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अनेकान्त
अन्यत्व
सत्त्वाव. परद्रव्यक्षेत्रकालभावाभवनशक्तिस्वभाववत्वेनासत्त्वाव, अनादिनिधनाविभाग कवृत्तिपरिणतत्वेन नित्यत्वात, क्रमप्रवृत्तै कसमयावच्छिन्नानेकवृत्त्यशपरिणतत्वेनानित्यत्वात्तदत्त्वमेक्कानेकत्वं सदसत्त्वं नित्यानित्यत्व च प्रकाशत एव । इसलिए आत्मवस्तुको ज्ञानमात्रता होने पर भी, तत्त्व-अतत्त्व, एकत्व-अनेकत्व, सत्त्व-असत्त्व और नित्यत्व पना प्रकाशता ही है, क्योकि उसके अन्तर गमें चकचकित ज्ञानस्वरूपके द्वारा तत्पना है; और बाहर प्रगट होते, अनन्त ज्ञेयत्वको प्राप्त, स्वरूपसे भिन्न ऐसे पररूपके द्वारा अतत् पना है। सहभूत प्रवर्तमान और क्रमश प्रवर्तमान अनन्त चैतन्य अशोके समुदायरूप अविभाग द्रव्यके द्वारा एकत्व है और अविभाग एक द्रव्यमें व्याप्त, सहभूत प्रवर्तमान तथा क्रमश प्रवर्तमान अनन्त चैतन्य अशरूप पर्यायोके द्वारा अनेकत्व है। अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूपमे हानेको शक्तिरूप जो स्वभाव है उस रवभाववानपनेके द्वारा सत्त्व है और परके द्रव्य, क्षेत्र, काल भावरूप न हानेकी शक्तिरूप जा स्वभाव है, उस स्वभाववानपनेके द्वारा असत्व है, अनादि निधन अविभाग एक वृत्तिरूपसे परिणतपनेके द्वारा नित्यत्व है, और क्रमशः प्रवर्तमान एक समयकी मर्यादावाले अनेक वृत्ति अशीरूपस परिणतपनेके द्वारा अनित्यत्व है।-दे नयX/8/21 ५. नयोको एकत्र मिलानेपर भी उनका विरोध कैसे दूर
होता है स्व, स्तो/६१ य एव नित्यक्षणिकादया नया मिथाऽनपेक्षा स्वपरप्रणाशिन । त एव तत्य विमलस्य ते मुने, परस्परेक्षा स्वपरोपकारि। --जो हो ये नित्य क्षणिकादि नय परस्परमें अनपेल होनेसे स्व-पर प्रणाशी है, वे ही नय हे प्रत्यक्षज्ञानो विमन जिन । आपके मतमें परस्पर सापेक्ष होनेसे स्व-पर उपकारी है। स्या म १२०/३३६/१३ ननु प्रत्येक नयानां विरुद्धत्व कथ समुदितानां निविधिता । उच्यते । यथा हि समीचीन मध्यस्थ न्यायनिर्णतारमासाद्य परस्पर विबदमाना अपि वादिनो दिवादाद विरमन्ति, एव नया अन्योऽन्य रायमाणा अपि सर्वज्ञशासनमुपेत्य स्याच्छन्दप्रयोगोपशमितविप्रतिपत्तय. सन्त परस्परमत्यन्तं सुहृभूयावतिचन्ते। प्रश्न-यदि प्रत्येक नय परस्पर विरुद्ध हैं तो उन नयों के एकत्र मिलानेसे उनका विरोध किस प्रकार नष्ट होता है। उत्तर - परस्पर बाद करते हुए बादी लोग किसी मध्यस्थ न्यायीके द्वारा न्याय किये जानेपर विवाद करना बन्द करके आपसमें मिल जाते है, वैसे ही परस्पर विरुद्ध नय सर्वज्ञ भगवानके शासनकी शरण लेकर 'स्याद' शब्दसे विरोधके शान्त हो जानेपर मैत्री भावसे एकत्र रहने लगते है। (स्याद्वाद/५ में देखो स्याव पद प्रयोगका महत्त्व)। ६. विरोधी धर्मो में अपेक्षा लगानेकी विधि
.. सत् असत् धर्मोकी योजना विधि-(दे. सप्तभगी ४)।
२. एक अनेक धर्मोकी योजना विधिपं.ध./पू./श्लोक स / केवल भावार्थ --"द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके द्वारा वह सत् अखण्ड या एक कैसे सिद्ध होता है, इसका निरूपण करते है।४३७॥ १ द्रव्यको अपेक्षा-गुणपर्यायवान् द्रव्य कहनेसे यह अर्थ ग्रहण नही करना चाहिए कि उस सबके कुछ अंश गुण रूप है और कुछ अश पर्याय रूप है, बलिक उन गुणपर्यायौंका शरीर वह एक सत है ॥४३८॥ तथा वही सत् द्रव्यादि चतुष्टयके द्वारा अखण्डित होते हुए भी अनेक है, क्योकि व्यतिरेकके बिना अन्वय भी अपने पक्षकी रक्षा नहीं कर सकता है ॥४१४॥ द्रव्य, गुण वपर्याय इन तीनोंमें संज्ञा लक्षण प्रयोजनकी अपेक्षा भेद सिद्ध होने पर वह सव अनेक स्वप क्यो न होगा ॥४१५॥ २ क्षेत्रकी अपेक्षा-क्षेत्रके द्वारा भी अखण्डित होने के कारण सत् एक है ०४५४॥ अखण्ड भी उस द्रव्य के प्रदेशोंको देखनेपर-जो सत् एक प्रदेशमें है वह उसी में है उससे भिन्न दूसरे प्रदेश में नहीं। अर्थात् प्रत्येक प्रदेशकी सत्ता जुदा-जुदा
दिखाई देती है। इसलिए कौन क्षेत्रसे भी सवको अनेक नहीं मानेगा ॥४६॥ ३ कालकी अपेक्षा-वह सव बार-बार परिणमन करता हुआ भी अपने प्रमाणके बराबर रहनेसे अथवा खण्डित नहीं होनेसे कालकी अपेक्षासे भी एक है ॥४७८॥ क्योंकि सतकी पर्यायमालाको स्थापित करके देखें तो एक समयकी पर्यायमें रहनेवाला जो जितना व जिस प्रकारका सत है, वही उतना तथा उसी प्रकारका सम्पूर्ण सव समुदित सब समयों में भी है। कहीं कालकी वृद्धि-हानि हानेसे शरीरको भाँति उसमें वृद्धि-हानि नही हो जाती ॥४७२-४७४॥ पृथक-पृथक पर्यायोको देखने पर जो सत एक कालमें है, वह सत अर्थात् विवक्षित पर्याय विशिष्ट द्रव्य उससे भिन्न कालमें नहीं है। इसलिए कालसे वह सत् अनेक है ॥४७॥ ४ भावकी अपेक्षा-(यदि सम्पूर्ण सत्का गुणोकी पक्तिरूपसे स्थापित करके केवल भावमुखेन देखो तो इन गुणों में सब सच ही है और यहाँपर कुछ भी नहीं है। इसलिए वह सव एक है॥४८॥ जिस-जिस भावमुखसे जिस-जिस समय सत्को विवक्षा की जायेगी, उस-उस समय वह सब उस-उस भावभय ही कहा जायेगा या प्रतीतिमें आयेगा अन्य भाव रूप नहीं। इस प्रकार भावको अपेक्षा वह सद अनेक भी है ॥४६८॥
३. अनित्य व नित्य धर्मोकी योजना विधि पध/पू. श्लोक स. "जिस समय केवल वस्तु दृष्टिगत होती है और परिणाम दृष्टिगत नहीं होता उस समय द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा सर्व वस्तु नित्य है ॥३३४ा जिस समय यहाँ केवल परिणाम दृष्टिगत होता है और वस्तु दृष्टिगत नहीं होती, उस समय पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे, नवीन पर्याय रूपसे उत्पन्न और पूर्व पर्यायरूपसे विनष्ट हानेसे सब वस्तु अनित्य है।
४ तत् व अतत् धर्मोकी योजना विधि प.ध./पू./श्लो. स. "परिणमन करते हुए भी अपने सम्पूर्ण परिणमनों में तज्जातीयपना उल्लघन न करनेके कारण वह सब तव रूप है ॥३५२३ परन्तु सत असतकी तरह पर्यायाथिक नयकी अपेक्षा देखने पर प्रत्येक पर्यायमें वह सत् अन्य अन्य दिखनेके कारण अतव रूप भी है ॥३३३॥
७ विरोधी धर्म बतानेका प्रयोजन पं.ध./पू /३३२,४४२ अयमर्थ सदसद्वत्तदतदपि च विधिनिषेधरूपं स्यात् ।
न पुननिरपेक्षतया तदद्वयमपि तत्त्वमुभयतया ॥३२॥ स्यादेकत्वं प्रति प्रयोजक स्यादरखण्डवस्तुत्वम् । प्रकृत यथासदेक द्रव्येणारखण्डि मतं तावत।-सत-असल्की तरह तव-अतव भी विधिनिषेध रूप होते है, किन्तु निरपेक्षपने नहीं क्योंकि परस्पर सापेक्षपनेसे वे दोनों ततअतत भी तत्त्व है।३३२॥ कथंचित एकत्व बवाना वस्तुकी अखण्डता
का प्रयोजक है। न.च./श्रु./पृ. ६५-६७/ भावार्थ "स्याव नित्यका फल चिरकाल तक स्थायीपना है। स्यादनित्यका फल निज हेतुओं के द्वारा अनित्य स्वभावी कर्मके ग्रहण व परित्यागादि होते हैं।" अनैकान्तिक हेत्वाभास-दे व्यभिचार । अनोजीविका-दे. सावद्य।।। अन्न-१. अन्नं मुगादि (ला.स /२/१६) मूग, मोठ, चना, गेहूँ आदि अन्न कहलाता है। २. बीधा व संदिग्ध अन्न अभक्ष्य है-वे. भक्ष्याभक्ष्य २। अन्नप्राशनक्रिया-दे. संस्कार २। अन्यत्व-रा.वा./२/७,१३/११२/१ अभ्यत्वमपि साधारणं सर्वद्रव्याणा परस्परतोऽन्यवाद । कर्मोदयाद्यपेक्षाभावाद तदपि पारिणामिकस् । - एक द्रव्य दूसरेसे भिन्न होता है, अतः अन्यस्व भी सर्वसाधारण है। कर्मोदय आदिकी अपेक्षाका अभाव होनेके कारण, यह पारिणामिक भाव है, अर्थात् स्वभावसे ही सममें पाया जाता है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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