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अपकर्षण
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४. व्याधात या काण्डकघात निदेश
अन्त तक आवली प्रमाण ही रहती थी, और निक्षेपमें बराबर एकएक समय की वृद्धि होने के कारण वह कुल स्थितिसे केवल अतिस्थापनावनी करि हीन रहता था। यहाँ व्याधात विधान विषे उलटा क्रम है। यहाँ निक्षेपमें वृद्धि होने की बजाये अतिस्थापनामें वृद्धि होती है। अपकर्षण-द्वारा जितनी स्थिति शेष रखी गयी उतना ही यहाँ उत्कृष्ट निक्षेप है। जघन्य निक्षेपका यहाँ विकल्प नहीं है। तथा उससे पूर्व स्थितिके अन्तिम समय तक सर्वकाल अतिस्थापना रूप है। यहाँ ऊपरवाले निषेकोका द्रव्य पहिले उठाया जाता है और नीचे वालोका क्रम पूर्वक उसके पीछे । अव्याघात विधानमें प्रति समय एक ही निषेक उठाया जाता था पर यहाँ प्रति समय असंख्यात निषेकोका द्रव्य इकट्ठा उठाया जाता है । एक समय में उठाये गये सर्व द्रव्यको एक फालि कहते है। व्याघात विधानका कुल काल केवल एक अन्तर्मुहूर्त है, जिसमें कि उपरोक्त मर्व स्थितिका घात करना इष्ट है । अन्तर्मुहूर्त के असख्यातों खण्ड हैं । प्रत्येक खण्डमें भी प्रति समय एक एक फालिके क्रमसे जितना द्रव्य समय उठाया गया उसे एक काण्डक कहते हैं। इस प्रकार एक एक अन्तर्मुहूर्त में एक एक काण्डकका निक्षेपण करते हुए कुल व्याघातके काल में असंख्यात काण्डक उठा लिये जाते है, और निक्षेप रूप निषेकोंके अतिरिक्त ऊपर के अन्य सर्व निषेकों के समय कार्माण द्रव्यसे शुन्य कर दिये जाते है । इसीलिए स्थितिका धात हुआ कहा जाता है। क्योंकि इस विधानमें काण्डक रूपसे द्रव्यका निक्षेपण होता है. इसलिए इसे काण्डक वात कहते है, और स्थितिका घात होनेके कारण व्याघात कहते हैं ।)
२. कान्डकघातके बिना स्थितिघात सम्भव नहीं घ १२/४.२.१४.३०/४८६/८ खडयधादेण विणा कम्पट्टिदीए घादाभावादो।
- काण्डकघातके बिना कर्मस्थितिका घात सम्भव नहीं है। ३. आयुका स्थितिकाण्डकघात नहीं होता घ ६/१,६-८०/२२४/३ अपुवकरणस्स आयुगवज्जाणे सव्वकम्माण ट्ठिदिखंडओ होदि । -- (अपूर्वकरणके प्रकरण में ) यह स्थितिखण्ड आयु कर्मको छोडकर शेष समस्त कर्मोंका होता है। (अन्यत्र भी सर्वत्र यह नियम लागू होता है।
४.स्थितिकाण्डकघात व स्थिति बन्धापसरणमें अन्तर क्ष, सा./मू. ४१८/४६ बधोसरणा बधो ठिदिखंई संतमोसरदि ॥४१८॥
-स्थितिबन्धापसरण करि स्थितिबन्ध घट है और स्थिति काण्डकनिकरि स्थितिसत्त्व घटै है। नोट-(स्थिति बन्धापसरणमें विशेष हानिकमसे बन्ध घटता है और स्थितिकाण्डकघातमें गुणहानिक्रमसे
सत्त्व घटता है।) ल. सा जी प्र./७४/११४ एकैकस्थितिखण्डनिपतनकाल , एककस्थितिबन्धापसरणकालश्च समानावन्तर्मुहूर्तमात्रौ। - जाकरि एक बार स्थिति सत्त्व घटाइये ऐसा कान्डकोत्करणकाल और जाकरि एक बार स्थितिबन्ध घटाइये सो स्थिति बन्धापसरणकाल ए दोऊ समान है, अन्तर्मुहूर्त मात्र है। ५. अनुभागकाण्डकघात विधान ल.सा/मू व टोका ८०-८१/११४-११६केवल भाषार्थ ' अप्रशस्त जे असाता प्रकृति तिनिका अनुभाग काण्डकायाम अनन्तबहुभागमात्र है। अपूर्वकरणका प्रथम समय विर्षे (चारित्रमोहोपशमका प्रकरण है ) जो पाइए अनुभाग सत्त्व ताकौ अनन्तका भाग दीए तहाँ एक काण्डक करि बहुभाग घटावै। एब भाग अवशेष राखे है। यह प्रथम खण्ड भया। याको अनन्तका भाग दीए दूसरे काण्डक करि बहुभाग घटाइ एक भाग अवशेष राखे है। ऐसे एक एक अन्तर्मुहूर्त करि एक एक अनुभाग काण्डकघात हो है। तहाँ एक अनुभाग काण्डकोत्करण काल विर्षे समय-समय प्रति एक-एक फालिका घटावना हो है 1200 अनुभागको प्राप्त ऐसे कर्म परमाणु सम्बन्धी एक गुणहानिविर्षे
स्पर्धकनिका प्रमाण सो स्तोक है। हासे अनन्त गुणे अतिस्थापनारूप स्पर्धक हैं। तातें अनन्तगुणे निक्षेप स्पर्धक है। तात अनम्तगुणा अनुभाग काण्डकायाम है। इहाँ ऐसा जामना कि कर्मनिके अनुभाग विर्षे अनुभाग रचना है। तहाँ प्रथमादि स्पर्धक स्तोक अनुभाग युक्त है। ऊपरिके स्पर्धक बहु अनुभाग युक्त हैं। ऐसे तहाँ तिनि सर्व स्पर्ध कनिकौ अनन्तका भाग दिये महुभागमात्र जे ऊपरिके स्पर्धक, तिनिके परमाणूनिको एक भागमात्र जे निचले स्पर्धक तिनि विर्षे, केतेइक ऊपरिके स्पर्धक छोडि अवशेष निचले स्पर्धकनिरूप परिणमावै है। तहाँ केतेइक परमाणु पहिले समय परिणमावै है, केतेइक दूसरे समय परिणमावै हैं। ऐसे अन्तर्महुर्त कालकरि सर्व परमाणू परिणमाइ तिनि उपरिके स्पर्ध कनिका अभावकर है।तिनिका द्रव्यको जे काण्डकघात भये पीछे अवशेष स्पर्धक रहै तिनिविष तिनि प्रथमादि स्पर्धकनिविर्षे मिलाया, ते तो निक्षेप रूप है. अर मिनि ऊपरिके स्पर्धकनि विर्षे न मिलाया ते अत्तिस्थापना रूप है। (क्ष.सा/म.व टी/४०८४०६/४६३)
६. अनुभाग काण्डकषात व अयवर्तनधातमें अन्तर ध. १२/१,२.७,४१/३२/१ एसो अणुभागख डयघादो त्ति किण्ण बुञ्चदे । ण, पारद्धपढमसमयादो अंतोमुहत्तेण कालेण जो धादो णिप्पज्वदि सो अणूभागव वादो जाम, जो पुण उक्कोरणकालेण विणा एगसमरणेव पददि सा अणुसमओवट्टणा । अण्णं च, अणुसमोबट्टणाए णियमेण अणता भागा हम्मंति, अणुभागवंडयघादे पुण णत्थि ऐसो णियमो, छबिहहाणीएखडयघादुवलभादो।प्रश्न-इसे (अनसमयापवर्तनाघातको) अनुभागकाण्डकघात क्यों नहीं कहते ' उत्तर-नहीं, क्योंकि, प्रारम्भ किये गये प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा जो घात निष्पन्न होता है, वह अनुभागकाण्डकघात है। परन्तु उरकीरण कालके बिना एक समय द्वारा हो जो घात होता है, वह अनसमयापवर्तना है। दूसरे अनुसमयापवतं नामें नियमसे अनन्त बहभाग नष्ट होता है परन्तु अनुभाग काण्डक्यातमें यह नियम नहीं है, क्योंकि छह प्रकारको हानि द्वारा काण्डकघात की उपलब्धि होती है। विशेषार्थ- काण्डक पोरको कहते है। कुल अनुभागके हिस्से करके, एक एक हिस्सैका फालि क्रमसे अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा अभाव करना अनुभाग काण्डक घात कहलाता है । और प्रति समय अनन्त बहुभाग अनुभागका अभाव करना अनुसमयापवर्तना कहलाती है। मुख्य रूपसे यही इम दोनों अन्तर है।
७. शुभ प्रकृतियों का अनुभाग घात नही होता ध १२/४.२,७.१४/१८/१ सुहाण पयडीणं विसोहिदो केवलिसमुग्धादेण
जे गणिरोहण वा अणुभागघादो णस्थि त्ति जाणवेदि । वीणकसायसजोगीसु द्विदिअणुभागधादेसु संतेसु वि सुहाणं पयडीणं अणुभागघादो त्ति सिद्ध द्विदि अणुभागवज्जिदे सुहाणं पयडीणमुकस्साणुभागो होदि णत्थि त्ति अत्थावत्तिसिद्ध-शुभ प्रकृतियों के अनुभागका घात विशुद्धि, केवल मुद्द्यात अथवा योगनिरोधसे नहीं होता। क्षीण कषाय और सयोगी गुणस्थानो में स्थितिघात व अनुभागघातके होनेपर भी शुभ प्रकृतियों के अनुभाग घात वहाँ नहीं होता, यह सिद्ध होनेपर 'स्थिति व अनुभागसे रहित अयोगी गुणस्थानमें शुभ प्रकृतियोका उत्कृष्ट
अनुभाग होता है, 'यह अर्थापत्तिसे सिद्ध है। ल.सा /मू./८०/११४ सुहपयडीणं णियमा णस्थि त्ति रसस्स बंडाणि ।
- शुभ प्रकृतियोंका अनुभागकाण्डकघात नियमसे नहीं होता है।
८. प्रदेशघातसे स्थिति घटती है, अनुभाग नहीं क.पा.१४-२२१६५७२/३३७/११ हिदीए इव पदेसगलणाए अणुभागधादो
णस्थि त्ति । प्रदेशोंके गलनेसे जैसे स्थितिघात होता है, वैसे प्रदेशोंके गलनेसे अनुभागका घात नहीं होता।
९. स्थिति व अनुभाग घातमें परस्पर सम्बन्ध ध.१/१,१,२७/२१६/१० अंतोमुहुत्तेण एक्केवक द्विदिकंडयं घादेतो
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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