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अपकर्षण
३ अपसरण निर्देश
॥४२३॥ जं कम्ममुदयावलियम्भतरे ट्ठियं तमोक्कडणादो झीणहिदिये। जमुदयावलिबाहिरै ठ्ठिद तमोक्कड्डणादो अज्झीणछिदियं ॥४२४॥ -प्रश्न-वे कौनसे कर्मपरमाणु है जो अपकर्षणसे झीन (रहित) स्थितिवाले है ॥४२३॥ उत्तर-जो कर्मपरमाणु उदयावलिके भीतर स्थित हैं वे अपकर्षणसे झीन स्थितिवाले है और जा कर्मपरमाणु उदयावलिके बाहर स्थित हैं वे अपकर्षणसे अझीन स्थितिवाले है। अर्थात उदयावलिके भीतर स्थित कर्म परमाणुओका अपकर्षण नहीं होता, किन्तु उदयावलिके बाहर स्थित कर्मपरमाणुओंका अपकर्षण
हो सकता है। ३. अपसरण निर्देश १.चौंतीस स्थिति बन्धापसरण निर्देश
१ मनुष्य व तिर्यंचोंकी अपेक्षा ल.सा./मू. व जो प्र८18-१६/४७-५३ केवल भाषार्थ "प्रथमोपशम सम्यक्वको सन्मुख भया मिथ्यादृष्टि जीव सो विशुद्धताकी वृद्धिकरि वर्द्धभान होता सता प्रायोग्यलन्धिका प्रथम समयतें लगाय पूर्व स्थिति बन्धकै (1) संख्यातवें भागमात्र अन्त'कोटाकोटी सागर प्रमाण आयु विना सात कर्मनिका स्थितिबन्ध करै है तिस अन्त'कोटाकोटी सागर स्थितिबन्ध ते पत्यका संख्यातवां भागमात्र घटता स्थितिबन्ध अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त समानता लिये करै । बहुरि तातें पत्यका संख्यातवा भागमात्र घटता स्थितिबन्ध अन्तर्मुहर्त पर्यन्त रै है। ऐसे क्रम संख्यात स्थितिबन्धापसरणनि करि पृथक्त्वसौ (८०० या ६००) सागर घटै पहिला स्थिति बन्धापसरण स्थान होइ । २ बहुरि तिस हो क्रमते तिस ते भी पृथक्त्वसौ घटै दूसरा स्थितिबन्धापसरण स्थान हो है। ऐसे इस हो क्रमतें इतना-इतना स्थिति मन्ध घट एक-एक स्थान होइ । ऐसे स्थिति बन्धापसरणके चौतीस स्थान होइ । चौतीस स्थाननिविर्षे कैसी प्रकृतिका (बन्ध ) व्युच्छेद हो है सो कहिए ॥१०॥ १. पहिला नरकायुका व्युच्छित्ति स्थान है। इहां तै लगाय उपशम सम्यक्त्व पर्यन्त नरकायुका बन्धन होइ, ऐसे ही आगे जानना। २. दूसरा तिर्यंचायुका है। (इसी क्रमसे) ३ मनुष्यायः ४. देवायु: ५. नरकगति व आन पूर्वी; ६ संयोगरूप सूक्ष्म अपर्याप्त साधारण (संयोग रूप अर्थात तीनोंका युगपत बन्ध);७. संयोगरूप सूक्ष्म अपर्याप्त प्रत्येक; ८. सयोगरूप बादर अपर्याप्त साधारण: संयोगरूप बादर अपर्याप्त प्रत्येक; १०. संयोगरूप वेइन्द्रिय अपर्याप्त ११. संयोगरूप तेइन्द्रिय अपर्याप्त; १२ संयोगरूप चौइन्द्रिय अपर्याप्त; १३. संयोगरूप असंज्ञी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तः १४ संयोगरूप संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्त ॥११॥ १५ सयोगरूप सूक्ष्म पर्याप्त साधारण; १६. संयोगरूप सूक्ष्म पर्याप्त प्रत्येक; १७. संयोगरूप बादर पर्याप्त साधारण; १८. स योगरूप वादर पर्याप्त प्रत्येक एकेन्द्रिय आतप स्थावरः १६. संयोगरूप वेइन्द्रिय पर्याप्त: २०. संयोगरूप तेइन्द्रिय पर्याप्तः २१. चौइन्द्रिय पर्याप्त, २२, असंज्ञी, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त ॥१२॥ २३ संयोगरूप तिथंच व आन पूर्वी तथा उद्योत; २४ नीच गोत्र; २५. संयोगरूप अप्रशस्त विहायोगति दुर्भग-दुःस्वरअनादेय, २६. हुंडकसंस्थान, सृपाटिका सहनन, २७. नपुंसकवेद; २८. वामन संस्थान, कीलित संहनन; ॥१३॥ २६. कुब्जक संस्थान, अर्धनाराच संहननः ३० स्त्रीवेद: ३१ स्वाति संस्थान, नारोच सहनन. ३२. न्यग्रोध संस्थान. वज्रनाराच संहनन; ३३. संयोगरूप मनुष्यगति व आनुपूर्वी-औदारिक शरीर व अगोपांग-बज्र-वृषभनाराच संहननः ३४. संयोगरूप अस्थिर-अशुभ-अयश- ॥१४॥ अरति-शोक असाता-। ऐसे ये चौतीस स्थान भव्य और अभव्यके समान हो है ॥१५॥ मनुष्य तियानक तो सामान्योक्त चौतीस स्थान पाइये है तिनके ११७ बन्ध योग्यमें-से ४६ की व्युच्छित्ति भई, अवशेष ७१ बान्धिये है ॥१६॥ (ध.६/१,६-२, २/१३५/५) (ल.सा./२२२-२२३/२६७) (क.पा.स./१०-१४/४०/५. ६१७६१६) (म.न./पु,२/११५-११६) ।
२. भवनत्रिक व सौधर्म युगलको अपेक्षा ल.सा /मू.व.टी./१६/५३ केवल भाषार्थ “भवनत्रिक व सौधर्म युगलविरें दूसरा, तीसरा अठारहवाँ और तेईसवाँ आदि दस (२३-३२) और अन्तका चौतीसवाँ ये चौदह स्थान ही सभव है। तहाँ ३१ प्रकृतिनि की व्युच्छित्ति हो है और बन्ध योग्य १०३ विर्षे ७२ प्रकृतिनिका बन्ध अवशेष रहे है ॥१६॥ ३. प्रथम छह नरकों तथा सनत्कुमारादि १० स्वर्गोको
अपेक्षा ल, सा /म. व टी /१७/५४ केवल भाषार्थ- "रत्नप्रभा आदि छह नरक पृथिवी निविष और सनत्कुमार आदि दश स्वर्गनिविर्षे पूर्वोक्त ( भवनत्रिकके ) १४ स्थान अठारहवे बिना पाइये है। तिनि तेरह स्थाननिकरि अठाईस प्रकृति व्युच्छित्ति हो है। तहाँ बंधयोग्य १०० प्रकृतिनिविर्षे ७२का बन्ध अवशेष रहे है ॥१७॥
४. आनतसे उपरिम वेयक तककी अपेक्षा ल.सा/मू व टी./१८/५५ केवल भाषार्थ-"आनत स्वर्गादि उपरिम घेवे
यक पर्यन्त विषै (उपरोक्त) १३ स्थान दूसराव तेईसवाँ मिना पाइये। तहाँ तिनि ग्यारह स्थाननिकरि चौबीस घटाइ मन्धयोग्य ६६ प्रकृतिनिविषै ७२ बाँधिये है ॥१८॥
५. सातवी पृथिवीकी अपेक्षा ल.सा./म.व.टी/१६/५५ केवल भाषार्थ-"सातवीं नरक पृथिवी विषै जे (उपरोक्त) ११ स्थान तीसरा करि हीन और दूसरा करि सहित तथा चौबीसवाँ करि हीन पाइये। तहाँ तिनि १० स्थाननि करि तेईसवाँ उद्योत सहित ये चौबीस घटाइ मन्ध योग्य ६६ प्रकृतिनिविर्षे ७३ वा ७२ बाँधिये है, जानै उद्योतको बन्ध वा अबन्ध दोनों संभवे है ॥१६॥
२.स्थिति सत्वापसरण निर्देश क्ष.सा /मू व.टी./४२७-४२८/५०६ केवल भाषार्थ - "मोहादिकका क्रम लिए जो क्रमकरण ( दे क्रमकरण ) रूप बन्ध भया, तातै पर इस ही क्रम लिये तितने ही संख्यात हजार स्थिति बन्ध भये असंही पंचेन्द्रिय समान (सागरोपमलक्षपृथक्त्व ) स्थिति सत्व है। बहुरि तात परै जैसे-जैसे मोहनीयादिकका क्रमकरण पर्यन्त स्थिति बन्धका व्याख्यान किया तैसे ही स्थिति सत्त्वका होना अनुक्रम तें जानना । तहाँ एक पाय स्थिति पर्यन्त पत्यका संख्यातवाँ भागमात्र तातें दूरापकृष्टि पर्यन्त पन्यका संख्यातवा भागमात्र, तारौं संख्यात हजार वर्ष स्थिति पर्यन्त पक्ष्यका असंख्याता बहुभागमात्र आयाम लिये जो स्थिति बन्धापसरण तिनिकरि स्थिति बन्धका घटना कहा था, तैसे ही इहाँ तितने आयाम लिये स्थिति काण्डकनिकरि स्थितिसत्त्वका घटना हो है। बहुरि तहाँ संख्यात हजार स्थिति बन्धका व्यतीत होना कहा तैसे इहाँ भी कहिए है, वा तहाँ तितने स्थिति काण्डनिका व्यतीत होना कहिए । जातें स्थिति मन्धापसरण
और स्थितिकाण्डोत्करणका काल समान है। बहुरि तहाँ स्थिति बन्ध जहाँ कह्या था यहाँ स्थिति सत्व तहाँ कहना। बहरि अक्प बहुत्व त्रैराशिक आदि विशेष मन्धापसरणबत ही जानना। सो स्थिति सत्त्वका क्रम कहिए-प्रत्येक संख्यात हजार काण्डक गये क्रमते असंज्ञी पंचेन्द्रिय,चौइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, वे इन्द्रिय, एकेन्द्रियनिकै स्थिति बन्ध के समान कर्मनिकी स्थिति सत्त्व हजार, सौ, पचास पच्चीस, एक सागर प्रमाण हो है। बहुरि संख्यात स्थिति काण्डक भये बोसयनि (नाम गोत्र )का एक पल्य : तीसियनि (ज्ञानाबरण, दर्शनावरण. वेदनीय, अन्तराय) का ज्योढ पग, मोहका दोय पण्य स्थिति सत्त्व हो है। १. तातै पर पूर्व सत्वका संख्यात महभागमात्र एक काण्डक भये बीसयनिका पक्ष्य के संख्यात भागमात्र स्थिति सत्त्व भया तिस कालविर्षे मीसयनिकेत तीसयनिका संख्यात
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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