यवहारनयवादी है, बौद्ध लोग केवल ऋजुसूत्रनयको मानते है तथा वैयाकरण शब्दादि तीनो नयका अनुकरण करते है। नोट - [इन नयाभासोंके लक्षण (दे. नयIII)] । ३. अनेकान्तका कारण व प्रयोजन
१. अनेकान्तके उपदेशका कारण स सा./परि "ननु यदि ज्ञानमावत्वेऽपि आत्मवस्तुन स्वयमेवानेकान्त' प्रकाशते तर्हि किमर्थमर्ह द्भिस्तत्साधनत्वेनानुशास्यतेऽनेकान्त । अज्ञानिनां ज्ञानमात्रारमवस्तुप्रसिद्व्यर्थ मिति ब्रम । न स्वत्वनेकान्तमन्तरेण ज्ञानमात्रमात्मवस्त्वेव प्रसिध्यति । तथा हि-इह स्वभावत एव बहुभावनिर्भरविश्वे सवभावानां स्वभावेनाद्वैतेऽपि द्वैतस्य निषेद्ध मशक्यत्वात समस्तमेव वस्तु स्वपररूपप्रवृत्तिव्यावृत्तिभ्यामुभयभावाध्यासितमेव । = प्रश्न -यदि आत्मवस्तुको ज्ञानमात्रता होनेपर भी, स्वयमेव अनेकान्त प्रकाशता है, तब फिर अहन्त भगवान उसके साधन के रूपमें अनेकान्तका उपदेश क्यो देते है ? उत्तर-अज्ञानियोंके ज्ञानमात्र आत्मवस्तुका प्रसिद्धि करनेके लिए उपदेश देते है, ऐसा हम कहते है। वास्तव में अनेकान्तके बिना ज्ञानमात्र आरम वस्व ही प्रमिद नही हो सकती। इमोको इस प्रकार समझाते है। स्वभावसे ही बहुत-से भावोसे भरे हुए इस विश्व में सर्व भावीका स्वभावमे अद्वैत हानेपर भी, द्वेतका निषेध करना अशक्य होने से समस्त वस्तु स्वरूपमें प्रवृत्ति और पररूपमे व्यावृत्तिके द्वारा दानो भात्रोसे अध्यासित है। (अर्थात समस्त वस्तु स्वरूप में प्रवतमान होनेसे और पर रूपसे भिन्न रहनेमे प्रत्येक वस्तुमें दानों भाव रह रहे है)। पकात.प्र /१० अविशेषाद्रव्यस्य सत्स्वरूपमेव लक्षणम्, न चाने.
कस्य द्रव्यस्य सन्मात्रमेव स्वरूपम् । सत्तासे द्रव्य अभिन्न हानेके कारण सत् स्वरूप ही द्रव्य का लक्षण है, परन्तु अनेकान्तात्मक द्रव्यका सन्मात्र हो स्वरूप नहीं है। और भी दे नय I/२/५-(अनेक धर्मोंको युगपत् जाननेवाला ज्ञान ही प्रमाण हं।) और भी दे नय I/२/८ (वस्तुमें सर्व धर्म युगपत पाये जाते है।)
२ अनेकान्त के उपदेशका प्रयोजन न च वृ/२६०-२६१ तच्च पि हेयमियर हेयं खलु भणिय ताण परदब्ध । णिय दब पि य जाणसु हेयाहेयं च णयजोगे ॥२६०॥ मिच्छासरागभूयो हेयो आदा हवेई णियमेण । तबिवरीआ भेआ णायव्वा सिद्धिकामेंन ॥२६१॥-तत्त्व भी हेय और उपादेय रूपसे दो प्रकारका है। तहाँ परद्रव्यरूप तत्त्व तो हेय है और निजद्रव्यरूप तत्त्व उपादेय है। ऐसा नय योगमे जाना जाता है ॥२६॥ नियममे मिथ्यात्व व राग सहित
आत्मा हेय है और उसमे विपरीत ध्येय है ॥२६१॥ का.अ./मू /३११-३१२ जो तच्चमणेयत णियमा सहदि सत्तभगेहि । लोयाण पण्हवसदो ववहारपवत्तण च ॥३११॥ जो यायरेण मण्णदि जीवाजीवादि णव विह अत्थ । सुदणाणेण णएहि य सो सहिट्ठी हवे सुद्धो ॥३१२॥ - जो लोगों के प्रश्नोके वशसे तथा व्यवहार चलाने के लिए सप्तभगोके द्वारा नियमसे अनेकान्त तत्त्वका श्रद्धान करता है वह सम्यग्दृष्टि होता है ॥३११॥ जो श्रुतज्ञान तथा नयों के द्वारा जीवअजीव आदि नव प्रकारके पदार्थोंको आदर पूर्वक मानता है, वह शुद्ध सम्यकदृष्टि है ॥३१२॥ ३. अनेकान्तवादियोंको कुछ भी कहना अनिष्ट नहीं लो,वा.२/५.२-१४/१८० व्यक्तिरपि तथा नित्या स्यादिति चेत् न किचिदनिष्टं, पर्यायार्थादेशादेव विशेषपर्यायस्य सामान्यपर्यायस्यवानित्यत्वोपगमाव । प्रश्न -यदि कोई कहे कि इस प्रकार तो द्रव्यकी व्यक्तियें अर्थात घट पट आदि पर्यायें भी नित्य हो जायेंगी ! उत्तरहो जाने दो। हम स्याद्वादियोंको कुछ भी अनिष्ट नहीं है । हमने पर्यायार्थिक नयसे ही सामान्य व विशेष पर्यामोंको अनित्य स्वीकार किया है, द्रव्याधिक नमसे तो सम्पूर्ण पदार्थ नित्य हैं ही।
४. अनेकान्तकी प्रधानता व महत्ता स्व स्तो./६८ अनेकान्तात्मदृष्टिस्ते सती शुन्यो विपर्ययः । तत. सर्व मृषोक्तं स्यात्तदयुक्तं स्वधातत ॥१८-आपकी अनेकान्त दृष्टि सच्ची है । विपरीत इसके जो एकान्त मत है वह वन्यरूप असत है, अत'
जो कथन अनेकान्त दृष्टिसे रहित है, वह सम मिथ्या है। ध.१/१,१,२७/२२२/२ उत्सुत्तं लिहता आइरिया कथं बज्जभीरुणो । इदि चे ण एस दोसो, दोण्ह मज्झे एकस्सेव संगहे कीरमाणे बज्जभीरुत्तं णिवट्टति। दोण्हं पिसगह करताणमाइरियाणं वज्जभीरुत्ताविणासादो। प्रश्न-उत्सुत्र लिखनेवाले आचार्य पापभीर कैसे माने जा सकते है 1 उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि दोनों प्रकारके वचनोंसे किसी एक ही वचनके संग्रह करनेपर पापभीरुता निकल जाती है अर्थात उच्छ खलता आ जाती है। अतएव दोनों प्रकारके वचनोंका संग्रह करने वाले आचार्यों के पापभीरुता नष्ट नहीं होती है। गो क /मू /८/१०७४ एकान्तवादियोंका सर्व कथन मिथ्या और अने____ कान्तवादियोका सर्व कथन सम्यक है। (दे. स्याद्वाद५ । प्रमा/त.प्र /२७ अनेकान्तोऽत्र बलवान् । यहाँ अनेकान्त बलवान् है । प का /त प्र/२१ स खल्वयं प्रसादोऽनेकान्तवादस्य यदीदृशोऽपि विरोधी
न विरुध्यते । - यह प्रसाद वास्तवमें अनेकान्तवादका है कि ऐसा विरोव भो विरोध नहीं है । पध/पू/२२७ तत्र यतोऽनेकान्तो बलवानिह खलुन सर्वथे कान्तः । सर्व
स्यादविरुद्र तत्पूर्व तद्विना विरुद्ध स्यात् ॥२२७॥ =जेन सिद्धान्तमें निश्चयमे अनेकान्त बलवान है, सर्वथा एकान्त अलवान नही है । इसलिए अनेकान्त पूर्वक सब ही कथन अविरुद्ध फ्लता है और अनेकान्तके बिना सर्व हो कथन विरुद्ध हो जाता है। ४. वस्तुमे विरोधी धर्मोका निर्देश
१. वस्तु अनेकों विरोधी धर्मोंसे गुम्फित है स सा / /परि. "अत्र यदेव तत्तदेवातत्, यदेवैक तदेवानेक, यदेव सत्तदेवासत्, यदेव नित्य तदेवानित्यमित्येकवस्तु वस्तुत्वनिष्पादकपरस्परविरुद्धशक्तिद्यप्रकाशनमनेकान्त अनेकान्त । १/१ (स सा/आ/परि)। न्या.दी/३/१५७ सर्वस्मिन्नपि जीवादिवस्तुनि भावाभावरूपत्वमेकानेकरूपत्वं नित्यानित्यरूपत्व मित्येवमादिकमनेकान्तात्मकत्वम् । -सर्व ही जीवादि वस्तुओं मे भावपना-अभावपना, एकरूपपना-अनेकरूपपना. नित्यपना-अनित्यपना, इस प्रकार अनेकान्तात्मकपना है। प.ध/पू /२६२-२५३ स्यादस्ति च नास्तीति च नित्यमनित्यं त्वनेकमेक
च। तदतच्चेति चतुष्टययुग्मैरिव गुम्फित वस्तु ॥२६२॥ अथ तद्यथा यदस्ति हि तदेव नास्तीति तच्चतुष्कं च। द्रव्येण क्षेत्रेण च कालेन तथाथवापि भावेन ।२६३॥ - कथ चित है और नही है यह तथा नित्यअनित्य और एक-अनेक, तत-अतत इस प्रकार इन चारयुगलों के द्वारा वस्तु गंथी हुई की तरह है ॥२६२॥ इसका खुलासा इस प्रकार है कि निश्चयसे स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव इन चारोके द्वारा जो सत् है वही पर द्रव्यादिमे असत है। इस प्रकारसे द्रव्यादि रूपसे अस्तिनास्तिका चतुष्टय हो जाता है ॥२६३॥
२. वस्तु भेदाभेदात्मक है। यु.अनु./७ अभेदभेदात्मकमर्थ तत्त्वं, तव स्वतन्त्रान्यतरत्व पुष्पम् ॥ - हे प्रभु । आपका अर्थ तत्त्व अभेदभेदात्मक है। अभेदात्मक और भेदात्मक दोनोंको स्वतन्त्र स्वीकार करनेपर प्रत्येक आकाश पुष्पके समान हो जाता है।
३. सत् सदा अपने प्रतिपक्षीको अपेक्षा रखता है पं.का / ८ सत्ता सब पयत्था सव्विस्सरूवा अणतपज्जाया। भंगुष्पाद
धुवत्ता सप्पडिवक्खा व दि एक्का ॥८॥ सत्ता उत्पाद-व्यय-धौव्यास्मक, एक, सर्व पदार्थस्थित, सविश्वरूप, अनन्तपर्यायमय और सप्रतिपक्ष (क पा१/१-१/६/५३) (ध १४/५-६-१२८ १८/२३४)।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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