________________
भनेकान्त
জনার
- जो सिद्धज्योति सुक्ष्म भी है और स्थूल भी है, शून्य भी है और परिपूर्ण भी है, उत्पाद-विनाशशाली भी है और नित्य भी है, सद्भावरूप भी है और अभावरूप भी है तथा एक भी है और अनेक भी है, ऐसा बह दृढ प्रतीतिको प्राप्त हुई अमतिक चेतन एव सुखस्वरूप सिद्ध ज्योति किसी बिरले ही योगी पुरुषके द्वारा देखी जाती है ॥१३॥ वह आत्मतत्त्व विनाशमे रहित होकर भी नाशको प्राप्त है, शून्य होकर भी अतिशयसे परिपूर्ण है तथा एक होकर भी अनेकताको प्राप्त है। इस प्रकार नय विवसे ऐसा मानने में कुछ भी विरोध नहीं आता है (गीता/१३/१४-१६) (ईशोपनिषद/८) (और भी दे, अनेकान्त/२/५) । २. सभी धर्मों में नही बल्कि यथायोग्य धर्मों में ही
अविरोध है ध १/१.१.११/१६७/३ अस्त्वेकस्मिन्नात्मनि भूयसा सहावस्थाना प्रत्यविरुद्धाना सभवो नाशेषाणामिति चेत्क एवमाह समस्तानाप्यवस्थितिरिति चैतन्याचैतन्यभव्याभव्यादिधर्माणामप्यक्रमणे कात्मन्यवस्थितिप्रसङ्गात् । किन्तु येषा धर्माणा नात्यन्ताभावो यस्मिन्नात्मनि तत्र कदाचित्क्वचिदक्रमेण तेषामस्तित्व प्रतिजानीमहे। = प्रश्न-जिन धोका एक आत्मामें एक साथ रहने में विरोध नहीं है, वे रहे, परन्तु सम्पूर्ण धर्म तो एक साथ एक आत्मामें रह नहीं सक्ते है । उत्तरकौन ऐसा कहता है कि परस्पर विरोधी और अविरोधी समस्त धर्मों का एक साथ आत्मामें रहना सम्भव है। यदि सम्पूर्ण धर्मोका एक साथ रहना मान लिया जाये तो परस्पर विरुद्ध चैतन्य-अचैतन्य, भव्यत्व-अभब्यत्व आदि धर्मो का एक साथ एक आत्मामें रहनेका प्रसग आ जायेगा । इसलिए 'सम्पूर्ण परस्पर विरोधी धर्म एक आत्मामें रहते है,' अनेकान्तका यह अर्थ नहीं समझना चाहिए। किन्तु जिन धर्मोंका जिस आत्मामें अत्यन्त अभाव नहीं (यहाँ सम्यग्मिध्याव भावका प्रकरण है) वे धर्म उस आत्मामें पिसी काल और किसी क्षेत्रकी अपेक्षा युगपत् भी पाये जा सकते है, ऐसा हम मानते है ।
३. अपेक्षा भेदसे अविरोध सिद्ध है स. सि 11/१२/३०३ ताभ्या सिद्ध सर्पितानपितासिद्धनास्ति विरोध । तद्यथा--एकस्य देवदत्तस्य पिता पुत्रो भ्राता भगिनेय इत्येवमादय सबन्धा जनकत्वजन्यत्वादिनिमित्तान विरुध्यन्ते, अर्पणाभेदात् ॥ पुत्रापेक्षया पिता, पित्रपेक्षया पुत्र इत्येवमादि । तथा द्रव्यमपि सामान्या"णया नित्यम, विशेषाण यानित्यमिति नास्ति विरोध । - इन दोनोकी अपेक्षा एक वस्तु में परस्पर विरोधी बो धमों की सिद्धि होती है, इसलिए कोई विरोध नही है। जैसे देवदत्तके पिता पुत्र, भाई और भानजे, इसी प्रकार और भी जनकत्व और जन्यत्वादिके निमित्तसे होनेवाले सम्बन्ध विरोधको प्राप्त नहीं होते। जब जिस धर्मकी प्रधानता होती है उस समय उसमे वही धर्म माना जाता है। उदाहरणार्थ-पुत्रकी अपेक्षा वह पिता है और पिताको अपेक्षा वह पुत्र है आदि। उसी प्रकार द्रव्य भी सामान्यकी अपेक्षा नित्य है और विशेषकी अपेक्षा अनित्य है, इसलिए कोई विरोध नही है। (रा.वा १/८.१९/३६/२२)। रा.वा./२/३१२/४६७/४ वियदेव न व्येति, उत्पद्यमान एव नोत्पद्यते इति विरोध, ततो न युक्तमिति: तन्न कि कारणम् । धर्मान्तराश्रयणात । यदि येन रूपेण व्ययोदयकल्पना तेनैव रूपेण नित्यता प्रतिज्ञायेत स्याद्विरोध जनकत्वापेक्षयैव पितापुत्रव्यपदेशवत्, नन्तु धर्मान्तरसंश्रयणात् । -प्रश्न - 'जो नष्ट होता है वही नष्ट नहीं होता और जो उत्पन्न होता है वही उत्पन्न नहीं होता,'यह बात परस्पर विरोधी मालूम होती है। उत्तर-वस्तुत विरोध नहीं है, क्योकि जिस दृष्टि से नित्य कहते है यदि उसी दृष्टिसे अनित्य कहते तो विरोध होता जैसे कि एक जनकत्वको ही अपेक्षा किसीको पिता और पुत्र कहने में। पर यहाँ द्रव्य दृष्टिसे नित्य और पर्याय दृष्टिसे अनित्य कहा जाता है, अत. विरोध नही है । दोनो नयोकी दृष्टि से दोनो धर्म बन जाते है ।
न.च /श्रु/६५ यथा स्वस्वरूपेणास्तित्व तथा पररूपेणाप्यस्तित्व माभूदिति स्याच्छब्द। यथा द्रव्यरूपेण नित्यत्व तथा पर्यायरूपेण (अपि) नित्यत्व माभूदिति स्याच्छब्द | = जिस प्रकार वस्तुका स्वरूपसे अस्तित्व है, उसी प्रकार पररूपसे भी अस्तित्व न हो जाये, इसलिए स्यात शब्द या अपेक्षाका प्रयोग किया जाता है। जिस प्रकार द्रव्यरूपसे बस्तु नित्य है, उसी प्रकार पर्यायरूपसे भी वह नित्य न हो जाये इसलिए स्यात् शब्दका प्रयोग किया जाता है । (स्या में २३/२७६/७)। प का/ता वृ/१८/३८ ननु या पादविनाशौ तर्हि तस्यैव पदार्थस्य
नित्यत्व कथम् । नित्यं तर्हि तस्यैवोत्पादव्ययद्वय च कथम् । परस्परविरुद्धमिद शीतोष्णवदिति पूर्व पक्षे परिहारमाहु । येषो मते सर्वथै - कान्तेन नित्यं वस्तु क्षणिकं वा तेषां दूषण मिदम् । कथमिति चेत् । येनैव रूपेण नित्यत्व तेनैवानित्यत्व न घटते, येन च रूपेणानित्यत्व तेनैव न नित्यत्व घटते। कस्मात् । एकस्वभावत्वाद्वस्तुनस्तन्मते । जैनमते पुनर नेकस्वभाव बस्तु तेन कारणेन द्रव्याथिक नयेन द्रव्य रूपेण नित्यत्व घटते पर्यायाथिकनयेन पर्याय रूपेणानित्यत्वं च घटते। तौ च द्रव्यपर्यायौ परस्पर सापेक्षौ-तेन कारणेन.. एकदेवदत्तस्य जन्यजनकादिभाववत् एकस्यापि द्रव्यस्य नित्यानित्यत्वं घटते नास्ति विरोध । == प्रश्न- यदि उत्पाद और विनाश है तो उसी पदार्थ में नित्यत्व कैसे हो सकता है। और यदि नित्य है तो उत्पाद-व्यय कैसे हो सकते है । शोत व उष्ण की भाँति ये परस्पर विरुद्ध है। उत्तरजिनके मतमें वस्तु सर्वथा एकान्त नित्य या क्षणिक है उनको यह दूषण दिया जा सकता है। कैसे । वह ऐसे कि जिस रूपसे नित्यत्व है, उसी रूपसे अनित्यत्व घटित नहीं होता और जिस रूपमे अनित्यत्व है, उसी रूपसे नित्यत्व घटित नहीं होता। क्योंकि उनके मतमें वस्तु एक स्वभावी है। जैन मत में वस्तु अनेकस्वभावी है इसलिए द्रव्याथिक् नयसे नित्यत्व और पर्यायाथिकनयसे अनित्यत्व घटित हो जाता है और क्योकि ये द्रव्य व पर्याय परस्पर सापेक्ष है, इसलिए एक देवदत्तके जन्य-जन क्त्वादि भाववत् एक ही द्रव्य के नित्यामित्यत्व घटित होने में कोई विरोध नही है। स्या म/२४/२६०८ तदा हि विरोध स्यान्य द्यकोपाधिकं सत्व मसच्च
च स्यात् । न चैवम् । यतो न हि येनैवाशेन सच तेनैवासत्त्वमपि । किरन न्योपाधिक सन्चम, अन्योपाधिकः पुनरसन्यम् । स्वरूण्ण सत्य पररूपेण चासत्त्वम् । = सत्त्व असत्त्व धर्मों में तब तो विरोध हुआ होता जब दोनों को एक ही अपेक्षासे माना गया होता। परन्तु ऐसा तो है नहीं, क्योकि, जिस अशसे सरव है उसी अशसे असत्त्व नहीं है। किन्तु अन्य अपेक्षासे सत्त्व है और किसी अन्य ही अपेक्षासे असत्त्व है। स्वरूपमे सत्त्व है और पररूपसे असत्त्व है। १. वस्तु एक अपेक्षासे एकरूप है और अन्य अपेक्षासे
अन्यरूप रा,वा /१/६/१२/३७/१ सपथासपक्षापेक्षयोपल क्षिताना सत्त्वासत्त्वादीनां भेदानामाधारेण पक्षधर्मेणे केन तुलनं सर्वद्रव्यम् । -जैसे एक ही हेतु सपक्ष में सत और विपक्ष में असत होता है उसी तरह विभिन्न अपेक्षाओसे अस्तित्व आदि धर्मों के रहने में भी कोई विरोध नही है। (तथा इसी प्रकार अन्य अपेक्षाओं से भी कथन किया है)। न.च वृ/५८ भावा णेयसहावा पमाणगणेण होति णिवत्ता। एकसहावा वि पूणो ते चिय णनभेयगहणेण ॥५८ प्रमाणकी अपेक्षा करनेपर भाव अनेकस्वभावोसे निष्पन्न भी है और नय भेदकी अपेक्षा करनेपर
वे एक स्वभावी भी है। स सा /आ /परि. "अत्र स्वात्मवस्तुज्ञानमात्रतया अनुशास्यमानेऽपि न तत्परिकोप, ज्ञानमात्रस्यात्मवस्तुन स्वमेवानेकान्तत्वात् ।.. अन्तश्चकचकायमानज्ञानस्वरूपेण तत्त्वाइ बहिरुन्मिषदनन्तशेयतापन्नस्वरूपातिरिक्तपररूपेणातत्त्वात् । सहक्रमप्रवृत्तानन्तचिदंशसमुदयरूपा. विभागद्रव्येण क्त्वात. अविभागैक्द्रव्यप्राप्तसहक्रमप्रवृत्तानन्त चिदशरूपपर्यायैरनेकत्वात, स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावभवनशसिस्वभाववत्वेन
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org