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अनेकान्त
अनेकान्त
पं.का /त प्र/८ एवभूतापि सा न खलु निरङ्कुशा कितु सप्रतिपक्षा । प्रतिपक्षी ह्य सत्ता सत्ताया', अत्रिलक्षणत्व विलक्षणाया अनेकत्वमेकस्या , एकपदार्थ स्थितत्व सर्व पदार्थ स्थिताया, एकरूपत्व सविश्वरूपाया , एकपर्यायत्वमनन्तपर्याया इति ।-ऐसी होनेपर भी वह (सत्ता) बास्तबमें निर कुश नहीं है, किन्तु सप्रतिपक्ष है। १. सत्ताको असत्ता प्रतिपक्ष है, २ विलक्षणको अविलक्षणपना प्रतिपक्ष है, ३ एकको अनेकपना प्रतिपक्ष है, ४ सवपदार्थ स्थितको एकपदार्थ स्थितपना प्रतिपक्ष है: ५ सविश्वरूपको एकरूपपना प्रतिपक्ष है, ६ अनन्तपर्यायमयको एकपर्यायमयपना प्रतिपक्ष है । (प ध./पू /१५) (न.च श्रु/५३)। नि.सा/ता वृ./३४ अस्तित्व नाम सत्ता। सा किविशिष्टा । सप्रतिपक्षा,
अवान्तरसत्ता महासत्तेति = अस्तित्व नाम सत्ताका है। वह कैसी है। महासत्ता और अवान्तरसत्ता-ऐसी सतिपक्ष है। स भत/५१/३ सत्ता सप्रतिपक्षे का इति वचनात् ।-सम्पूर्ण द्रव्य, क्षेत्र,
कालादि रूप जो एक महासत्ता है वही विकल द्रव्य, क्षेत्र आदिसे प्रतिपक्ष सहित है। ऐसा अन्यत्र आचार्यका वचन है।
४ स्व सदा परको अपेक्षा रखता है स्या मं /१६/२१८/११ कथ पन्यथा स्त्रशब्दस्य प्रयोग । प्रतियोगीशब्दो
ह्यय परमपेक्षमाण एव प्रवतं ते।='स्व' शब्द का प्रयोग अन्यथा क्यो किया है । स्व-शब्द प्रतियोगी शब्द है । अतएव स्वशब्दसे पर शब्दका भी ज्ञान होता है।
५ विधि सदा निषेधकी अपेक्षा रखती है। न च वृ./२५७,३०४ एक्कणिरुद्ध इयरो पहिवक्खो अणवरेइ सम्भावो । सम्वेसिं च सहावे कायव्वा होइ तह भगी २५७॥ अस्थित्त णो णत्थिसहावस्स जो हु सावेक्ख । णत्थी विय तह दवे मूढो मूढो दु सम्वत्थ ॥३०४॥ - एक स्वभावका निषेध होनेपर दूसरा प्रतिपक्षी स्वभाव अनुवृत्ति करता है, इस प्रकार सभी स्वभावों में सप्तभंगी करनी चाहिए ॥२५७॥ जो अस्तित्वकोनास्तित्व सापेक्ष और नास्तित्वको अस्तित्व सापेक्ष नही मानता है, वह द्रव्यमें मूढ और इसलिए सर्वत्र मृढ है। रावा./१/६.१३/३७/६ यो हेतुरुपदिश्यते स साधको दूषकश्च स्वपक्ष साधयति परपक्ष दूषयति । जो हेतु कहा जाता है वह साधक भी होता है और दूषक भी, क्योकि स्वपक्षको सिद्ध करता है पर पक्षमे दोष निकालता है (स भ त./80/३) । पं.ध/पू./६६५ विधिपूर्व प्रतिषेध प्रतिषेधपुरस्सरो विधिस्त्वनयो.। मैत्री प्रमाण मिति वा स्वपराकारावगाहिं यज्ज्ञानम् । विधिपूर्वक प्रतिषेध और प्रतिषेध पूर्वक विधि होती है, परन्तु इन दोनोकी मैत्री स्वपराकारग्राही ज्ञान रूप है । वही प्रमाण है।
६. वस्तुमें कुछ विरोधी धर्मोंका निर्देश दे अनेकान्त/शीर्षक "सख्या सव-असत, एक-अनेक; नित्य-अनित्य, तव-अतत् । (४/१),भेद अभेद (४/२) । सत्ता-असत्ता, विलक्षणत्वअत्रिलक्षणत्व; एकत्व-अनेकत्व, सर्व पदार्थ स्थित-एक पदार्थ स्थित, सविश्वरूप-एकरूप, अनन्तपर्यायमयत्व-एकपर्यायमयत्व, महासत्ता
अवान्तरसत्ता; स्व-पर, (४/३)।" न च वृ/७०/ टीका "सद्रूप-असद्रूप, नित्य अनित्य, एक अनेक, भेद
अभेद; भव्य-अभव्य, स्वभाव-विभाव, चैतन्य-अचैतन्य, मूर्तअमूर्त, एकप्रदेशत्व-अनेकप्रदेशत्व, शुद्ध-अशुद्ध, उपचरित-अनुपचरितः एकान्त-अनेकान्त इत्यादि स्वभाव है। स्या म /मू/२५ अनित्य-नित्य, सदृश-विसदृश, वाच्य-अवाच्य, सत
असत् । ध/पू श्लो न. "देश-देशाश ॥७४५, स्व द्रव्य - महासत्ता-अवान्तर सत्ता ॥२६४॥, स्वक्षेत्र-सामान्य-विशेष; अर्थात् अखण्ड द्रव्य तथा उसके प्रदेश, स्व काल सामान्य-विशेष अर्थात् अखण्ड द्रव्यकी एक पर्याय तथा पृथक्-पृथक् गुणोको पर्याय; स्वभाव सामान्य व विशेष अर्थात द्रव्य तथा गुण व पर्याय ॥२७०-२८०॥ (और भी दे. जीव ३/४)
७. वस्तुमें कथंचित स्वपर भान निर्देश रा वा /१/६.५/३४/३६ चैतन्यशक्तेवाकारौ ज्ञानाकारो ज्ञेयाकारश्च.. तत्रज्ञ याकार स्वात्मा तन्मूलत्वाद घटव्यवहारस्य । ज्ञानाकार परात्मा सर्वसाधारणत्वात् । चैतन्य शक्तिमे दो आकार रहते है-ज्ञानाकार व ज्ञेयाकार । तहाँ ज्ञानाकार तो घटव्यवहारका मूल होनेके कारण स्वात्मा है तथा सर्वसाधारण होनेके कारण ज्ञयाकार परमात्मा है। रावा /९/६,५/३३/३६,४०,४१,४३ घटत्व नामक धर्म 'घट'का स्वरूप है
और पटत्वादि पररूप है। नाम, स्थापना, द्रव्य, भावादिको में जो विवक्षित है, वह स्वरूप है और जो अविवन्ति है, वह पररूप है । घट विशेषके अपने स्थौल्यादि धर्मोसे विशिष्ट घटत्व तो उसका स्वरूप है और अन्य घटाका घटता उसका पररूप है। और उस ही घट विशेषमें पूर्वोत्तरकालवर्ती पिण्ड कुशूलादि उसका पररूप है और उन पिण्ड कुशूलादिमें अनुस्यूत एक घटत्व उसका स्वरूप है। जुसूत्र नयकी अपेक्षा वर्तमान घटपर्याय स्वरूप है और पूर्वोत्तर कालवर्ती घटपर्याय पररूप है। उस क्षण में भी तत्क्षणवर्ती रूपादि समुदायात्मक घटमें रहनेवाले पृथुबुध्नोदरादि आकार तो उसके स्वरूप है और इसके अतिरिक्त अन्य आकार उसके पररूप है। तरक्षणवर्ती रूपादिकोंमें भी रूप उसका स्वरूप है और अन्य जो रसादि वे उसके पर रूप है, क्योकि चक्षु इन्द्रिय द्वारा रूण्मुखेन ही घटका ग्रहण होता है। समभिरूढ नयसे घटनक्रिया विषयक कतृत्व ही घटका स्वरूप है और अन्य कौटिल्यादि धर्म उसके पररूप है। मृत द्रव्य उसका स्व-द्रव्य है और अन्य स्वर्गादि द्रव्य उसके परद्रव्य है। घटका स्वक्षेत्र भूतल आदि है और परक्षेत्र भीत आदि है। घटका स्वकाल वर्तमानकाल है और परकाल अतीतादि है। (स भ त / ३६-४५)। स भ.त./४६.५१ प्रमेयका प्रमेयत्व उसका स्वरूप है घटत्वादिक ज्ञेय उसका पररूप है । अथवा प्रमेयका स्वरूप तो प्रमेयत्व है और पररूप अप्रमेयत्व है ॥४-५०॥ छहो द्रव्योका शुद्र अस्तित्व तो उनका स्वरूप है और उनका प्रतिपक्षी अशुद्ध अस्तित्व उनका पररूप है। शुद्ध द्रव्य में भी उसका सकल द्रव्य क्षेत्र काल भावकी उपेक्षा सत्व है और विकल द्रव्य क्षेत्रादिकी अपेक्षा असत्त्व है ॥५१॥ प.ध./3/३६८ ज्ञानात्मक आत्माका एक ज्ञान गुण स्वार्थ है और शेष
सुख आदि गुण परार्थ है। रा.वा /१/६.४ ३५/११ एवमिय सप्तभङ्गी जीवादिषु सम्यग्दर्शनादिषु च द्रव्याथिकपर्यायार्थिकन यार्पणाभेदायोजयितव्या । इस प्रकार यह सप्तभ गी जीवादिक व सम्यग्दर्शनादिक सर्व विषयों में द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा भेद करके लागू कर लेनी चाहिए। ५ विरोधमे अविरोध १ विरोधी धर्म रहनेपर भी वस्तमें कोई विरोध नहीं
पड़ता ध१/१,१,११/१६६/६ अक्रमेण सम्यग्गिथ्यारुच्यात्मको जीव सम्यग्मिध्यादृष्टिरिति प्रतिजानीमहे। न बिरोधोऽप्यनेकान्ते आत्मनि भूयसा धर्माणां सहानवस्थालक्षण विरोधासिद्ध ।युगपत् समीचीन और असमीचीन श्रद्धावाला जीव सम्यग्मिध्यादृष्टि है, ऐसा मानते है और ऐसा मानने में विरोध भी नहीं आता, क्योंकि आत्मा अनेकधर्मात्मक है, इसलिए उसमे अनेक धर्मोंका सहानवस्थालक्षण विरोध
असिद्ध है। पं.वि.८/१३/१५१ यत्सूक्ष्मं च महच्च शून्यमपि यन्नो शून्यमुत्पद्यन्ते,
नश्यत्येव च नित्यमेव च तथा नास्त्येव चास्त्येव च। एकं यद्यदनेकमेव तदपि प्राप्ते प्रतीति दृढा, सिद्धज्योतिरभूति चिरमुखमय केनापि __ तल्लक्ष्यते ॥१॥ प.वि /१०/१४/१७२ निर्विनाशमपि नाशमाश्रित शून्यमत्यतिशयेन सभृतम् । एकमेव गतमप्यनेकता तत्त्वमीहगपि नो विरुध्यते ॥१४॥
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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