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अपकर्षण
४ नगामात गा काण्डकघात निर्देश
गुणा मोहका विशेष अधिक स्थिति सत्त्व भया। २ बहुरि इस क्रमतै संरण्यात हजार स्थिति काण्ड भये तीसयनिका (एक ) पल्यमात्र, मोहका विभाग अधिक पल्य (१७) मात्र स्थिति सत्त्व भया। ताके पर एक काण्डक भ ये तीसयनिका भी पत्यके संरख्यात भागमात्र स्थिति सत्व हो है । तिस समय बीमयनिका म्तोक ताते तीसयनिका संख्यातगुणा तातें मोह का संख्यातगुणा स्थिति सत्त्व हो है। ३ बहुरि इस क्रम लिये सख्यात स्थितिकाण्डक भरी महका पल्यमात्र स्थिति सत्त्व हो है। बहुरि एक कडक भये माहका भो पल्यके सरख्यातवे भागमात्र स्थिति सत्य हो है। ती हि समय सातो कर्मनिका स्थिति सत्व पत्यके सख्यातवे भागमात्र भा। तहाँ वीसयनिका स्तोक, तीमगनिका सरव्यातगुणा तातै मोहका सरूपातगुणा स्थिति सत्त्व हो है। ४ तातै पर इस क्रम लिये सख्यात हजार स्थिति काण्डक भये बोसयनिका स्थितिसत्त्व दूरापकृष्टिको उसलं घि पत्यके असंख्यातवे भागमात्र भया। तिस समय बासयनिका स्तोक ताते तोसयनिका अस ख्यातगुणा ताते माहकासंख्यातगुणा स्थिति सत्व हो है। ५ ताते पर इस क्रम लिये सख्यात हजार स्थितिकाण्डक भये तीसयनिका स्थितिसत्त्व दूरापकृष्टिको उनलंघि पत्य के असख्यात भागमात्र भया। तब सर्व ही
मनिका स्थितिसत्त्व पत्यके अमरख्यातवे भागमात्र भया। तहाँ बोसयनिका स्तोक तातै तीसयनिका असख्यातगुणा तातै माहका असख्यातगुणा स्ििथत सत्व हो है। ६ बहुरि इस क्रमकरि सख्यात हजार स्थितिकाण्डक भये नाम-गोत्रका स्तक तात मोहका असंख्यात गुणा तातै तोसयनिका असरूपातगुणा स्थितिसत्त्व हो है । ७. बहुरि इस क्रम लिये सरण्यात हजार स्थितिकान्डक भये मोहका स्तोक तातै बोस नका अस ख्यातगुणा तातै तोसयनिका अस ख्यातगुणा स्थितिसत्त्व हो है। ८. बहुरि इस क्रम लिये सख्यात हजार स्थिति काण्डक भये मोह का स्तोक तातै बीसयनिका अस ख्यातगुणा ताते तीन घातियानिका असरख्यातगुणा तातै वेदनीयका असंख्यातगुणा स्थितिसत्त्व हो है। ६. बहुरि इस क्रम लिये सख्यात हजार स्थितिकाण्डक भये मोहका स्तोक तातै तीन घातियानिका असख्यातगुणा सात नाम-गोत्रका असरण्यातगुणा तातै बेदनीयका विशेष अधिक स्थितिसत्त्व हो है। १० ऐसे अंतविषै नामगोत्रत वेदनीयका स्थितिसत्त्व साधिक भया तब मोहादिकै क्रम लिये स्थिति सत्त्वका क्रमकरण भगा ॥ ४२७॥ बहुरि इस क्रमरणत परै सरख्यात हजार स्थितिबन्ध व्यतीत भये जो पल्य का अस ख्याता भागमात्र स्थितिहोइ ताकौ होते सतै तहाँ असख्यात समय प्रवदनिकी उदरणा हो है। इहाँ ते पहिले अपकर्षण क्यिा द्रव्यको उदयालो विर्षे देनेके अर्थि असरख्यात लोकप्रमाण भागहार सभः था। तहाँ समयप्रबद्धके अस ख्यातवा भाग मात्र उदीरणाद्रव्य था। अब तहाँ पत्यका अस. ख्यातवॉ भागप्रमाण भागहार होनेत असण्यात समयप्रबदमात्र उदोरणाद्रध्य भया ॥४२८॥ ३ ३४ बन्धापसरणोको अभव्योंमें संभावना व असंभा
वना संबन्धी दो मत
१. अभव्यको भी सभव है ल सा /मू /१५/४७ बंधापसरण स्थानानि भव्याभव्येषु सामान्यानि ।चौतीस बन्धापसरणस्थान भध्य वा अभव्य के समान हो है।
२ अभव्यका सभव नही म.ब.३/११/११ पचिदियाण सपणीण मिच्छादिट्ठीण अभवसिद्धिया. पाओग्ग अतोकोडाकोडिपुधत्तं बंधमाणस णरिथ हिदिवधवाच्छेदो। -पंचेन्द्रिय संज्ञी मिपादृष्टि जीवोमे अभन्यो के योग्य अन्त कोडाको डीपृथक्त्वप्रमाण स्थितिका बन्ध करनेवाले जीव के स्थितिकी बन्ध व्युच्छित्ति नहीं होती है।
४. व्याघात या काण्डकघात निर्देश
१. स्थितिकाण्डक घात विधान ल सा /म-६०/१२ केबल भाषार्थ “जहा स्थिति काण्डक्यात ह इ सो व्याघान कहिए । तहाँ कहिए है-कोई जीव उत्कृष्ट स्थिति बान्धि पीछे क्षयोपशमन ब्धिकरि विशुद्ध भया तब बन्धी थी जा स्थिति तीही विषै बाधरूप बन्धाचलीको व्यतीत भये पीछे एक अन्तमहत कालकार स्थिति काण्डका घात किया। तहाँ जो उत्कृष्ट स्थितिबाधा थी, तिस विर्षे अन्त काटाकोटी सागर प्रमाण स्थिति अवशेष रारिख अन्य सर्व स्थितिका घात तिस काण्डक करिहा है। तहाँ काण्डकवि जेती स्थिति घटाई ताके सर्व निषेकनिका परमाणूनिको समय समय प्रति अस् ख्यातगुणा क्रम लिये, अवशेष गस्वी स्थितिविध अन्तर्महुर्त पर्यन्त निक्षेपण करिए है। सो समय-समय प्रति जो द्रव्य निक्षेपण किया सोई फालि है। तहाँ अन्तको फालिविषै, स्थितिके अन्त निषेक्का जो द्रव्य ताकौ प्रहि अवशेष राखी स्थितिवि दिया। तहाँ अन्त कोटाकोटी सागर करि हीन उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण उत्कृष्ट अतिस्थापना हो है, जाते इस विष मो द्रव्य न दिया। इहाँ उत्कृष्ट स्थितिविष अन्त कोटाकोटी सागरमात्र स्थिति अवशेष रही तिसविधे द्रव्य दिया, सो यहू निक्षेप रूप भया। तातै यह घटाया अर एक अन्त निषेकका द्रव्य ग्रह्या ही है तातै एक समय घटाया है अक सदृष्टिकरि जैसे हजार समयनिकी रितिविषै काण्ड पार कर सौ समयकी स्थिति राखी। (तहाँ सौ समय उत्कृष्ट निधेष रूप रहे अर्थात्, हजारवॉ समय सम्बन्धी निषेक्का द्रव्यको आदिके सौ समयसम्बन्धी निषेकनिवि दिया)। तहाँ शेष बचे ८६६ मात्र समय उत्कृष्ट अतिस्थापना हो है ॥५६-६०॥ सत्तास्थितनिषेक-० . उत्की रित निषेक-x
अन्तिम निषेक नोट - [अव्याधात विधानमे अतिस्था- कुल स्थिति-(आबाधाx पना केवल आवन्नी + निक्षेपकाल+१अन्तिम x मात्रथी और निक्षेप : निषेकका समय) एक एक समय बढ़
इतनी स्थिति प्रण ता हुआ लगभग पूर्ण स्थिति प्रमाण ही
र नष्ट हो गई। रहता था, इसलिए तहाँ स्मितिका घात होना गभव न था। शितिघटाकरशेष डॉ प्रदेशोका अप
रारवी स्थिति कर्षण ता हुआ पर स्थितिका नही।
अन्त हर्ल जमाण ००० यहाँ स्थित 'वाण्डकघात काल" ००० काण्डक घात विष आबाधा आवली निक्षेप अत्यन्त अल्प है और शेष सर्व स्थिति अतिस्थापना रूप रहती है, अर्थात अपकृय द्रव्य केवल अल्प मात्र निषेको में ही मिलाया जाता है शेष सर्व स्थितिमे नही। उस स्थानका द्रव्य हटा कर निक्षेषमे मिला दिया और तहाँ दिया कुछ न गया । इसलिए वह सर्वस्थान निषेकोसे शून्य हो गया। यही स्थितिका घटना है। ( दे अपर्षण/२/१)। से अव्याघात विधान में आवली प्रमाण उत्कृष्ट अतिस्थापना प्राप्त होने के पश्चात्, ऊपरका जो निषेक उठाया जाता था उसका समय तो अतिस्थापनाके आवली प्रमाण समयो में से नीचेका एक समय निक्षेप रूप बन जाता था। क्योकि निक्षेप रूप अन्य निषेको के साथ-साथ उसमें भी अपकृष्ट द्रव्य मिलाया जाता था। इस प्रकार अतिस्थापनामें तो एक-एक समयकी वृद्धि व हानि बराबर अनी रहने के कारण वह ता
टअतिस्थापना
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०००००००० ००००००००
उत्कर
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